जाति फिर चर्चा में है। राहुल गाँधी ने बिहार के मुख्यमंत्री से दिल्ली में हुई मीटिंग के बाद जाति जनगणना को अपने तरकश में शामिल किया है। ये निराशा का विषय है कि राहुल गाँधी के तरकश में पड़े पुरानी पेंशन योजना के तीर को नीतीश कुमार ने अपने तरकश में नहीं डाला। ऐसा लगता है कि कलियुगी लक्ष्मण, कलयुगी परशुराम को आस्वश्त नहीं कर पाए। खैर, जाति जनगणना की मांग राहुल गाँधी ने चुनावी मंचों से उठानी शुरू कर दी है तो हमारे लिए भी जरूरी हो जाता है कि इस बारे में कुछ चर्चा की जाये और समझने का प्रयास किया जाये कि आखिर जाति जनगणना के समुद्र मंथन से क्या-क्या विष, अमृत जैसे पदार्थ निकल सकते हैं। लोगों में इस बात को लेकर असीम उत्सुकता है कि आखिर जाति जनगणना के माध्यम से हमें क्या नयी सूचना मिल सकती है, और यदि जाति जनगणना के आधार पर आरक्षण का बंटवारा होता है तो किस जाति का कितना हिस्सा होगा।
अभी तक सभी जातियों को तीन वर्गों में बाँट कर आरक्षण दिया जाता रहा है। ये तीन वर्ग इस प्रकार हैं – सामान्य जातियां जो जाति आधारित आरक्षण के दायरे से बाहर हैं लेकिन जिनको आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के अंतर्गत आरक्षण का लाभ दिया गया है। दूसरे वर्ग में पिछड़ी कही जाने वाली जातियां आती हैं, जिनको जाति के आधार पर लगभग २७ प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है। अंत में अनुसूचित जातियां और जनजातियां आती हैं जिनको संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत लगभग २३ प्रतिशत आरक्षण मिला हुआ है। यह भी जान लेना आवश्यक हैं कि भारत में पिछड़े “वर्ग”के लिए आरक्षण का कानूनी प्रावधान है, पिछड़ी “जाति” के लिए नहीं, तो “वर्ग” और “जाति”के बीच में अंतर को लेकर स्पष्ट बने रहिये।
ब्रिटिश कालीन जनगणना के आंकड़े जातियों के बारे में क्या बताते हैं ?
नयी जाति जनगणना से जातियों की संख्या के बारे में क्या नयी जानकारी मिल सकती है, ये तो जाति जनगणना होने के बाद ही पता चलेगा लेकिन इसके पहले जब जाति जनगणना होती थी, तब जातियों की संख्या के बारे में जान कर एक अनुमान बनाया जा सकता है कि अखिल भारतीय स्तर पर जाति जनगणना से क्या सामने आ सकता है। अभी फिलहाल बिहार राज्य ने जाति जनगणना करवाने का बीड़ा उठाया है और बिहार के मुख्यमंत्री और उनके सहयोगी दलों को इससे राजनीतिक लाभ मिलने की उम्मीद है। इस लेख के अंत में हम बिहार में चल रही जाति जनगणना का विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे।
देश में विभिन्न जातियों की संख्या जानने के लिए हम १९३१ की जनगणना के आंकड़ों में जातिवार संख्या के आंकड़ों का एक बार सर्वेक्षण करते हैं और समझते हैं कि आखिर १९३१ में अखिल भारतीय स्तर पर कौन सी जातियां संख्या की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण थीं। इसके लिए हमने सेन्सस ऑफ़ इंडिया- १९३१ के भाग १ की रिपोर्ट में दिए आंकड़ों का उपयोग किया है। इस रिपोर्ट में कुछ पृष्ठ गायब हैं, इसलिए जिन राज्यों की संख्या मिल सकी है उन्ही के आधार पर अनुमान लगाने का प्रयास किया गया है। यह याद रखने की बात है कि रिपोर्ट में जातिवार संख्या ब्रिटिश भारत में राज्यों के अनुसार है। भारत की आजादी के बाद राज्यों का पुनर्गठन हुआ इसलिए राज्य स्तर पर कोई अनुमान लगाना हमने उचित नहीं समझा है। चलिए आंकड़े देखते हैं।
