इतिहास का लेखन उसकी विसंगतियों की अनुक्रमिका नहीं वरन उसके समाज के आम रूप से स्वीकृत मान्यताओं एवं उस समाज के जननायकों द्वारा स्थापित मानदंडों के आधार पर होना चाहिए। परंतु जब लेखनी उन हाथों में हो जिनका मंतव्य शोध नहीं एक समाज को लज्जित करना भर हो तो समस्या गहन हो जाती है। जब प्रबुद्ध लोग कलम उठाते हैं और इस उद्देश्य के साथ उठाते हैं कि अप्रासंगिक एवं संदर्भहीन तथ्यों के माध्यम से समाज की वर्ग विभाजक रेखाओं को पुष्ट कर सकें तो हमारा कर्तव्य होता है कि हम सत्य को संदर्भ दें और अपने इतिहास के भले बुरे पक्षों को निर्विकार भाव से जाँचें।
बीते सप्ताह बाल विवाह को लेकर विदेशी सभ्यता में उठे प्रश्नों को भारत की सभ्यता पर प्रक्षेपित करके और उसकी स्वीकार्यता स्थापित करने पर बड़ी चर्चा रही। इस संदर्भ में श्री एएल बाशम से ले कर राजा राम मोहन रॉय तक चर्चा चली। बाशम की पुस्तक ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ को उद्धृत कर कहा गया कि हिंदू धर्म शास्त्रों में कन्या के बाल विवाह को मान्य कहा गया था परंतु यह आंशिक संदर्भ था। इसमें बाशम ने मनुस्मृति एवं गौतम बौधायन को उद्धृत किया है। यहाँ दो तीन विषयों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
प्रथम, यह स्थापित है कि मनुस्मृति बौधायन से पूर्व की पुस्तक है। बौधायन में कई जगह मनु का संदर्भ दिया गया है। अतः मूल मानक मनु से ही आने चाहिए। साथ ही मनुस्मृति एवं अन्य भारतीय ग्रंथों में प्रक्षेपों की समस्या रही है। इस कारण से मनु स्मृति को संदर्भ, शैली विरोध एवं विषय विरोध को ध्यान में लेते हुए यह जाँचना आवश्यक है कि कौन से श्लोक मूल रूप से मनुस्मृति से हैं और कौन से बाद के काल में प्रक्षिप्त हुए हैं। विवाह की आयु को ले कर बाशम के द्वारा दिया गया श्लोक उत्तराधिकार के नियमों के अध्याय से आता है। ऐसे खंडों में विद्वानों ने प्रक्षेप और परिवर्तन की सम्भावना बताई है जहाँ सम्पत्ति लोभ में मूल लेख में परिवर्तन किए गए हों।
मनुस्मृति में साक्ष्यों के साथ किए गए ऐसे परिवर्तनों पर डॉक्टर सुरेंद्र कुमार की टीका एक बहुत ही प्रामाणिक स्त्रोत है। मनुस्मृति के कुछ श्लोकों में स्वयंभू मनु का संदर्भ है तो कहीं वैवस्वत मनु का संदर्भ है, इस से स्पष्ट होता है कि स्वयंभू मनु द्वारा रचित मूल मनुस्मृति में समय समय पर परिवर्तन हुए हैं क्योंकि वैवस्वत मनु स्वयंभू मनु से सात पीढ़ियों बाद के काल में आए थे। बाद में उत्तराधिकार के नियमों में कई परिवर्तन हुए। नंद पंडित रचित दत्तक मीमांसा को इसी श्रेणी में रखा जाता है जिसे पहले अंग्रेजों ने प्रामाणिक मान लिया था परंतु बाद में यह दायभाग को लेकर लाया गया क्षेपक सिद्ध हुआ। इसी प्रकार रघुमणि विद्याभूषण द्वारा रचित दत्तक चंद्रिका को भी मनुस्मृति से छेड़ छाड़ माना गया है।
ऐसी स्थिति में साधारण मनुष्य सत्य किसे माने? तो इसमें मनुस्मृति के मूल श्लोक को बनाए गए श्लोकों के साथ रख के, समाज की प्रामाणिक स्थिति का अध्ययन सत्य को सबसे उत्तम प्रकार से बताता है। दूसरी बात यह है कि क्योंकि हिंदू धर्म रूढ़िवादी एक-पुस्तकवाद निर्देशिका पर आधारित नहीं है, समाज किस भाव को ले कर इतिहास में अपने मानक तय करता है यह श्लोकों की प्रामाणिकता स्थापित करती है, क्योंकि समाज ने अवश्य समय समय पर विभिन्न कारणों से घुसाए गए निर्देशों को स्वीकार नहीं किया होगा। यह एक तार्किक तथ्य है। मनुस्मृति के मूल श्लोक वेदों के भाव से भिन्न नहीं हैं। वेदों से समन्वय भी एक परीक्षण का उपयुक्त मार्ग हो सकता है।
