नेहरु-गांधी परिवार को छोड़कर देश की आजादी में किसी के योगदान का सम्मान ना करने वाली कॉन्ग्रेस के पक्षपात का पुराना इतिहास रहा है। आज 27 फरवरी को भारत के महान क्रांतिकारी पंडित चन्द्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि है।
27 फरवरी, 1931 के दिन आजाद ने खुद की पिस्टल से कनपटी पर गोली चला ली थी, जिससे उन्हें अंग्रेज जीवित ना पकड़ सकें। जितनी वीरतापूर्ण चन्द्रशेखर आजाद की कहानी है, उतना ही दुखद उसके बाद की उनकी माताजी की कहानी है।
चन्द्रशेखर की माताजी का नाम जगरानी देवी था। जगरानी देवी का एक मात्र सहारा चन्द्रशेखर आजाद ही थे जिन्हें वह चंदू नाम से पुकारती थीं। उनका निवास स्थान मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में भाबरा गाँव था।

आजाद के बलिदान के बाद वह निराश्रित हो गईं, परन्तु अपने स्वाभिमान के कारण वह किसी से सहायता मांगने के बजाय जंगल से लकड़ी बीनकर और गोबर इकट्ठा करके उसकी जलावन बनाकर बाजार में बेचती थीं।
जगरानी देवी से अनेक व्यक्ति कहा करते थे कि उनका बेटा डाकू था जिसे अंग्रेजों ने मारा है लेकिन जगरानी देवी लगातार कहा करती थीं कि उनका बेटा स्वतंत्रता सेनानी था जिसने देश के लिए अपने प्राण दे दिए।
आजाद ने वर्ष 1931 में ही देश के लिए प्राण दे दिए थे। इसके कुछ वर्षों के पश्चात उनके पिता श्री सीताराम तिवारी का भी निधन हो गया था। अकेली पड़ीं जगरानी देवी ने अपने जीवन निर्वाह के लिए काम करने का रास्ता चुना।
समाचार पात्र दैनिक भास्कर द्वारा की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, जगरानी देवी की स्थिति इसके पश्चात इतनी दयनीय हो गई थी कि कई बार उन्हें ज्वार और बाजरा का घोल बनाकर पीना पड़ता था। गाँव वालों ने भी जगरानी देवी को समाज से बहिष्कृत कर दिया था और उन्हें ‘डकैत की मां’ कह कर बुलाते थे। मात्र समाज ही नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत से भी जगरानी देवी को कोई सहायता नहीं मिली।
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वर्ष 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद जहाँ कॉन्ग्रेस के अधिकांश नेता मंत्री, राजदूत और सरकार में बड़े पदों पर बैठ गए वहीँ जगरानी देवी के जीवनयापन का सहारा वर्ष 1949 तक यही कार्य रहा। वर्ष 1949 में आजाद के एक पुराने साथी और क्रांतिकारी सदाशिव राव आजाद के गाँव उनके माता-पिता का हाल लेने पहुंचे और उनकी माताजी का यह स्थिति देख कर उन्हें अपने साथ बुँदेलखंड के प्रमुख शहर झांसी ले आए।
सदाशिव राव आजाद के विश्वस्त थे। एक ट्विटर यूजर ने लिखा है कि सदाशिव का घर काफी छोटा था इसलिए उन्होंने आजाद की माताजी के रहने का प्रबंध एक मित्र भगवान दास माहौर के घर किया था। सदाशिव राव ने चन्द्रशेखर आजाद की माताजी की काफी सेवा की और कहते हैं कि सदाशिव ने उन्हें चारधाम की यात्रा भी कराई।
आज़ाद की माँ की प्रतिमा को कॉन्ग्रेस सरकार ने बताया था अवैध
वर्ष 1949 से 1951 तक जगरानी देवी झांसी में ही रहीं। वर्ष 1951 में उनका निधन हो गया तब उनका अंतिम संस्कार सदाशिव राव ने ही किया। वर्ष 1951 में जगरानी देवी के निधन के बाद झाँसी के निवासियों ने शहर में उनकी स्मृति में एक पीठ का निर्माण किया था। गोविन्द वल्लभ पन्त की अगुवाई वाली तत्कालीन कॉन्ग्रेस सरकार ने इसे एक अवैध निर्माण बता दिया।
झांसी के नागरिकों पर इस फैसले का कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने चन्द्रशेखर की माताजी को उनका सम्मान दिलाने के लिए एक प्रतिमा की स्थापना का फैसला लिया।
कॉन्ग्रेस सरकार को जब इस बात का पता चला कि कुछ ही दिनों में प्रतिमा भी स्थापित की जाएगी तो उन्होंने इस कृत्य को देश और समाज के लिए खतरा बता दिया और झांसी में कर्फ्यू लगा दिया।
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झांसी के लोग कर्फ्यू से भी नहीं डिगे और प्रतिमा की स्थापना के लिए जुलूस के रूप में निकले। इससे बौखलाई कॉन्ग्रेस सरकार ने जुलूस का नेतृत्व कर रहे सदाशिव राव पर गोली चलाने का आदेश दे दिया।
हालाँकि जनता ने कवच बनाकर सदाशिव राव को चोट गोली नहीं लगने दी। पुलिस द्वारा बर्बरता के कारण कई लोग घायल हुए और कई मारे भी गए। अंत में हुआ ये कि चन्द्रशेखर आजाद की माताजी की प्रतिमा स्थापित नहीं की जा सकी।
कहते हैं कि सदाशिव राव द्वारा चन्द्रशेखर की माताजी के प्रति इतने स्नेह के पीछे उनका चन्द्रशेखर आजाद को दिया गया वचन और उनकी स्वयं की माताजी का निधन कालापानी की सजा भुगतने के दौरान हुआ था इसलिए वह जगरानी देवी में अपनी माताजी की छवि देखते थे।