केरल में एक बार फिर से राज्य सरकार और राज्यपाल आमने-सामने हैं। यह विवाद विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति से जुड़ा हुआ है। राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने केरल के 9 विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को इस्तीफा देने के लिए कह दिया।
इस आदेश के तहत उप कुलपतियों को 24 अक्टूबर तक इस्तीफा देना था। राज्यपाल के आदेश के मूल में उच्चतम न्यायालय का फैसला है, जिसके अंतर्गत न्यायालय ने उप कुलपतियों की नियुक्ति पर केरल उच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त कर दिया था।
अब राज्य विश्वविद्यालयों के उप कुलपति फिर से केरल उच्च न्यायालय की शरण में जा पहुँचे हैं और न्यायालय ने उन्हें राहत देते हुए कहा है कि वे अपने पद पर तब तक बने रह सकते हैं जब तक कि कुलाधिपति (राज्यपाल) उन्हें कारण बताओ नोटिस के बाद अंतिम आदेश जारी नहीं करते।
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एपीजे अब्दुल कलाम तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति राज श्री की नियुक्ति रद्द कर दी थी। उच्चतम न्यायालय ने इसे यूजीसी के नियमों का उल्लंघन बता कर कहा कि यूजीसी नियमों के अनुसार कुलपति का चयन करने के लिए पैनल को तीन नामों की सिफारिश करनी होती है, लेकिन यहाँ केवल एक नाम बढ़ाया गया जो नियम के खिलाफ है।
इस मामले में केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने राज्यपाल की आलोचना की। उन्होंने कहा कि राज्यपाल के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है। वहीं, दूसरी ओर राज्यपाल ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि कुलपति की नियुक्ति कुलाधिपति की ही जिम्मेदारी है, इसमें राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं है।”
राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव का यह कोई पहला उदाहरण नहीं है। इससे पूर्व भी कई मुख़्यमंत्रियों और उनकी सरकारों के अलग-अलग मुद्दों पर राज्यपाल से मतभेद हुए हैं।
हालाँकि, यह मामला राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच है, लेकिन इस टकराव की जड़ में केंद्र-राज्य सम्बंध ही रहे हैं। हाँ, पिछले कुछ वर्षों में इसके कई और रूप देखने को मिले हैं जिसके पीछे विपक्ष का मोदी-विरोध प्रमुख है। इनमें से इस विरोध का एक रूप केंद्रीय एजेंसियो द्वारा राज्यों में भ्रष्टाचार की जाँच का विरोध का भी रहा है। कई बार यह मतभेद संवैधानिक संकट की स्थिति तक भी पहुँचे जिससे केंद्र-राज्य संबधों पर बुरा असर पड़ा है।
हाल के वर्षों में ही केंद्र-राज्य संबधों की यह चर्चा क्यों जोर पकड़ रही है?
हाल के वर्षों में इसकी शुरुआत आंध्र प्रदेश से हुई। वर्ष 2018 में आँध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख़्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने केंद्रीय जाँच एजेंसी सीबीआई को लेकर एक आदेश पारित किया था। केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) को आंध्र प्रदेश में कानून के तहत शक्तियों के इस्तेमाल के लिए दी गई ‘सामान्य रजामंदी’ वापस ले ली गई।
इसका अर्थ यह था कि सीबीआई तत्कालीन राज्य सरकार की अनुमति के बिना राज्य में कोई जाँच नहीं कर सकती थी। इस आदेश को सत्ता द्वारा भ्रष्टाचार के संरक्षण के रूप में देखा गया। तत्कालीन चंद्रबाबू नायडू सरकार पर कई मामलों में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लग रहे थे।
इसी दौर में जेरुसलम मथाई, जो वर्ष 2014 के ‘कैश फ़ॉर वोट’ मामले का मुख्य आरोपित था, ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर ‘कैश फ़ॉर वोट’ मामले की सीबीआई जाँच की माँग की थी, जिसमें चंद्रबाबू नायडू सरकार के मंत्री समते कई विधायकों के शामिल थे।
इसके अलावा नायडू शासन काल में पोलावरम परियोजना में बड़ा घोटाला उजागर हुआ था। इन सभी मामलों में सीबीआई जाँच की माँग हो रही थी, लेकिन राज्य में सीबाआई पर रोक के कारण सभी सम्भावनाएँ समाप्त हो गई।