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जैसे कन्या के विवाह की आयु के विषय को देखें तो इस पर मनुस्मृति में बाद में आए परवर्ती श्लोक को उद्धृत किया जाता है जिसके अनुसार बाल विवाह या अल्पायु विवाह का प्रावधान स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। परंतु यदि हम मनु के मूल भाव को देखें और वेदों से उसे जोड़ के परखें तो सत्य उद्घाटित हो जाता है।
ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् ।। – अर्थात् – ब्रह्मचर्य धर्म के कर्तव्य को पूर्ण करने के पश्चात कन्या पति का चयन करे – अर्थववेद कहते हैं और इसी भाव को मनुस्मृति अपने मूल रूप में आगे बढ़ाता है। वैदिक आयु को सौ वर्ष मानें तो ब्रह्मचर्य की आयु मनु के अनुसार पच्चीस वर्ष होती है। स्त्री की विवाह योग्य आयु के विषय में मनुस्मृति कहती है –
त्रीणि वर्षान्युदीक्षेत कुमार्युतुमती सती।
ऊर्ध्व तु कालादेतस्माद्विंदेत सदृशम पतिम।।
परिपक्वता प्राप्त करने के पश्चात तीन वर्ष प्रतीक्षा करने के उपरांत कन्या पति का वरण कर सकती है। सुश्रुत संहिता में वैज्ञानिक एवं चिकित्सकीय विचार उपलब्ध है। यहाँ पुरुष की परिपक्वता की आयु पच्चीस वर्ष और कन्या की परिपक्वता की आयु सोलह वर्ष बताई गयी है जिसके उपरांत ही कन्या विवाह योग्य होती है।
ऋग्वेद के दशम मंडल के विवाह सूक्त में भी भिन्न भिन्न भावों से कन्या को अनेक रूपों से पार हो कर विवाह के योग्य माना गया है।
सोम: प्रथमो विविदे गंधर्वो विविद उत्तर: ।
तृतीयो अग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजा: ।।
विवाह योग्य वधू पहले सोम से कैशोर्य प्राप्त करती है, रजोदर्शन द्वारा गृहस्थ पालन की शक्ति प्राप्त करती है और फिर यौवन की ऊष्मा प्राप्त करती है उसके उपरांत पति उसे प्राप्त करता है।
बाशम अपने जिस कथन में बोधायन का ज़िक्र करते हैं, जहाँ उत्तराधिकार वाले अध्याय में कन्या के पति से एक तिहाई आयु होने की बात है, वहीं ठीक उसके ऊपर के श्लोक में मनु के परिपक्वता और उसके बाद तीन वर्ष प्रतीक्षा की बात लिखित है। बाद के श्लोकों में मतांतर उनके प्रक्षिप्त होने की सम्भावना बताता है।
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अब यदि हम संभावनाओं और क़यासों से हट कर वैदिक समाज में विवाह का सत्य स्वयं बाशम की पुस्तक में ही देखते हैं तो समझ सकते हैं कि मनु के वास्तविक शब्द और देवाहुति का विवाह प्रसंग इन मिथ्याप्रचारों की कलई खोल के यह बताता है कि वास्तव में हिंदू समाज के विदेशी आक्रमण के पूर्व बाल विवाह के प्रति क्या विचार थे। बाशम जहाँ पहले भी इस विषय में चर्चा इस वाक्य से करते हैं – हालाँकि प्रारंभिक समय में भारत में यह प्रचलित प्रथा थी कि विवाह के पूर्व कन्या पूर्णतया परिपक्व हो। आगे भी वे लिखते हैं कि दोनों ही पक्षों में बाल विवाह, जो बाद के समय में धनी परिवारों में प्रचलित होने लगा, उसका धार्मिक साहित्य में कोई स्थान नहीं था, और यह संदेहजनक है कि मध्य युग के आने तक भारत में ऐसी किसी प्रथा का प्रचलन था (बाशम, पृष्ठ संख्या 167)।
बाशम आगे यह भी लिखते हैं कि बहुतों का ऐसा अनुमान है कि आततायी मुसलमानों के आने के कारण संभवतः भारतीयों में इस प्रथा को बल मिला हो। यहाँ बाशम यह कहने से बचते हैं कि आक्रामक सेना उस संस्कृति को साथ ले कर आयी थी जहाँ बालिकाओं को भी उपभोग की वस्तु मानना क़बीलाई इतिहास का अंग था और उनकी दूषित दृष्टि से बचाने के लिए संभवत: यह प्रथा भारत में उभरी हो। आज के भारत में जो बुद्धिजीवी भारतीय एक स्वस्थ परम्परा का एक हिसंक संस्कृति से समन्वयीकरण करने की होड़ में तथ्य को तोड़ रहे हैं उन्हें इतिहास को अपने पूर्वाग्रह किनारे रख के पढ़ना चाहिए।