१९३१ की जनगणना के अनुसार अजमेर-मारवाड़ राज्य में गुजर और जाट के बाद सबसे बड़ी संख्या ब्राह्मणों की थी। असम में नवशूद्र जाति की संख्या के बाद ब्राह्मणों की संख्या सबसे अधिक थी और इसके बाद संख्या की दृष्टि से कायस्थों का नंबर आता था। बंगाल में कैवर्त जाति आबादी की दृष्टि से सबसे बड़ी हिन्दू जाति थी। कैवर्त, नवशूद्र, राजबंशियों और कायस्थों के बाद ब्राह्मणों की संख्या थी। इस प्रकार संख्या की दृष्टि से ब्राह्मण बंगाल की पांचवीं सबसे बड़ी हिन्दू जाति थी। बिहार और उड़ीसा में जिनकी जनगणना के आंकड़े १९३१ की जनगणना रिपोर्ट में एकसाथ दिए हुए हैं, ग्वाला या यादव सबसे बड़े जाति वर्ग थे जिसके बाद संख्या की दृष्टि से ब्राह्मणों का स्थान था। इस प्रदेश में कुर्मी और राजपूत जाति के लोगों की संख्या क्रमशः ग्वाला और ब्राह्मणों के बाद सबसे अधिक थी। बिहार और उड़ीसा प्रदेश में चमार और दुसाध जातियां भी महत्वपूर्ण संख्या में उपस्थित थीं। बॉम्बे राज्य में मराठा, जिनमे कुनबी भी शामिल थे, संख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा जाति वर्ग था और किसी भी जाति की संख्या इनके २५ प्रतिशत के बराबर भी नहीं थी। मराठा के बाद ब्राह्मण और महार जाति संख्या की दृष्टि से बॉम्बे राज्य में सबसे बड़ी जातियां थीं। सेंट्रल प्रोविंस और बेरार राज्य में कुनबी और तेली सबसे बड़ी जातियां थी। इस राज्य में अहीर जाति की संख्या हालाँकि १० लाख से कम थी लेकिन तीसरी सबसे बड़ी जाति अहीर ही थी। बाकि जातियां संख्या की दृष्टि से बनिस्बत छोटी थीं। कूर्ग प्रान्त में कोडगा जाति संख्या की दृष्टि से एक तरह से एकाधिकारी अवस्था में थी। मद्रास प्रान्त, जिसमें कोचीन और त्रावणकोर भी शामिल थे, में ब्राह्मण सबसे बड़े जाति वर्ग थे। बाकी जातियों की संख्या ब्राह्मणों के आधे के आसपास थी। पंजाब जिसमें दिल्ली भी शामिल था, ब्राह्मण और चमार क्रमशः दूसरे और तीसरे सबसे बड़े जाति वर्ग थे। मध्य भारत एजेंसी जिसमें ग्वालियर भी शामिल था, चमार जाति संख्या की दृष्टि से सबसे बड़ी जाति थी जिसके बाद ब्राह्मणों और राजपूतों का नंबर आता था। हैदराबाद राज्य में मादिगा (सेन्सस रिपोर्ट में इनको उत्तर भारत में चमार के समतुल्य रखा गया था) और महार सबसे बड़ी जातियां थीं, जिनके बाद तेलगा जाति की संख्या थी। जम्मू-कश्मीर राज्य में संख्या की दृष्टि से ब्राह्मण और राजपूत सबसे बड़ी हिन्दू जातियां थीं। मैसूर राज्य में वोक्कालिगा जाति के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा थी, जिसके बाद बेडा और ब्राह्मणों की संख्या सबसे अधिक थी। हालाँकि वोक्कालिगा मैसूर में संख्या की दृष्टि से एकाधिकारी अवस्था में थे। राजपूताना एजेंसी में ब्राह्मणों की संख्या सबसे ज्यादा थी और इनके बाद चमार जाति के लोगों की संख्या थी। इन दोनों जातियों के बाद राजपूतों की संख्या थी। अहीर जाति भी संख्या की दृष्टि से राजपूताना एजेंसी में महत्वपूर्ण जाति थी।
