पलटन मल्लाह को फाँसी की सजा हुई थी। क्यों हुई थी? जाहिर है उसने किसी का खून किया था। अदालतें फाँसी की सजा ‘रेयरेस्ट ऑफ़ द रेयर’ के आधार पर देती हैं तो जाहिर है इस मामले में भी ऐसा कुछ हुआ होगा। ये भी वैसे ही मामलों में से था, जिसमें सीबीआई जाँच कर रही थी। मल्लाह ने जिसे मारा था वो व्यक्ति सोया हुआ था और उससे पलटन मल्लाह की कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं थी। चूँकि सिर्फ चंद पैसों के लिए उसने एक ऐसे व्यक्ति को मार डाला था जो मजदूरों के हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए जाना जाता था, इसलिए पलटन मल्लाह को फाँसी हुई।
सबूतों के आधार पर कुछ पूंजीपतियों को भी सजा हुई थी। उन्हें हत्या के लिए पैसे देने के कारण, उम्रकैद और दस लाख के जुर्माने जैसी सजाएँ सुनाई गईं थीं। मगर ये फैसला एक निचली अदालत का था। बाद में ये मामला जब सर्वोच्च न्यायलय तक पहुँचा तो पूँजीपतियों को सबूतों के टिकाऊ ना होने के कारण साफ बरी कर दिया गया। इस वक्त तक हत्या को कई साल बीत चुके थे। लम्बा समय जेल में गुजार चुकने के कारण पलटन मल्लाह को भी सर्वोच्च न्यायलय ने फाँसी की सजा नहीं दी। उसकी सजा को बदलकर उम्रकैद कर दिया गया था।
जो हत्या 1991 में हुई उस पर 1997 में फैसला आया था। इस फैसले को जून 1998 में मध्य प्रदेश की उच्च न्यायलय ने पलट दिया था और सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया था। इसके बाद मामला सर्वोच्च न्यायलय में गया था। जिस दौर में मध्य प्रदेश में ये हो रहा था उस वक्त महाराष्ट्र में भी मजदूर यूनियन की ऐसी ही हलचल मची थी। मुंबई के टेक्सटाइल मिल के मजदूर यूनियन के नेता, 1981 में दत्ता सावंत बन चुके थे। मध्यमवर्गीय मराठी परिवार के दत्ता सावंत एमबीबीएस डॉक्टर थे और आमतौर पर उन्हें डॉक्टर साहेब ही बुलाया जाता था।
उन्होंने बॉम्बे इंडस्ट्रियल एक्ट 1947 के खात्मे और दूसरी मांगों के साथ टेक्सटाइल मिल मजदूरों की हड़ताल कर दी थी। ये बड़ी हड़तालों में से एक थी क्योंकि इसमें करीब तीन लाख मिल मजदूर शामिल थे। 1982 की इस साल भर चली हड़ताल में सरकार कोई माँग मानने को तैयार नहीं थी। ग्रेट बॉम्बे टेक्सटाइल स्ट्राइक के नाम से जाने जानी वाली इस हड़ताल को तोड़ना सरकार के लिए जरूरी था। डॉक्टर साहेब दत्ता सावंत के कांग्रेस से सम्बन्ध थे, लेकिन इंदिरा गाँधी उन्हें एक बड़ा राजनैतिक खतरा मानती थी।
डर ये भी था कि भारत की औद्योगिक राजधानी में जारी ये हड़ताल अगर डॉक और दूसरे इलाकों तक फैली तो दत्ता सावंत मुंबई के सबसे बड़े, निर्विरोध मजदूर नेता बन जाते। इस हड़ताल को तोड़ने के लिए सरकार ने एक दूसरे नेता को प्रश्रय देना शुरू किया। ये नेता थे बाल ठाकरे। यहीं से मुंबई की राजनीति में शिवसेना का दखल शुरू हुआ। हड़ताल के बीतने के काफी बाद एक रोज जनवरी 1997 में जब डॉक्टर साहेब घर से निकल रहे थे तब उन्हें गोलियों से भून डाला गया। जिसने हत्या की थी उस छोटा राजन के गुर्गे का बाद में पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया था। इस घटना की भी सीबीआई जाँच हुई थी।
इन घटनाओं और इन नेताओं से प्रभावित एक लेखिका चित्रा मुद्गल ने हत्याओं से व्यथित होकर हड़ताल और मजदूर यूनियन की पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिखा था ‘आवां’। करीब साढ़े पांच सौ पन्नों का ये उपन्यास उस दौर की कहानियाँ, घात-प्रतिघात और राजनैतिक चालों पर आधारित कथानक पर चलता है। जैसा कि जाहिर है, ये दोनों लोग वाम की ओर वाले नेता थे तो उपन्यास भी उधर ही झुका हुआ है। इन हड़तालों से मुंबई की टेक्सटाइल इंडस्ट्री ख़त्म हो गई, या कहिए कि उठकर कहीं और चली गई।
इस उपन्यास के लिए लेखिका को व्यास सम्मान मिला। वो व्यास सम्मान पाने वाली पहली महिला हैं। ऐसे आंदोलनों में मजदूर का क्या होता है ये अंदाजा करना हो तो कभी ‘आंवा’ पढ़िए। उपन्यास किस ओर झुका हुआ है, ये बताते-बताते ये भी याद दिला दें कि दूसरी ओर झुकाव रखने वालों ने संभवतः ऐसे विषयों पर कुछ नहीं लिखा।