हालाँकि, बाद में वर्ष 2019 में जगन मोहन रेड्डी की नई सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें राज्य सरकार द्वारा सीबीआई जाँच के लिए ‘सामान्य रजामंदी’ वापस ले ली गई थी। रेड्डी ने कहा, “चंद्रबाबू ने सीबीआई पर रोक लगा दी थी, उन्हें आयकर विभाग के छापे का डर था।”
सीबाआई को राज्य में अनुमति न देने वाले राज्यों में अगला नाम जुड़ा महाराष्ट्र का।
महाराष्ट्र
जहाँ वर्ष 2019 से वर्ष 2022 तक महाविकास अघाड़ी सरकार में उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री थे। इस ढाई वर्ष के कार्यकाल में कई मौके ऐसे आए, जब उद्धव सरकार को केंद्र सरकार की जाँच एजेन्सियों के कारण ‘असहज’ होना पड़ा। सीबाआई और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा अलग-अलग दर्ज भ्रष्टाचार एवं मनी लॉन्ड्रिंग मामले में उद्धव सरकार में गृहमंत्री रहे अनिल देशमुख की गिरफ्तारी हुई, जिसमें देशमुख पर 100 करोड़ रूपए की वसूली का आरोप था।
इसके बाद, प्रवर्तन निदेशालय ने अंडरवर्ल्ड की गतिविधियों से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में उद्धव सरकार में अल्पसंख्यक मंत्री नवाब मलिक को गिरफ्तार किया। इसी बीच ठाकरे सरकार ने यह फैसला लिया कि सीबीआई राज्य सरकार की अनुमति के बिना जाँच नहीं कर सकेगी।
हालाँकि, हाल ही में महाराष्ट्र की नवगठित शिंदे सरकार ने यह फैसला पलट कर सीबीआई के लिए ‘सामान्य रजामंदी’ को बहाल कर दिया है। इसके बाद चर्चित पालघर मामले में सीबीआई ने जाँच शुरू कर दी।
महाराष्ट्र की उद्धव सरकार का केंद्र सरकार के प्रति रवैए का उदहारण; इसी वर्ष राज्यसभा को सूचित किया गया था कि महाराष्ट्र सरकार की अनुमति न देने के कारण सीबीआई महाराष्ट्र में 101 मामलों में जाँच शुरू करने में असमर्थ थी जो 20,000 करोड़ रुपए से अधिक की बैंकिंग धोखाधड़ी से जुड़े थे।
सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय पर रोक के जरिए केंद्र सरकार को चुनौती देने की इस परम्परा में एक नया अध्याय ममता बनर्जी ने जोड़ा।
पश्चिम बंगाल
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने वर्ष 2018 में केंद्र सरकार पर यह आरोप लगाया था कि वह अपने राजनीतिक मकसद को पूरा करने के लिए सीबीआई का इस्तेमाल करती है। इसके बाद राज्य सरकार ने सीबीआई को जाँच के लिए दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली थी।
इसके बाद वर्ष 2019 में, कोलकाता के पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार से शारदा चिट फंड घोटाले में पूछताछ करने पहुँची सीबीआई को कोलकाता पुलिस ने थाने में रोक लिया था और राजीव कुमार से पूछताछ नहीं करने दिया था। ममता ने केंद्र सरकार पर सीबीआई का दुरुपयोग करने का आरोप लगाते हुए धरने पर बैठने की घोषणा कर दी थी। मामला इतना बढ़ा कि उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा।
ऐसा नहीं है कि हर बार सीबीआई जाँच को लेकर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कोर्ट से राहत मिली हो। वर्ष 2021 में विधानसभा चुनाव से पहले जब सीबीआई ने उनके भतीजे और डायमंड हार्बर से तृणमूल कॉन्ग्रेस के सांसद अभिषेक बनर्जी की पत्नी रुजिरा से कोयला घोटाले में पूछताछ शुरू की तो मुख्यमंत्री सीबीआई को रोक नहीं पाई। क्योंकि इस बार जाँच का आदेश कलकत्ता उच्च न्यायालय ने दिया था।
बंगाल की मुख़्यमंत्री जाँच एजेंसियों के विरोध तक ही सीमित नहीं रही बल्कि विधानसभा चुनाव में तो ममता बनर्जी ने अपने समर्थकों से CRPF का घेराव करने के लिए भी कह दिया। जिसके बाद चुनाव आयोग की तरफ से ममता बनर्जी को नोटिस भी थमाया गया।
