मास्टर रुद्रनारायण जी की झाँसी वाली “राष्ट्रशाला” और उसमें दी जाने वाली “राष्ट्रशिक्षा” की बुंदेलखंड़ के कुछ राजाओं और ठाकुरों को खबर हो चुकी थी। खनियाधाना, दतिया, बिजावर आदि के रजवाड़े अंदर से तो देशभक्त ही थे पर समय की मार के चलते अंग्रेज़ों के अधीन आ चुके थे। इन रजवाड़ों के जंगल मास्टर जी के शिष्यों के निशाना लगाने, छापा मारने अदि के अभ्यास का केंद्र बन चुके थे। झाँसी अज्ञातवास के दौरान मास्टर जी ने आज़ाद का परिचय भी उनसे करा दिया था।
झाँसी-ओरछा स्टेट के सम्बन्धियों का रजवाड़ा झाँसी के नज़दीक ही था। आज़ाद उनके एक सरदार के निमंत्रण पर वहाँ कुछ दिन बिताने आए हुए थे। राजा साहब उन दिनों भोग-विलास में सिर तक डूबे हुए थे। राजा साहब की कारगुज़ारियां जब बढ़ती चली गईं तो राजा के उसी सरदार, उनके कुछ साथी और रिश्तेदारों ने बगावत करने की ठान ली। आज़ाद को खजाने में हिस्सेदार बनाते हुए उस राजा की हत्या का प्रलोभन दिया गया। आज़ाद ने सुना और कुछ दिन बाद आज़ाद लौट कर झाँसी आ गए। उसी शाम को उनकी मुलाकत मास्टर जी के घर पर संगठन के कुछ ऐसे प्रेमियों से हुई जो संगठन से सहानुभूति तो रखते थे किन्तु खुलकर साथ नहीं देते थे। उन्होंने सरदार द्वारा दिए गए प्रस्ताव के बारे में आज़ाद से पूछा। आज़ाद चौंके तो ज़रूर लेकिन चौकन्ने भी हो गए और मास्टर जी की ओर देखने लगे। मास्टर जी ने आँखों ही आँखों में चुप रहने इशारा किया। आज़ाद समझ गए और बोले,
“आप लोगों को कौन ऐसा बोला?”
“अरे भाई हमारे भी नाक-कान हैं। हम आपकी सारी खबर रखते हैं। ”यह वाक्य मास्टर जी के लिए चिंताजनक था। इन लोगों को आज़ाद की वहाँ होने-रहने की खबर होना आज़ाद के लिए ठीक बात नहीं थी। आज़ाद ने बात संभाली,
“अरे नहीं भाई, मैं तो बस शिकार-पानी के लिए सरदार साहब के साथ गया था। मेरी तो इस प्रस्ताव के बारे में कोई बात ही नहीं हुई।”
“वैसे उनका प्रस्ताव मान लेने में बुराई क्या है? संगठन को कुछ पैसा भी मिल जाएगा।”
आज़ाद को इनकी झूठी सहानुभूति से गुस्सा तो बहुत आया किन्तु बोले,
“अरे जाने दीजिए, ऐसी कोई बात ही नहीं हुई।”
“आप लोग सुनाइए, गाँधी जी कौन सा नया आन्दोलन लेकर आ रहे हैं अब?” मास्टर जी ने बात बदल डाली थी।
“हमको पता है मास्टर जी कि आप गांधीवादी विचारों से सहमत नहीं किन्तु गांधीवाद एक सोच नहीं धर्म है।”
“जी सत्यवचन।” मास्टर जी बोले। वो आज़ाद के चेहरे पर बदलते भावों को भी देखते जा रहे थे।
“गाँधी जी का ‘अहिंसा परमो धर्म’ वाला मार्ग आपके हिंसात्मक रवैए वाले मार्ग से कोसों दूर है।” एक नेता जी ने ज्ञान दिया। आज़ाद की मुट्ठी तन गई किन्तु मास्टर जी ने आज़ाद का हाथ पकड़ लिया और बोले,
“जिन अंग्रेज़ों के खिलाफ़ हमारी लड़ाई है वो अंग्रेज़ शुरूआत से ही ‘फूट डालो और राज करो’ वाली नीति अपना कर राजाओं या सामंतो को आपस में लड़ा कर हिंसा को बढ़ावा नहीं दे रहे हैं?”
