बहुआयामी व्यक्तित्व पेशे से डॉक्टर, शास्त्रों के ज्ञाता, भारत में सैन्य शिक्षा के पक्षकार और धर्मवीर नाम से विख्यात बीएस मुंजे यानी बालकृष्ण शिवराम मुंजे। आज देश के अधिकतर लोगों को उनका नाम याद न रहना यह बताता है कि सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक विमर्श जब किसी माफिया के नियंत्रण में चला जाता है तो उसके परिणाम क्या हो सकते हैं?
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में शिवराम मुंजे के घर बालकृष्ण मुंजे का जन्म हुआ था। बीएस मुंजे ने अपनी शिक्षा चिकित्सा शास्त्र में ली थी। अंग्रेजी, मराठी के अलावा वे संस्कृत भाषा के अच्छे जानकार थे। चित्रकला और राजनीति में भी विशेष रुचि रखते थे। डॉ. बीएस मुंजे बहुत पहले यह समझ गए थे कि अंग्रेजों से लड़ाई के लिए देश के युवाओं को मानसिक के साथ शारीरिक रूप से मजबूत और प्रशिक्षित होना आवश्यक है और यहीं से उनके एक स्वप्न ने जन्म लिया, जिसका रास्ता पूर्ण स्वराज की ओर जाता था।
क्या था स्वप्न?
स्वप्न बहुत सरल था, भारत की पूर्ण स्वतंत्रता। हाँ, इसे पाने का रास्ता कठिन था। मुंजे यह बात भली-भाँति जानते थे कि प्रशिक्षित और मजबूत अंग्रेजी सेना से देश के युवा सिर्फ नारों के दम पर नहीं जीत सकते इसलिए वे ऐसी व्यवस्था कायम करना चाहते थे जहाँ युवा युद्ध से जुड़े और सैन्य शिक्षा प्राप्त करें। यहाँ युवाओं में लड़कियाँ भी शामिल है, क्योंकि मुंजे लड़कियों को भी सैन्य शिक्षा देने के पक्षधर थे।
उनके इसी सपने के चलते वे खेल, व्यायाम और यहाँ तक की सैन्य अनुभव के लिए साउथ अफ्रीका के बोअर युद्ध में भी शामिल हुए थे। मुंजे का मानना था कि भारत, विशेष रूप से हिंदू भारत, को सैन्य उत्थान के लिए किसी मजबूत संस्था की आवश्यकता है। इसके जरिए अंग्रेजों द्वारा हिंदुओं के बीच बनाई जा रही लड़ाका और गैर-लड़ाका हिंदू की नीति से लड़ा जा सकता है।
अंग्रेजों की “फूट डालो राज करो” नीति के बारे में अब तो सब जानते हैं कि ये सिर्फ हिंदू-मुस्लिम के लिए नहीं बनाई गई थी। इस नीति से अंग्रेजी हुकूमत ने हिंदूओं के बीच भी विद्रोह का बीज बोया था परन्तु मुंजे यह बात शायद बहुत पहले समझते थे।
यही कारण था कि बीएस मुंजे को भान था कि अगर अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता चाहिए तो भारतीयों में एकता आवश्यक है परन्तु उतनी ही आवश्यकता थी, भारत की अपनी सैन्य ताकत की। यही कारण था कि एक डॉक्टर ने पहले राजनीति में प्रवेश किया और फिर सैन्य संस्था की स्थापना का सपना लेकर दुनिया में स्थापित संस्थाओं का दौरा किया ताकि हर बारीकी और विशेषता से देश में ऐसी संस्था का संचालन कर सकें।
सैन्य संस्था के लिए मुंजे की यात्राएँ
देश में सैन्य स्कूल की स्थापना के लिए वो इतने जुनूनी थे कि उन्होंने ब्रिटेन, जर्मनी और रूस में स्थिति सैनिक स्कूलों में प्रत्यक्ष भेंट देकर वहाँ की पद्धतियों और बारीकियों को सीखा था।
यह वो दौर था, जब लंदन में गोलमेज सम्मेलन चल रहा था। बीएस मुंजे भी द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का भाग बने थे, अपने इसी सपने के साथ। वर्ष 1931 में हुए गोलमेज में मुंजे अपने सैनिक संस्था के सपने के साथ ही गए थे। इस मौके पर ही उन्होंने यूरोप के कई सैनिक संस्थाओं के कार्यप्रणाली के बारे में जाना था। यहाँ तक की उन्होंने इटली में मुसोलिनी की संस्था को भी नजरअंदाज नहीं किया बल्कि वहाँ पहुँचकर मुसोलिनी से मुलाकात भी कि और सैन्य व्यवस्था की कार्यप्रणाली की भारतीय नजरिए से तुलना भी की।
बीएस मुंजे ने कहा था, “मैंने कहा था कि मैं सैन्य प्रशिक्षण में दिलचस्पी रखता हूँ और इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी के सैन्य स्कूलों का दौरा करता रहा हूँ और इसी उद्देश्य से इटली आया हूँ।”
उल्लेखनीय है कि वर्ष 1931 में हुए राउंड टेबल वार्ता की रक्षा सब-कमेटी में मुंजे बतौर सदस्य शामिल थे। मई, 1931 में सर फिलिप चेटवोड की अध्यक्षता में भारत मे सैन्य स्कूल की स्थापना के विवरण पर काम करने के लिए एक समिति का गठन किया गया था।