बंगाल सरकार और केंद्र की मोदी सरकार के बीच टकराव तब बढ़ता हुआ दिखा जब बंगाल के पूर्व राज्यपाल पश्चिम बंगाल से जुड़े मुद्दों पर काफी मुखर दिखे। चाहे वह चुनावों के दौरान कानून-व्यवस्था से जुड़ी हिंसा की घटना हो या कोरोना काल में हुए घोटालों में जाँच की माँग! राज्यपाल धनखड़ का वह बयान देशभर में खासा चर्चित रहा, जिसमें उन्होंने कहा कि समूचा बंगाल इस वक़्त एक ज्वालामुखी पर बैठा हुआ है और वहाँ लोकतंत्र खत्म हो चुका है।
इसके बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने एक क़ानून में संशोधन कर राज्यपाल जगदीप धनखड़ को राज्य के निजी विश्वविद्यालयों में ‘अतिथि’ या ‘विजिटर’ के तौर पर पद से हटा दिया था। संवैधानिक पद पर बैठे राज्यपाल से राज्य सरकारों के सीधे टकराव को केंद्र सरकार को चुनौती देने के रूप में देखा गया। इसी क्रम में दिल्ली की अरविन्द केजरीवाल सरकार के उप राज्यपाल से विवाद खासे चर्चा में रहे।
आम आदमी पार्टी बनाम राजभवन
दिल्ली की अरविन्द केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल के बीच विवाद की शुरुआत वर्ष 2015 में हुई। दिल्ली के पूर्व उप राज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के बीच दिल्ली में एंटी-करप्शन ब्यूरो के गठन, सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति और तबादले जैसे मुद्दों पर लंबे समय तक विवाद चला। यह विवाद इतना गहरा गया था कि दोनों ही पक्षों को दिल्ली उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय जाना पड़ा।
इसके बाद दिल्ली के अगले उपराज्यपाल अनिल बैजल के साथ भी केजरीवाल सरकार की तना-तनी बनी रही। दरअसल, उपराज्यपाल अपनी संवैधानिक शक्तियों के अन्तर्गत फैसले ले रहे थे, जिसे केजरीवाल सरकार ने हस्तक्षेप बताया। ऐसे ही उपराज्यपाल अनिल बैजल ने केजरीवाल सरकार का एक फैसला पलट दिया था।
जिसमें कोरोनाकाल के दौरान केजरीवाल सरकार ने कहा था कि दिल्ली सरकार के सरकारी हॉस्पिटल और प्राइवेट अस्पतालों में सिर्फ दिल्ली के लोगों का इलाज किया जाएगा। उपराज्यपाल अनिल बैजल ने इस फैसले को पलट कर आदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति दिल्ली के अस्पतालों में इलाज करा सकता है।
दिल्ली में विधायिका का कार्यपालिका से टकराव का यह सिलसिला बैजल से हो कर नए उपराज्यपाल विनय कुमार सक्सेना तक पहुँच चुका है।
इस समय कई मुद्दों को लेकर केजरीवाल सरकार उपराज्यपाल सक्सेना से नाराज़ चल रही है। पहले उपराज्यपाल द्वारा शराब घोटाले की जाँच का आदेश और फिर मुख़्यमंत्री केजरीवाल को सिंगापुर दौरे की मंजूरी ना देना, यह भी आम आदमी पार्टी के नाराज़गी के कारण रहे।
आम आदमी पार्टी और राजभवन के बीच का टकराव राजधानी दिल्ली तक ही सीमित नहीं रहा। पंजाब में भी सरकार बनने के बाद पिछले सात महीनों में पंजाब के राज्यपाल से कई मुद्दों पर विवाद देखने को मिला है। राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित ने पंजाब सरकार द्वारा प्रस्तावित विधानसभा के विशेष सत्र की मंजूरी यह कह कर वापस ली थी कि पंजाब सरकार ने इस सत्र का एजेंडा नहीं बताया है, जिसके बाद पंजाब के मुख़्यमंत्री भगवंत मान ने इस पर कड़ा विरोध दर्ज़ किया और राष्ट्रपति या राज्यपाल की अनुमति को संविधान में मात्र औपचारिकता बताया।
वहीं, वायुसेना दिवस के मौके पर चंडीगढ़ में आयोजित कार्यक्रम में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी शामिल हुई, लेकिन पंजाब के मुख़्यमंत्री भगवंत मान नदारद रहे। इसको लेकर राज्यपाल ने सवाल उठाया कि भगवंत मान इस कार्यक्रम में क्यों नहीं आए, जबकि राष्ट्रपति की मौजूदगी में उनका रहना संवैधानिक जिम्मेदारी थी।
इन सभी राज्यों की स्थिति का विश्लेषण कर कुछ सवाल जो सामने आते हैं; क्या राज्य सरकार अपना कार्य ठीक से नहीं कर पा रही हैं? क्या राज्यपाल अपनी भूमिका से अधिक सक्रिय हैं? संविधान द्वारा राज्यपाल को प्राप्त शक्तियाँ एवं कर्तव्य को देखते हुए इन प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश करते हैं।
राज्यपाल की शक्तियाँ एवं कार्य
