विभिन्न कारणों से अर्थशास्त्री आर्थिक विकास में संस्कृति और राष्ट्रवाद की भूमिका को हमेशा से नकारते रहे हैं और भारत के मामले में यह बात विशेष रूप से सत्य है। उदारीकरण के बाद और पहले के वर्षों में सांस्कृतिक उत्पादों को धर्म निरपेक्ष बना कर कुलीनों के प्रभावी वर्ग द्वारा दोहन तो किया गया लेकिन जमीन पर उन तत्वों को पोषित करने से परहेज़ किया गया जिनसे इन सांस्कृतिक उत्पादों के विकास में मदद मिल सकती थी।
उदाहरण के लिए, भरतनाट्यम को तो कुलीनों ने अपनाया लेकिन भरतनाट्यम के पीछे की सांस्कृतिक विरासत में जनसामान्य की मान्यताओं को पोषित करने के लिए कुछ विशेष किया गया हो ऐसा कभी नहीं हुआ। कुलीन तबका दीपावली और दशहरा तो धूमधाम से मनाता रहा है लेकिन राम मंदिर में उसका विश्वास कभी नहीं रहा है। राम मंदिर की वास्तविकता को नकारने वाले लोग दीपावली और दशहरा जैसे सांस्कृतिक पर्वों को कभी अकबर और औरंगजेब से जोड़ते रहे तो कभी इन पर्वों को पर्यावरणीय प्रदूषण फ़ैलाने के लिए जिम्मेदार बताया जाता रहा। भारत के जनसामान्य के लिए ऐसे प्रकल्प किये ही नहीं गए कि वो भारत कि सांस्कृतिक विरासत को जीवित स्वरुप में देख सके और उस पर गर्व कर सके।
कांग्रेस के धर्म निरपेक्ष विकास के दृष्टिकोण में सांस्कृतिक ऐक्य को रेखांकित करने का काम केवल संवेदनशील समयों में किया गया जैसे 1980 और 1990 के दशक में जब देश विभिन्न अलगाववादी आंदोलनों से जूझ रहा था तब दूरदर्शन पर सिख गुरुवाणी, रामायण और महाभारत जैसे सीरियलों का प्रदर्शन और ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ जैसे गीतों का उपयोग सांस्कृतिक ऐक्य को रेखांकित करने के लिए भले किया गया हो लेकिन ऐसी कोई योजना नहीं शुरू की गई जिससे उत्तर प्रदेश या तमिलनाडु में बैठा सामान्य व्यक्ति ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ जैसे गीत की मूल भावना को अपनी आँखों से देख पाए।
सांस्कृतिक उत्पादों को जनसामान्य से अलग करके एक छोटे कुलीन वर्ग द्वारा दोहन की वस्तु बना कर संस्कृति को अजायबघर में सजाने की वस्तु बना देने की बौद्धिक परंपरा भारत में नीति निर्माण के उपनिवेशवादी दृष्टिकोण को रेखांकित करती है। संस्कृति को अजायबघर में रखना केवल संस्कृति को स्थैतिक ही नहीं मानता है बल्कि संस्कृति में आये नवाचार जो संस्कृति के गतिज दृष्टिकोण को रेखांकित करता है को नकारता भी है।
यहाँ इस बात को रेखांकित करना आवश्यक है कि ऐसा नहीं है कि संस्कृति के स्थैतिक पक्ष को उजागर करना जरूरी नहीं है बल्कि संस्कृति के स्थैतिक और गतिमान पक्ष के बीच साम्य बनाये रखना आवश्यक है। संस्कृति के गतिमान पक्ष को रेखांकित करने के लिए अजायबघरों के इतर ऐसी योजनाओं की आवश्यकता है जिनका उद्देश्य न केवल जमीन पर बिखरे सांस्कृतिक तत्वों को उत्पादों में बदलना हो बल्कि जनता के लिए ऐसे सांस्कृतिक उत्पादों का उपभोग भी सुगम बनाना हो। कहने का तात्पर्य ये है कि अजायबघरों के बाहर बिखरी सांस्कृतिक विरासत को सांस्कृतिक उत्पाद में परिवर्तित करना और उस उत्पाद को जनता की क्रयशक्ति की पहुँच के अंदर लाना सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।
उक्त सन्दर्भ में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर चुनाव जीत कर आयी सरकार से उम्मीद रही है कि वो राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजधानियों में बसी साहित्य और संस्कृति अकादमी के अजायबघरों में फंसी सांस्कृतिक विरासत के इतर जनता के लिए भारत की जीवित संस्कृति को देखने और जानने के अवसर बनाने पर काम करेगी। इस राष्ट्रवादी सरकार ने ऐसे प्रकल्पों पर पिछली सरकारों के अजायबघर मॉडल के इतर क्या और कितना काम किया है, बजट में किया गया आवंटन इसको जानने का अच्छा पैमाना उपलब्ध कराता है। बजट सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को लेकर सरकार की गंभीरता को जानने का न केवल वस्तुनिष्ठ पैमाना है बल्कि बजट में सरकार द्वारा किया गया आवंटन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के भविष्य को भी रेखांकित करता है।