किसी ने जवाब नहीं दिया।
“जीते हुए राजा के राज्य को बाद में वो स्वयं छीन लेते हैं या उसको वे खत्म कर देते है। अगर ऐसा नहीं करते तो किसी दूसरे शक्तिशाली राजा के साथ उसको युद्ध में झोंक देते हैं। आप सभी महानुभव यह भूल रहे हैं कि आप जिस धरती पर बैठे हुए हैं, वहाँ की रानी सा के साथ भी यही हुआ था।”
मास्टर जी की आवाज़ सुनकर आज आज़ाद भी चौंक उठे थे। इस रूप में उन्होंने मास्टर जी को कभी नहीं देखा था। मास्टर जी बोले जा रहे थे।
“अंग्रेज़ जब रानी सा की झाँसी नहीं छीन पाए तो क्या उन्होंने अहिंसा का मार्ग अपनाया था? नहीं अपनाया था ना?”
किसी के पास जवाब नहीं था।
“जब कुछ देशप्रेमियों, देशभक्तों ने रानी सा के कदमों पर चलते हुए अंग्रेज़ों का विरोध करना शुरू किया तो उन्हें महात्मा गांधी ने ये कह कर रोक दिया कि ‘अहिंसा परमो धर्म:’ यानि अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म है और हमे हिंसा नहीं करना चाहिए।”
आज़ाद को आज मज़ा आ रहा था क्योंकि आमतौर पर मास्टर जी इन व्यक्तियों से बहस में नहीं पड़ते थे। लेकिन आज मास्टर रुद्रनारायण जी ने अपना रूद्र रूप दिखने की ठान ली थी।
“तो ठीक ही तो कहते हैं गांधी जी।”
“श्रीमान गाँधी जी कहते तो ठीक हैं किन्तु आधा-अधूरा ज्ञान क्यूँ देते हैं?”
“क्या मतलब है आपका? एक ज्ञानीजन थोड़ा भड़के।
“सिर्फ इतना मतलब है कि गाँधी जी सिर्फ ‘अहिंसा परमो धर्म:’ कहकर चुप क्यों हो जाते हैं। वो पूरी बात क्यों नहीं कहते। क्यों नहीं बताते कि,
“अहिंसासाधुहिंसेति श्रेयान् धर्मपरिग्रह:”
भी कहा गया है। जिसका अर्थ है कि यदि धर्म का पालन हिंसा से हो तो हिंसा करें और अहिंसा से हो तो अहिंसा। गाँधी जी यह बात क्यों नहीं बताते कि,
“न हि पश्यामि जीवन्तं लोके कञ्चिदहिंसया”
अर्थात मुझे नहीं लगता कि संसार में कोई अहिंसा से जीविका चलाने वाला है।
आज़ाद की अब हँसी नहीं रुक रही थी। उनको मास्टर जी का यह रूप पहली बार देखने में आया था। आज़ाद ने मास्टर जी को उकसाया,
“मास्टर जी वो आप क्या कहते हैं कि शठे-शठे।।”
नेता गण बैठक से जाने लगे थे। मास्टर जी ने रोका,
“अरे आज़ाद की बात भी सुनते जाइए। आज़ाद विदुर नीति के पक्षकार हैं जिसमें कहा गया है,
“कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम्,
तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत्”
“अर्थात जो जैसा बर्ताव तुम्हारे साथ करे उसके साथ वैसा ही बर्ताव करो। यदि कोई तुम्हारे साथ हिंसा करता है तो तुम भी उसके प्रतिकार में उसके साथ हिंसा का बर्ताव करो! इसमें कोई दोष नहीं है क्योंकि शठ यानि दुष्ट के साथ शठता ही करने में प्रतिद्वंदी पक्ष की भलाई है।”
बैठक खाली हो चुकी थी। आज़ाद के अब ठहाके रुक नहीं रहे थे।
“तुम आगे से इन सरदार से नहीं मिलोगे आज़ाद।”
“मुझे भी यही लग रहा है कि वहाँ जाना अब खतरे से खाली नहीं है।”
“कड़ी-चावल लगा दये हमने दाऊ।” अंदर से मुन्नी भाभी की आवाज़ आई।
अब आज़ाद को कौन रोक सकता था। वो अंदर चौके में भागे। मास्टर जी अपनी आराम कुर्सी पर कुछ गहरी सोच में बैठे थे। आज़ाद की सुरक्षा देश की आज़ादी के लिए उनकी ज़िम्मेदारी थी। कहाँ भेजना चाहिए उन्हें?
सामने आई खलक सिंह की तस्वीर।
कौन थे यह खलक सिंह???
भारत के स्वतंत्रता संग्राम एक ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएं आप क्रांतिदूत शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गई हैं।
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