ये रहा १९३१ की जनगणना के आधार पर जातियों के संख्यात्मक वितरण का एक छोटा सा विश्लेषण। जो बात इन आंकड़ों से निकल कर आती है वो यह है कि जाति संख्या की दृष्टि से अखिल भारतीय स्तर पर ब्राह्मण सबसे बड़े जाति वर्ग थे और इस सन्दर्भ में प्रभावशील थे कि पूरे भारत में ये जाति पायी जाती थी और खुद को ब्राह्मण के नाम से पहचानती थी। ब्राह्मणों के बाद उत्तर भारत में सबसे बड़ी संख्या चमार जाति की थी और इनके बाद ग्वाल, अहीर जो आज यादव जाति में आते हैं और राजपूत महत्वपूर्ण संख्या में उपस्थित थे। इसी तरह पश्चिम और मध्य भारत में कुनबी (मराठा) और महार जाति संख्या की दृष्टि से प्रभावशाली जातियां थीं। इसी प्रकार दक्षिण भारत खास कर तेलंगाना में मादिगा जाति संख्या की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। मादिगा जाति भी उत्तर भारत कि चमार जाति के समतुल्य ही थी लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि चमार जाति से समतुल्य होने के बाद भी मादिगा खुद को मादिगा कहते थे और राजनीतिक दृष्टि से किसी जाति का दूसरी जाति के साथ समतुल्यता महसूस करना महत्वपूर्ण है। इस तथ्य का महत्व अहीर और ग्वाला कही जाने वाली जातियों का सन्दर्भ लेने पर स्पष्ट होता है क्योकि ये दोनों जातियां अब यादव जाति वर्ग के अंतर्गत आती हैं और इस प्रकार एक दूसरे के साथ समानता महसूस करने के कारण उत्तर और पूर्वी भारत की जाति राजनीति में ज्यादा प्रभावी स्थान रखती हैं।
जाति जनगणना को लेकर विरोधाभास
अब अगर जातियों के संख्या के आधार पर आरक्षण के तर्क को स्वीकार किया जाये, जैसा कि कांग्रेस पार्टी और बिहार के सत्तासीन गठबंधन की मांग है, तो सबसे ज्यादा आरक्षण ब्राह्मणों और उसके बाद ‘चमार’ और यादव जाति को मिलना चाहिए। ब्राह्मणों को छोड़कर बाकी दोनों जातियों को आरक्षण व्यवस्था का लाभ मिल रहा है। चमार अनुसूचित जाति है और अनुसूचित जातियों को संवैधानिक आरक्षण का लाभ मिल रहा है और यादव जाति को पिछड़ा वर्ग के अंतर्गत आरक्षण मिल रहा है। सामाजिक न्याय की दृष्टि से निश्चित रूप से अनुसूचित और पिछड़ी जाति के तौर पर पहचानी गयी इन जात्तियों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए लेकिन सवाल ये उठता है कि प्रभावी जातियां होने के कारण अगर आरक्षण के बड़े हिस्से पर पर ये जातियां दावा कर लेंगी तो उन जातियों का क्या होगा जो संख्या की दृष्टि से कहीं नहीं टिकतीं। सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से तो उस पिछड़ी या अनुसूचित जाति को सबसे अधिक आरक्षण मिलना चाहिए जिसकी संख्या सबसे कम है।