इस सन्दर्भ में अगर कांग्रेस नीत यूपीए सरकार के बजटों का एक सरसरी अवलोकन किया जाये तो ये तुरंत मालूम पड़ जाता है कि संस्कृति मंत्रालय के अधीन अधिकांश आवंटन वस्तुतः सांस्कृतिक अजायबघरों के लिए किये जाते रहे और संस्कृति के गतिमान पक्षों को नकारा गया। यूपीए सरकार के अंतर्गत 2013-14 के बजट का अवलोकन करने पर ये दिखता है कि संस्कृति मंत्रालय को 2000 करोड़ रुपये के करीब बजट आवंटन किया गया जिसमें से 457 करोड़ रुपये का आवंटन संस्कृति को अजायबघर में सहेजनी वाली विभिन्न संस्थाओं जैसे साहित्य कला अकादमी, ललित कला अकादमी इत्यादि इत्यादि को सांस्कृतिक प्रचार प्रसार के लिए दिए गए थे। पुरातात्विक कार्य करने वाली संस्थाओं और अजायबघरों को 1109 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था और पुस्तकालयों के संवर्धन के लिए 174 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था।
कांग्रेस नीत सरकार के इतर भाजपा सरकार ने इस वर्ष (2023-24) में संस्कृति मंत्रालय को 3399 करोड़ रुपये का बजट आवंटन किया है। इसमें विभिन्न अकादमी, पुस्तकालय, और अजायबघरों जैसी स्वायत्त संस्थाओं के लिए 996 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ, भारतीय पुरातत्व विभाग को 1100 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ और 650 करोड़ रुपये का आवंटन नयी केंद्रीय योजनाओं और प्रकल्पों के लिए किया गया है। इन योजनाओं और प्रकल्पों में सबसे बड़ी खर्च की मद कला संस्कृति योजना है जो भाजपा सरकार का प्रकल्प है। इस योजना पर पिछले वर्षों में आवंटन लगातार बढ़ा है और नयी केंद्रीय योजनाएं सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के गतिमान पक्ष को दिशा देने के प्रकल्प के रूप में काम कर रही हैं।
इसके अतिरिक्त, संस्कृति मंत्रालय अपने पूर्व स्वरुप में केवल कुछ कुलीनों के भरण पोषण का केंद्र बना हुआ था। ये वो लोग थे जो संस्कृति के ठेकेदार थे और संस्कृति को अपनी सुविधा के अनुसार परिभाषित करते थे। वर्तमान सरकार ने संस्कृति मंत्रालय का पुनर्गठन करके संस्कृति को ठेकेदारी प्रथा से मुक्ति दिलाई है और अब संस्कृति खुली हवा में सांस ले पा रही है। कला संस्कृति विकास योजना जो इस सरकार का सांस्कृतिक प्रकल्प है पर पिछले वर्षों के बजट में बढ़ा खर्च और इस वर्ष के बजट में इस योजना के लिए बढ़ा आवंटन सांस्कृतिक उदारीकरण का संकेत है। इसके अतिरिक्त संस्कृति के नए आयामों की खोज के लिए पिछले बजट से ही किया गया आवंटन इस बात का संकेत है कि अजायबघरों के सीमित दृष्टिकोण के इतर संस्कृति के बहुआयामी गतिमान पहलुओं पर सरकार का ध्यान गया है।
संस्कृति को औपनिवेशिक पंजों से मुक्त करना सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का एक पक्ष है और इसका दूसरा पक्ष जनसामान्य का देश के सांस्कृतिक पहलुओं से साक्षात्कार करने के प्रकल्पों पर ध्यान देना है। इस सन्दर्भ में पर्यटन मंत्रालय के बजट आवंटन को देखना जरूरी है। 2013-14 के बजट में जो कि पिछली कांग्रेस नीत सरकार का आखिरी पूर्ण बजट था, पर्यटन मंत्रालय के लिए 1357 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था जिसमे पर्यटन अधोसंरचना के लिए मात्र 375 करोड़ रुपये आवंटित किये गए थे। इसके इतर पर्यटन सम्बन्धी सूचना और पब्लिसिटी के लिए 450 करोड़ रूपये से कुछ ज्यादा आवंटित किये गए थे।कांग्रेस नीत सरकार के आखिरी बजट के इतर इस वर्ष के बजट में वित्त मंत्रालय द्वारा पर्यटन मंत्रालय को 2400 करोड़ रुपये का बजट आवंटन किया गया है। इसमें ‘स्वदेश दर्शन’, जो पर्यटन सर्किट अधोसंरचना के एकीकृत विकास की नयी योजना है जिसमे 1400 करोड़ रुपये से अधिक का आवंटन किया गया है। ‘प्रसाद’ योजना, जो धार्मिक पर्यटन स्थलों के विकास से सम्बंधित है को 250 करोड़ रुपये आवंटित किये गए हैं। इससे पता चलता है कि भाजपा सरकार ने न केवल अजायबघर आधारित सांस्कृतिक विकास के मॉडल को ठेकेदारों से मुक्त करने का प्रयास किया है बल्कि संस्कृति के गतिमान पक्ष को रेखांकित करने वाले मॉडल पर भी तेजी से कार्य करना शुरू किया है।
विशिष्ट मंत्रालयों के आवंटन से इतर राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे और नए हवाई अड्डों का निर्माण नागरिकों के बीच सांस्कृतिक दूरियों को पाट रहा है और जनसामान्य के लिए सांस्कृतिक आदान प्रदान के नए अवसर खोल रहा है। कुल मिलाकर, सरकार ने सांस्कृतिक पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए नयी योजनाओं के माध्यम से नए अवसर बनाने प्रारम्भ किये हैं जिनका प्रभाव आने वाले वर्षों में दिखाई पड़ेगा। काशी विश्वनाथ और महाकाल जैसे परिसरों का विकास इस प्रक्रिया के ही उत्पाद हैं और सांस्कृतिक विऔपनिवेशीकरण का रास्ता ऐसे परिसरों के पुनरुत्थान से ही निकलता है। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार सही रास्ते पर है।