संविधान के अनुसार राज्यपाल राज्य स्तर पर संवैधानिक प्रमुख होता है। राज्यपाल राज्य सरकार का कार्यकारी प्रमुख होता है राज्य के सभी कार्यकारी अधिकार उनके पास होते हैं, जिनका उपयोग वह प्रत्यक्षतः अथवा अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा कर सकता है। राज्य के कार्यपालिका संबंधी सभी कार्य राज्यपाल के नाम पर किए जाते हैं। वह राज्य सरकार का कामकाज सामान्य ढंग से चलाने तथा मंत्रियों में कार्य वितरण के लिए नियम बनाता है। अनुच्छेद 174 के अनुसार राज्यपाल को राज्य विधायिका का सत्र बुलाने सत्रावसान करने तथा विधानसभा भंग करने का अधिकार है।
संविधान में राज्यपाल के कुछ विशेष अधिकारों का भी वर्णन है, जिनका उपयोग विशेष परिस्थिति में करना पड़ता है। संविधान में राज्यपाल को अपने विवेक का उपयोग करने की छूट दी गई है। ऐसे विशिष्ट मामले में उसे मंत्रिमंडल के निर्णय के आधार पर काम नहीं करना पड़ता बल्कि उसे अपने व्यक्तिगत निर्णय के आधार पर काम करना पड़ता है।
मुख्य बात यह है कि कार्यपालिका प्रमुख होने के नाते राज्यपाल दोहरी भूमिका निभाता है। राज्य के प्रमुख के रूप में तथा केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में जो केंद्र तथा राज्य के बीच कड़ी का काम करता है।
केंद्र-राज्य संबंध का इतिहास
पिछले कुछ वर्षों में केंद्र राज्य संबधों में टकराव नज़र आया है। भारत में केंद्र राज्य संबधों के इतिहास पर नज़र डालें तो स्वतंत्रता पश्चात स्थिति इस प्रकार थी कि केंद्र में लम्बे समय तक एक ही दल का शासन था और राज्यों में भी इसी दल की सरकार सत्ताशीन रहती। राज्यों में अन्य दल अगर सरकार बनाते तो उन्हें किसी भी कारण से बर्खास्त कर दिया जाता। अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) के दुरुपयोग ने केंद्र राज्य संबंधों के टकराव में सबसे अहम भूमिका निभाई।
कांग्रेस ने अपने शासन काल के दौरान सत्ता में रहते हुए 91 गैर कांग्रेसी सरकारों को हटाने का काम कर चुकी है। 1951 में पहली बार जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री रहते पंजाब की सरकार को बर्खास्त किया गया था और नेहरू के काल में केरल में ईएमएस नंबूदरीपाद द्वारा बनाई गई पहली वामपंथी सरकार को भी 1959 में बर्खास्त कर दिया गया।
अनुच्छेद 356 पर सरकारिया आयोग की रिपोर्ट में बताया गया 1967 तक 12 बार इसे लागू किया गया था 1967 से 1985 के बीच में 62 अवसरों पर इसका सहारा लिया गया था।यह 1977 और फिर 1980 में चरम पर पहुँच गया, जब एक ही समय में 9 राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
राज्य सरकार बनाम केंद्रीय एजेंसियाँ
वर्तमान में केंद्र की मोदी सरकार पर जाँच एजेंसियों के द्वारा राज्य सरकारों पर दबाव डालने का आरोप लगता रहता है। इन विवादों में बार-बार, विशेषतः कुछ ही राज्य सरकारें नज़र आती हैं और संयोगवश इन्हीं राज्यों के मुखिया देश में मुख्य विपक्ष के तौर पर उभरने का प्रयास कर रहे हैं। मुख्य तथ्य यह है कि जिन मौकों पर यह आरोप लगे हैं, उनमें सभी मामले वित्तीय अनिमितताओं से जुड़े हुए थे।
सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय एवं आयकर विभाग किसी भी सरकार की कठपुतलियाँ नहीं हो सकतीं। इनके अपने कर्तव्य, अधिकार और अपनी शक्तियाँ हैं। 75 वर्षों से इन संस्थाओं की स्वतंत्र कार्यशैली में परिवर्तन नहीं आया है। परिवर्तन आया है तो सत्ता और पक्ष-विपक्ष में। जो एक लोकतंत्र का ही हिस्सा है। विपक्षी दलों को यह समझना होगा कि ‘राजनैतिक विद्वेष की भावना’ का विक्टिम कार्ड भ्रष्टाचार से बचने के लिए हथियार नहीं हो सकता।
केंद्र और राज्य से भी ऊपर है भारत का संविधान और भारत के संविधान के अनुसार ही केंद्र और राज्य में शक्तियों का बँटवारा हुआ है। इसी संविधान में निहित है भारत के लोकतंत्र का आधार, जिसमें हर सरकार, राजनीतिक दल और सरकार के प्रमुख की आस्था ही लोकतांत्रिक नियमों और परंपराओं को सुनिश्चित कर सकेगी।