देवभूमि उत्तराखंड के बारे में यह मान्यता है कि यहाँ के कण-कण में देवी-देवताओं का वास है। अपनी विशाल पौराणिक धरोहर के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध एक राज्य। अद्भुत झरने, नदियाँ और पहाड़, यहाँ की बोली, भाषा और दैवीय स्थल, सुंदरता वाला राज्य। लोक संस्कृति का धनी राज्य, लोक संस्कृति जिसमें इतिहास की तस्वीर दिखाई देती है। स्थानीय भाषा में कहा जाता है, “रंगीलो कुमाऊँ मेरो, छबीलो गढ़वाल” यानी उत्सव से भरा कुमाऊँ और इतिहास से भरा गढ़वाल।
उत्तराखंड राज्य में दो मंडल हैं; गढ़वाल मंडल और कुमाऊँ मंडल। दोनों अपनी लोक संस्कृति को बखूबी सहेजे हुए है। यहाँ के लोक-गीत जितने प्रसिद्द हैं, उतना ही प्रसिद्द है यहाँ का लोक-नृत्य, जो उत्तराखंड की सांस्कृतिक कला के वैविध्य का दर्शन कराता है।
इसी कला में से एक है कुमाऊँ का ‘ छोलिया नृत्य‘ जिसे ‘छलिया नृत्य ‘ भी कहा जाता है। कुमाऊँनी संस्कृति का प्रतीक नृत्य जो अक्सर कुमाऊँनी शादियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाता है। यह नृत्य अधिकतर कुमाऊँ जिलों के अल्मोड़ा, बागेश्वर,चम्पावत और पिथौरागढ में देखा जाता है।
वैसे यह नृत्य केवल कुमाऊँ में ही नहीं बल्कि नेपाल के बैतड़ी और दार्चुला राज्य में भी मशहूर है जो कुमाऊँ के छोलिया नृत्य से ही प्रेरित है इसे खास मौकों पर किया जाता है। कुमाऊँ में छोलिया नृत्य में यदि अक्सर पुरुषों को देखा जाता है तो धारचूला में अधिकतर स्त्रियाँ छोलिया नृत्य प्रदर्शित करती हैं।
छोलिया नृत्य मूलतः तलवार के साथ किया जाने वाला नृत्य है और इसका इतिहास बहुत पुराना है। देखा जाए तो यह नृत्य जूडो, कराटे, कुंग फू, ताइक्वांडो जैसे मार्शल आर्ट की तरह ही है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कुमाऊँ के छोलिया नृत्य के मूल में कई कथाएँ हैं। एक कथा के अनुसार हज़ारों वर्ष पहले कुमाऊँ के विजयी राजा जब युद्ध से लौटे तो अपने दरबार में युद्ध का बखान करते हुए अपने अनुभव को साझा कर रहे थे, तभी रानियों की लालसा इसे प्रत्यक्ष देखने की हुई। जिसके बाद राजा ने अपनी सेना को दो भागों में बाँटकर युद्ध दिखाने का आदेश दिया, जिसे उन्होंने नृत्य कला के साथ प्रदर्शित किया और यहीं से हर वर्ष इसका प्रदर्शन होने लगा।
एक अन्य कथा के अनुसार, छोलिया नृत्य का चलन कुमाऊँ के खस और कत्यूरियों राजाओं के समय हुआ था, जब तलवार की नोक पर विवाह हुआ करते थे। कालांतर में यह नृत्य क्षत्रियों की पहचान बन गया। छोलिया नृत्य कुमाऊँ में राजपूत समुदाय के लोगों की शादियों में नज़र आता है।
विवाह के समय इस नृत्य का आयोजन शुभ माना गया है और इसके पीछे की स्थानीय मान्यता यह है कि यह नृत्य नए जोड़े और बारातियों को बुरी आत्माओं और राक्षसों से सुरक्षा प्रदान करता है।
कुमाऊँ में छोलिया नृत्य के नर्तकों को छोल्यार कहा जाता है। इस नृत्य में 10 से 20 नर्तकों की टोली होती है जो आपस में जुगलबंदी करते नज़र आते है। इनके दाएँ हाथ में तलवार और बाएँ हाथ में प्रहार को रोकने के लिए ढाल होती है।
इसके साथ कलाकार तुरी, नागफनी, रणसिंह और ढोल, दमाऊ जैसे कुमाउनी वाद्य यंत्रों की मदद से नृत्य कला को प्रदर्शित करते है। इन पारंपरिक वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल युद्ध में सैनिकों के मनोबल को बढ़ाने के लिए किया जाता था।
नर्तकों की पोशाक पारंपरिक होती है जिसमें सफेद चूड़ीदार पायजामा, उसके ऊपर से रंग बिरंगा घेरेदार चोला जिसे कुमाऊँ में झगुला भी कहा जाता है, सिर पर पगड़ी या साफा, पैरों में घुंघरू, कमर में रंगीन कमरबंद और चेहरे पर चंदन का लेप लगाए हुए। ये वेशभूषा राजा महाराजाओं के समय युद्ध में जाने वाले सैनिकों की याद दिलाता है।
अक्सर यह देखा गया है कि समय के साथ साथ पारंपरिक पोशाक में बदलाव आ जाता है पर छोलिया नृत्य में आज तक ये बदलाव नहीं देखा गया। यही वजह है की जब भी इस वेशभूषा के साथ ये छोलिया नृत्य दिखाते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानों सदियों पुराने सैनिक रणभूमि में युद्ध कर रहे हों।
उत्तराखंड अपनी पारंपरिक संस्कृति को आज भी सहेजे हुए है और कुमाऊँ की संस्कृति आज भी आकर्षित करने वाली होती है। अपनी परम्पराओं को सहेजना किसी भी सफल समाज के विकास के मूल में है, इसके महत्व की समझ से ही भविष्य की राह तय होती है। यह अच्छा है कि स्थानीय स्तर पर आज भी संस्कृति और परंपरा की पूजा होती है।