इनके मूल ग्रंथों में ना होने की सत्यता इससे भी दिखती है कि समाज में इसका प्रतिबिम्ब प्रत्येक दुष्प्रचार के बाद भी नहीं दिखता। सन 1894 में प्रकाशित प्रमथ नाथ बोस की ब्रिटिश साम्राज्य में हिंदू सभ्यता, भाग -2 के अकाट्य तथ्यों में यह सत्य परिलक्षित होता है कि भारत के नैतिक मूल्यों ने बाल विवाह को एक समाज के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया। 1891 के सर्वेक्षण के अनुसार प्रत्येक 1000 बालकों में से 26 बालक और कन्यायों में से मात्र 76 दस वर्ष की आयु में विवाहित थे। हिंदू संगठन आर्य समाज 1894 में बाल विवाह के विरोध में मुखर हो चुका था। 1890 में बंगाल में कन्सेंट ऐक्ट पारित हुआ जिसमें विवाह की आयु 12 वर्ष की गई। छठवें समाज सुधार सभा के अधिवेशन में कन्या की विवाह की आयु 14 वर्ष करने के पक्ष में प्रस्ताव पारित हुआ। पूना में 1891 में हुई सभा में हिंदुओं ने बाल विवाह के विरोध में शपथ ली। इस सभा में 1258 ब्राह्मण, 126 कायस्थ और क्षत्रिय, 33 वैश्य, 60 मराठा थे। बड़ोदा महाजन सभा ने 1892 में बाल विवाह के विरोध में प्रस्ताव पारित किया।
हिंदुओं में इन सुधारों के लिए स्वतःस्फूर्त प्रयास निरंतर होते रहे। 1927 में श्री हरि सिंह गौर ने विवाह की आयु को बढ़ाने का प्रयास किया। इसके पश्चात सर मोरोपंत जोशी की अध्यक्षता में जोशी कमिटी की स्थापना 1928 में हुई। इसी कमिटी के सुझावों के अनुरूप 1927 में प्रस्तुत सारदा ऐक्ट 1 अक्तूबर 1929 को 67 समर्थक मतों से पास हुआ। यह ऐक्ट बड़े स्पष्ट रूप से विफल हुआ। 45% हिंदू बालिका वधुओं के समक्ष 38 प्रतिशत मुस्लिम कन्या वधुओं के बावजूद इस एक्ट को हिंदुओं पर ही लागू किया गया। सजा का प्रावधान बहुत कठिन था। बिना शिकायत कार्यवाही का प्रावधान नहीं था। 1937 में शरिया ऐक्ट पास हुआ जिसके तहत मुस्लिम समाज को इस क़ानून के दायरे से बाहर रखा गया। कन्या की विवाह की आयु 1949 में बढ़ा कर 15 वर्ष कर दी गई और 1978 में 18 कर दी गई।
2006 में बाल विवाह उन्मूलन क़ानून पारित हुआ। किन्ही कारणों से यह भी प्रचारित किया गया कि भारत में बाल विवाह के विरोध में सुधारवादी आंदोलन राजा राम मोहन रॉय ने चलाया। तथ्य यह है की राजा राम मोहन रॉय की मृत्यु 1833 में हुई थी और जिस सती प्रथा के विरोध के नाम पर उन्होंने हिंदू धर्म और मूर्ति पूजा का विरोध किया उसकी ना तो वेदों में स्वीकृति थी ना ही उनके समय प्रचलन था।
राममोहन रॉय के हिंदू विरोध के विषय में स्वामी विवेकानंद ने भी लिखा है इसी कारण वे वर्तमान में हिंदू विरोधियों के अत्यंत प्रिय हैं। यह इस प्रश्न के तथ्य हैं कि हिंदू समाज में और हिंदू धर्म में बाल विवाह की स्वीकार्यता थी। हिंदू धर्म में बाल विवाह की मान्यता नहीं थी, बाल विवाह आक्रांताओं के आने के बाद बढ़ा और इसका विरोध हिंदू समाज के अंदर से ही मुखर हुआ। बाल विवाह होते थे यह तथ्य है परंतु यह उसी प्रकार का तथ्य है जैसे अमेरिका में आज स्कूलों में हत्या के प्रकरण जिनका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि आज से सौ वर्ष बाद यह पढ़ा जाए कि इक्कीसवीं सदि में अमरीका में विद्यालयों में बच्चों की हत्या की धार्मिक परम्परा थी। इतिहास के तथ्य वर्तमान की दिशा दे सकते हैं यदि हम उन्हें दुर्भावना के साथ ना पढ़ें और सत्य का निष्पेक्ष अन्वेषण करें।