इस सन्दर्भ में बिहार सरकार द्वारा जातियों की जो कोड लिस्ट जारी की गयी है उसमें ऐसी जातियों को जो संख्या की दृष्टि से कहीं नहीं टिकतीं “अन्य” का कोड दिया गया है। बिहार सरकार से ये प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि जातियों के कूटशाब्दिक गुलदस्ते में जो बिहार के साहब लोगों ने मेहनत करके बनाया है “अन्य” का क्या मतलब है? क्या सरकार अन्य में गिनी जा रही जातियों की पहचान को अन्य बना कर समाप्त करने का प्रयास नहीं कर रही है? इन अन्य कही जाने वाली जातियों को आरक्षण व्यवस्था में कहाँ रखा जायेगा? ये अनुसूचित जातियों में गिरेंगी या अन्य पिछड़ा वर्ग में? चलिए आरक्षण न भी मिले, लेकिन अनेकता में एकता का दावा ठोंकने वाले धर्म निरपेक्ष और जाति सापेक्ष गठबंधन को ये तो बताना ही चाहिए कि अन्य में गिनी जा रही जातियों की पहचान समाप्त कर के किस प्रकार की विविधता को बढ़ाया जा रहा है? जिनको लगता है कि पहचान समाप्त करने का दावा बेबुनिआद है उनको अहीर और ग्वाल कही जाने वाली जातियों को, जो अब यादव में समाहित हो चुकी हैं, देखना चाहिए। वास्तव में अन्य का सूची में होना ही इस बात का प्रमाण है कि मुख्यमंत्री कि जिद को बिहार सरकार में बैठे बाबू येन केन प्रकारेण पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं और बिहार सरकार के पास जातियों की पूरी सूची कभी थी ही नहीं। वो जातियां, जो अन्य में गिनी जाएँगी, उन्ही से असली गंगा जमुनी तहजीब वाली एक नयी जाति निकलेगी जिसका नामकरण नितीश कुमार, तेजस्वी परसाद और भिन्न भिन्न पोलित ब्यूरो वाली पार्टियों के नेता जाति जनगणना होने के बाद करेंगे।
अब जबकि राज्य के पास ही जातियों की कोई लिस्ट नहीं है तो २०११ में हुयी राष्ट्रीय जनगणना में किस लिस्ट के आधार पर गणना की गयी होगी ये महत्वपूर्ण सवाल खड़ा होता है। इसका एक संभावित जवाब ये दिखाई देता है कि २०११ कि जनगणना में लोगों से ही उनकी जाति पूछ ली गयी होगी। अब लोगों से जाति पूछने से जुड़े प्रश्न पर आते हैं। हमें ये समझना होगा कि जाति के दो परस्पर विरोधी उपयोग हैं। जहाँ सामाजिक तौर पर लोग खुद को उच्च जातीय बताना चाहते हैं वहीँ विधिक तौर पर लोगों का हित खुद को आरक्षित बनाये रखने में है। कई जातियां जो खुद को राजपूत स्वीकार करती हैं, पिछड़े वर्ग के अंतर्गत आती हैं, और इनको आरक्षण का लाभ भी मिलता रहा है। यादवों और कुर्मियों ने ब्रिटिश काल में खुद को क्षत्रिय स्वीकार करवाने के लिए मुकदमे लड़े। दूसरी बात ये है कि जाट जैसी जाति को हिन्दू समझा जाये, मुस्लिम समझा जाये या सिख समझा जाये? इस परिस्थिति में अगर आप जाति के साथ धार्मिक गणना नहीं कर रहे हैं तो हमेशा गलत संख्या पर पहुंचेंगे। राज्य, जो छोटी इकाई है और जिसको कम जातियों को गिनना है, वो जब कोई लिस्ट नहीं दे पा रहा है तो केंद्र के स्तर पर किस स्तर की छीछालेदर फैली होगी, ये भगवान् ही जनता है। खैर राहुल गाँधी का काम है मांग करना और केंद्र में बैठी सरकार की जिम्मेदारी है कि वो राहुल गाँधी की मांग का माकूल जवाब दे।
