‘आजादी का अमृत महोत्सव’ कहने को तो भारत की स्वतंत्रता के 75 साल पूरे होने का उत्सव है, पर असल में इसका उद्देश्य है भारत से औपनिवेशिकता का सम्पूर्ण अंत। आधुनिक समय के इतिहास में हम देखते हैं तो औपनिवेशिकता के अंत की शुरुआत 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में स्वामी विवेकानंद के एतिहासिक शिकागो भाषण ने कर दी थी, और उसी नींव पर आधुनिक भारत खड़ा है, जिसका सत्त्व आवश्यक रूप से सनातन है।
अगले साल शिकागो भाषण के 130 वर्ष पूरे हो रहे होंगे, उसके बाद 150 और उसके बाद 200 वर्ष पूरे हो रहे होंगे, पर उसका एक-एक शब्द अटल रहेगा, क्योंकि वह भाषण सांस्कृतिक भारत की ऐतिहासिक अंतर्चेतना को प्रस्तुत करता है जो सार्वकालिक है और उसे बदला नहीं जा सकता, वह चिन्तन वेदों की अजस्र धारा से निकला है और उसका कोई आदि नहीं है।
वह बेड़ियाँ जो उपनिवेशों की बंधन हैं, जब वह टूट जाएंगी और राष्ट्र स्वतंत्रता के पथ पर बढ़कर सिंहासन पर पहुँच जाएगा तब दुष्ट लोग संसार को सताना छोड़ देंगे और थके-मांदे विश्राम पाएंगे। शिकागो भाषण के इस मर्म ने दुनिया को स्तंभित कर दिया था और उपनिवेशवादियों को शर्म से गड़ा दिया था।
शिकागो भाषण का लक्ष्य पहले से तय था
शिकागो भाषण से दो वर्ष पहले स्वामी विवेकानंद ने पश्चिमी अन्धानुकरण को लक्षित करते हुए प्रमदादास को पत्र में लिखा “यहाँ सभी लोग सज्जन हैं, पर उनमें बहुत अधिक पाश्चात्यपन आ गया है। खेद की बात है कि मैं पाश्चात्य भावों के अन्धानुकरण का पूर्ण विरोधी हूँ। कैसी रद्दी सभ्यता विदेशी यहाँ लाए हैं! उन्होंने जड़वाद का कैसा मृगजाल उत्पन्न किया है। विश्वनाथ इन दुर्बल हृदयों की रक्षा करे।”
शिकागो भाषण से पहले का संघर्ष
शिकागो जाने और वहाँ रहने खाने की व्यवस्था करने के लिए स्वामी विवेकानंद को कितना संघर्ष करना पड़ा, यह उनके पत्रों से पता चलता है। बोस्टन के एक गाँव में उन्हें एक महिला के यहाँ शरण मिली, उन्होंने लिखा “यहाँ पर रहने से मुझे ये सुविधा होती है कि मेरा हर रोज एक पौण्ड के हिसाब से जो खर्च हो रहा था वह बच जाता है, और उनको यह लाभ होता है कि वे अपने मित्रों को बुलाकर उनको भारत से आया हुआ एक अजीब जानवर दिखा रही हैं! इन सब यातनाओं को सहना ही पड़ेगा।“
पैसों की अत्यंत कमी से जूझते हुए उन्होंने मद्रास के मित्रों को एक तार में लिखा, “तुम लोग जितना हो सके मेरी मदद करो, और यदि तुम मदद न कर सको तो मैं ही आखिर तक कोशिश कर देखूँगा। और यदि मैं यहाँ रोग, जाड़े या भूख से मर भी जाऊं तो तुम इस कार्य में जी-जान से लग जाना।”
शिकागो भाषण का दिन और उसके बाद
शिकागो भाषण के बारे में स्वामी विवेकानंद ने अपने मित्र अलासिंगा को लिखा, “मैंने इस प्रकार सम्बोधन किया ‘अमेरिकावासी भाइयों और बहनों!’ इसके बाद दो मिनट तक ऐसी घोर करतलध्वनि हुई कि कानों में ऊँगली देते न बनी। ‘मूकं करोति वाचालं’ की तरह मेरा नाम अमेरिका भर में फैल गया। यदि मैं समाचारपत्रों की कतरनें भेजूं तो तुम आश्चर्यचकित हो जाओगे, परन्तु तुम जानते ही हो कि मैं नाम और यश से घृणा करता हूँ।”
भाषण के कुछ ही दिनों बाद स्वामी विवेकानंद ने अपने मद्रास के शिष्यों को लिखा, “भारत से किसी प्रकार की आवश्यकता की मुझे सहायता नहीं, यहाँ किसी चीज की कमी नहीं है। तुम लोगों के पास जो धन है उससे इस संक्षिप्त भाषण को छापकर प्रकाशित करो, एवं भिन्न भिन्न भारतीय भाषाओँ में अनुवाद कराकर चारों तरफ इसका प्रचार करो।”
स्वामी विवेकानंद की स्थिति में यह अंतर बता देता है कि भाषण का प्रभाव कितना व्यापक था कि जहाँ उनके पास खाने-पीने की सुविधा नहीं थी और भारत से मदद मांगनी पड़ रही थी कुछ ही दिनों बाद यह समस्या शांत हो गई।
अपने एतिहासिक भाषण को प्रचारित करने का जो निवेदन स्वामी विवेकानंद ने किया था, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब तक उसका निर्वाह कर रहे हैं और हर वर्ष 11 सितंबर को शिकागो भाषण अपने ट्विटर पर शेयर करते हैं। यानी समझा जा सकता है कि 130 साल बाद भी उस भाषण की उपयोगिता उतनी ही है जितनी तब थी।
औपनिवेशिकता के अंत का अमृत
“आजादी का अमृत महोत्सव” पर किए गए “पंच प्रणों” में औपनिवेशिकता के अंत को सबसे ऊपर रखा गया है, इसपर स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि, “उनका अमृत हमारे लिए विष हो सकता है”। उन्होंने कहा था,
“हमें अपनी प्रकृति के अनुकूल विकास करना होगा। विदेशी समाजों द्वारा हम पर बलात् आरोपित कार्य प्रणालियों का अनुगमन करना हमारे लिए निरर्थक है। यह असंभव भी है। मैं अन्य जातियों की सामाजिक संस्थाओं की निंदा नहीं करता, वह उनके लिए अच्छी हैं, किन्तु हमारे लिए नहीं।
जो उनके लिए अमृत है वह हमारे लिए विषतुल्य हो सकता है। यह पहला पाठ है, जिसे हमें स्मरण रखना है। उनकी वर्तमान जीवन प्रणालियों के पीछे दूसरी विद्याएँ हैं, दूसरी संस्थाएं हैं और दूसरी परंपराएं हैं। हम अपनी परंपराओं के कारण, अपने पीछे सहस्रों वर्षों के कर्म संचय के कारण, अपनी ही प्रवृत्ति के अनुसार आगे बढ़ सकते हैं, अपने जीवन प्रवाह के अनुकूल रहकर ही प्रगति कर सकते हैं।
हे भारत! केवल दूसरों की हाँ में हाँ मिलाकर, दूसरों की इस क्षुद्र नकल के द्वारा, दूसरों का ही मुँह ताकते रहकर, क्या तू इसी पाथेय के सहारे, सभ्यता और महानता के चरम शिखर पर चढ़ सकेगा? क्या तू अपनी इस लज्जास्पद कायरता के द्वारा उस स्वाधीनता को प्राप्त कर सकेगा जिसे पाने के अधिकारी केवल साहसी और वीर हैं।”