हालाँकि, भारत में एक सैनिक स्कूल हो यह मुंजे का सबसे बड़ा सपना था परन्तु इस समिति द्वारा पेश ढ़ाँचे के वे सबसे बड़े आलोचक थे। उन्होंने कहा, “इस प्रणाली के जरिए हिंदूओं में मार्शल और गैर-मार्शल वर्गों का जन्म किया जा रहा है। यह सरकार की “फूट डालो और राज करो” की नीति के अनुरूप है। इससे देश में सांप्रदायिकता का जहर फैल जाएगा। यह राष्ट्रीय सेना की अवधारणा की जड़ पर प्रहार करता है और भाड़े की सेना को मान्यता देता है जो सिर्फ विदेशी सरकार का ही साथ दे सकती है।”
मुंजे ने विदेशी सैनिक संस्था को नकार दिया था। उनका मानना था कि भारत में यहाँ के दर्शन के अनुरूप एक स्वतंत्र सैनिक स्कूल की स्थापना होनी चाहिए। वर्ष 1935 में मुंजे ने ‘द सेंट्रल हिंदू मिलटरी एजुकेशन सोसाइटी’ और वर्ष 1937 में भोंसला सैनिक स्कूल की स्थापना की, जो कि नासिक में स्थित है।
इन विद्यालयों में देश के हर भाषा और प्रांत के युवाओं को स्थान दिया गया। लाहौर, सिंध, दिल्ली, कराची, काठियवाड, त्रिपुरा और विजयनगरम जैसे क्षेत्रों से विद्यार्थियों ने यहाँ सैन्य प्रशिक्षण लेना आरम्भ किया था। संस्था के प्रभाव और कार्यप्रणाली को देखकर बॉम्बे के गवर्नर सर ब्रेबॉर्न और कर्नल वियर ने भी इसकी प्रशंसा की थी।
हालाँकि, प्रभावशाली कार्यप्रणाली और राष्ट्रवाद की भावना के बाद भी बीएस मुंजे और उनकी सैनिक संस्था को हमेशा फासीवाद के चश्मे से ही देखा गया है। यह विदित है कि मुसोलिनी से मिलने से पहले मुंजे यूरोप की अन्य सैनिक संस्थाओं में जा चुके थे और ये स्वप्न वो भारत से ही अपने साथ लेकर गए थे लेकिन उनकी संस्था को फिर भी इटली और मुसोलिनी और फासीवाद से प्रेरित बताया गया है।
किसी से मुलाकात उसके विचारों पर चलने का प्रमाण नहीं है ये बात महात्मा गाँधी से अधिक कोई नहीं समझा सकता, जो मुसोलिनी से मिलने वाले दूसरे भारतीय थे। फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां ने महात्मा गाँधी को मुसोलिनी से मिलने के लिए मना किया था, जिस पर गाँधी ने कहा था, “यूरोपीय लोगों को मुसोलिनी के सुधारों पर फैसले को कोई ठोस निष्पक्ष पेश होने तक स्थगित कर देना चाहिए।”
यहाँ तक की मुसोलिनी से मुलाकात के बाद महात्मा गाँधी ने यूरोप जाने वाले सभी भारतीयों से इटली जाने और उनके नेतृत्वकर्ता से मिलने की अपील की थी। सुभाष चंद्र बोस ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में इसका जिक्र करते हुए कहा, “फासीवादी लड़ाकों (बलिला) में गाँधी की उपस्थिति ने भले ही गैर-फासीवादी वर्ग में हलचल मचा दी है लेकिन भारत के नजरिए में महात्मा गाँधी ने इटली यात्रा द्वारा महान जनसेवा की है।”
महात्मा गाँधी देश में सैन्य स्कूल और सैनिक शिक्षा के औचित्य को लेकर संशय में जरूर थे लेकिन इसके निरीक्षण के लिए यूरोपीय सैन्य स्कूलों की यात्रा को फासीवादी नहीं कहा जा सकता।
बहरहाल, बीएस मुंजे ने कभी इस वर्ग को तूल नहीं दिया बल्कि अपने उद्देश्य के साथ डटे रहे। जब तक बाल गंगाधर तिलक कॉन्ग्रेस का हिस्सा थे तब तक पार्टी के साथ जुड़े रहे थे। अपने विचारों को स्पष्टता सबके सामने रखने वाले मुंजे ने असहयोग आंदोलन बीच में ही रोक देने के कारण महात्मा गाँधी की आलोचना भी की थी। गोलमेज सम्मेलन के दौरान मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा प्रस्तुत सत्ता के हंस्तातरण का विरोध किया और जिन्ना और गाँधी की जातीय प्रतिनिधित्व की माँग को गलत ठहराया था।
हिंदुओं को संगठित रखने के लिए उन्होंने अथक प्रयास किए थे। वे डॉ. हेडगेवार के राजनीतिक गुरु भी कहे जाते हैं जिन्होंने वर्ष 1925 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की थी। वे स्वयं भी मृत्युपरांत तक हिंदू महासभा के अध्यक्ष पद पर रहे थे।
देश को स्वतंत्रता की तरफ ले जाने के साथ ही जातिवाद की बेड़ियाँ काटने में जिस व्यक्ति का नाम सबसे अग्रिम सूची में रहना चाहिए था, उसे फासीवाद का ठप्पा लगाकर किताबों से ही निकाल दिया गया। दशकों से मीडिया और विशेषज्ञों द्वारा इसी प्रकार के शोध और विचारों को प्रसारित किया, जिससे भारत के लिए राष्ट्रीय सेना की नींव रखने वाले धर्मवीर मुंजे स्वतंत्रता सेनानियों की सूची से ही अदृश्य हो गए।