अब जाति जनगणना से जुड़े दूसरे शिगूफे पर आते हैं। ये मान्यता है कि पिछड़ी जातियों की संख्या ज्यादा है और उनकी संख्या के अनुपात में उनको आरक्षण नहीं मिल रहा इसलिए आरक्षण की तय सीमा बढ़ाई जाये। वैसे तो ये काम न्यायालय के माध्यम से ही हो सकता है लेकिन फिर भी केंद्र और राज्य की सरकारों की जिम्मेदारी इस मान्यता को स्थापित या नकारने के लिए जनगणना कराने की तो है ही। लेकिन जनगणना पर गए बिना भी इस तर्क की पड़ताल तो की ही जा सकती है कि पिछड़ी जातियों को केवल २७ प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है जो उनके आबादी के अनुपात से कम है। आपको पता होगा कि किसी ज़माने में धर्म निरपेक्ष सरकारों ने पिछड़ी जाति में क्रीमी लेयर के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। अब पिछड़ी जाति में क्रीमी लेयर का सिद्धांत लाने वाले, जिसमें राहुल गाँधी का दल अग्रणी भूमिका में था, ये नहीं बता रहे हैं कि आज पिछड़ी जातियों का क्रीमी लेयर में आने वाला वर्ग गैर आरक्षित ५० प्रतिशत सरकारी मेवा में सामान्य जाति के सदस्यों के साथ हिस्सा पा रहा है। अगर सामाजिक न्याय के पैरोकार नेताओं का ये मानना है कि क्रीमी लेयर वाले पिछड़ी जाति के सदस्यों के साथ अन्याय हुआ है तो उनको ये जवाब देना चाहिए कि वो क्रीमी लेयर का सिद्धांत लाये ही क्यों। अगर क्रीमी लेयर का सिद्धांत उचित कारणों से लाया गया तो पिछड़े वर्ग को मिलने वाली सीटें पहले ही २७ प्रतिशत से ज्यादा हो चुकी हैं और हिंदी भाषी राज्यों की किसी भी सरकारी नौकरी के परिणाम देखकर कोई भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि पिछड़े वर्ग को आरक्षण के अतिरिक्त सामान्य सेटों पर भी नियुक्तियां मिल रही है। हाँ संख्या को लेकर बहस की जा सकती है कि पिछड़े वर्ग को ४० प्रतिशत सीट मिल रही है या पचास प्रतिशत। और अंत में अगर तर्क ये है कि क्रीमी लेयर में आने वाले पिछड़े जाति के लोग सामान्य जातियों से प्रतियोगिता नहीं कर पा रहे तब तो ये सवाल उठना चाहिए कि क्या जाति के आधार पर दिया जा रहा आरक्षण उचित भी है। क्या यह प्रतियोगिता कर पाने वाले छात्रों को आगे बढ़ा पा रहा है। अगर जाति आधारित आरक्षण ऐसा नहीं कर पाया है तो क्या हमें किसी और आधार पर आरक्षण की तरफ नहीं चलना चाहिए।
अब नेतागिरी की भाषा के एक और छद्म पर आते हैं। ये कहा जा रहा है कि जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी लेकिन जाति की संख्या के आधार पर आरक्षण को जब सहमति देने की बात आती है तो नीतीश कुमार से लेकर अखिलेश यादव और राहुल गाँधी तक जाति को छोड़ कर पिछड़े वर्ग का गाना गाने लगते हैं। ये कोई स्पष्ट नहीं कर रहा कि जब बिहार में जाति गणना पूरी हो जाएगी तो उसके बाद आरक्षण जाति के आधार पर मिलेगा या पिछड़े वर्ग के तौर पर पहचानी गयी जातियों के समूह के आधार पर। आखिर जब पिछड़ी जाति के आरक्षण की लड़ाई ही थी, तो पिछड़ी जातियां कौन कौन सी हैं, इसकी लिस्ट तो सरकार के पास होगी ही तो इसके लिए जातियों को अलग अलग गिनने की क्या जरूरत है? बिहार की लिस्ट में मुस्लिम जातियों का भी नाम है जो आने वाले समय में अलग विवाद का विषय बनेगा। हो सकता है कि मुस्लिम समुदाय को पिछड़ी जाति का सर्टिफिकेट बाँट कर पिछड़ों की संख्या बढ़ा दी जाये और उस आधार पर आरक्षण की मांग की जाये। आखिर यही तो नेतागिरी है।
निगाह में मुस्लिम पिछड़े
बात ऐसी है कि बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश और बाकी राज्यों के जाति की राजनीति करने वाले नेताजी लोग ये तो जानते हैं कि वो जिस जाति से आते हैं उसकी संख्या बाकी जातियों की तुलना में ज्यादा है लेकिन ये भी जानते हैं कि उनकी जाति की संख्या इतनी ज्यादा नहीं है कि चुनाव जिता सके इसलिए पिछड़ा का राग अलापना जरूरी है। इससे राजनीतिक हित के अलावा जातीय हित भी संतुष्ट होते हैं, क्योकि पिछले तीस साल का अनुभव बताता है कि पिछड़ा के भीतर जो प्रभावी जातियां हैं, उन्होंने ही पिछड़ा को मिलने वाली आरक्षण की मलाई अकेले खायी है और नगण्य संख्या वाली जातियों के हिस्से में सप्रेटा दूध ही आया है। बिहार और उत्तर प्रदेश की जाति राजनीति में उभरे नए दल पिछड़ा वर्ग के अंदर महंत बनी जातियों के विरोध में ही खड़े हुए हैं। आज इनमें से अधिकांश दल उस पार्टी के साथ खड़े होते हैं जहाँ इनको सबसे ज्यादा फायदा दिखता है। ये कांशीराम फॉर्मूले वाली राजनीति का ही अगला चरण है, जहाँ ये नयी उभरी जातीय पार्टियां १९९० के दशक में स्थापित हुए जातीय दलों के साथ वही छुपन छुपाई का खेल खेल रही हैं जो इन दलों ने १९९० में राष्ट्रीय दलों के साथ खेला था।
अब १९९० के दशक में जाति राजनीति में आये दल आरक्षण की सीमा बढ़ाने के नाम पर अपनी कुंद हो रही राजनीति को धार लगाने में लगे हैं लेकिन सवाल ये है कि आरक्षण की सीमा बढ़ भी गयी तो इन मार्जिनल जातियों को जब पिछले तीस साल में उनका हिस्सा नहीं मिला तो बढे हुए आरक्षण में क्यों मिलेगा? या पिछड़ी जातियों के वर्ग में शामिल बड़ी जातियां, जैसे यादव और कुर्मी, उनको हिस्सा क्यों लेने देंगे, क्योकि पिछड़े वर्ग के अंदर तो यादव और कुर्मी वही स्वतंत्र प्रतियोगिता चाहते हैं जिसका विरोध करके उन्होंने आरक्षण लिया था। सवाल ये है कि क्या मार्जिनल जातियां स्वतंत्र प्रतियोगिता चाहती हैं? अगर ऐसा है तो नीतीश कुमार को राज्य स्तर पर आरक्षण में आरक्षण क्यों देना पड़ा? संख्या में कम हिन्दू जातियों के इसी सयानेपन को काटने के लिए पिछड़े में मुस्लिम को जोड़ना नए राजनीतिक रस्ते खोल देता है। बड़ी जातियों की राजनीति करने वाले इन खुर्राट नेताओं को पता है कि हिन्दू मार्जिनल जातियां ज्यादा की मांग करेंगी जबकि मुस्लिम वर्ग पिछड़ा के नाम पर जो दिया जायेगा, चुपचाप ले लेगा। दूसरी तरफ जितना वोट ये मार्जिनल हिन्दू जातियां ले जाएँगी उतना या उतने से ज्यादा मुस्लिम पिछड़े वर्ग में शामिल होने पर ले आएंगे और इस प्रकार राजनीति बनी रहेगी।
ये १९९० की मंडल राजनीति का अगला चरण है और इसमें अब केवल हिन्दू जातियां शामिल नहीं हैं बल्कि मुस्लिम जातियों का भी इसमें शामिल होना तय है।
नोट: स्वतंत्रता से पहले जनगणना में जाति में ‘चमार’ शब्द ही लिखा जाता था। ‘द पैम्फलेट’ इस शब्द का ज़िक्र कर किसी की जाति के आधार पर उत्पीड़न की मंशा नहीं रखा है।