छोटे कस्बों से जब युवा बड़े नगरों में जाते हैं तो उनके लिए पूरा माहौल ही अलग होता है। आस पास युवतियाँ होती हैं, तुलनात्मक रूप से खुला माहौल होता है, लेकिन समस्या भी होती है। समस्या यह है कि पिछले अट्ठारह-बीस साल तो लड़कियों से कभी बात भी नहीं की है तो लड़कियाँ बिलकुल अज्ञात, एलियन टाइप जीव लगती हैं। इसका उल्टा लड़कियों के साथ भी शायद होता होगा।
अब अगर यह युवा कहीं पर गतिशील टाइप हुए तब तो सलाह देने वाले कई होते हैं, समस्या नॉन-प्रगतिशीलों को होती है। एक तो समझ में ही कुछ नहीं आता ऊपर से संस्कारी टाइप जीवों से सलाह भी क्या लें? जिनसे खुद कुछ ना हो पाया वो काम का क्या सिखाएगा? ऐसे बेचारों के लिए मेरी ‘लड़की पटाने के 101 तरीके’ वाली किताब में नुस्खा नंबर 42, 43, और 44 होता है।
अब ‘लड़की पटाना’ जैसे जुमले पर नारीवाद, संस्कार जैसी चीज़ें याद कर के भावना बेन को आहत मत कीजिए, अट्ठारह-बीस की उम्र वाले इसी भाषा में बात करते हैं। हाँ तो, वापस मुद्दे पर आते हुए बता दें कि, नंबर 42, 43, और 44 तीनों किताबें हैं। यह कम कीमत की हिंदी किताबें या कहिए उपन्यास-नाटक हैं, जो करीब-करीब चॉकलेट (सिल्क जैसे) की कीमत पर आते हैं। इस वजह से एक दो दिन में खुद पढ़कर इन्हें आप गिफ्ट में भी दे सकते हैं।
यह ऐसे विषयों की किताबें हैं, जो आपको बात करने का टॉपिक दे देंगी। इनसे उठाए जुमलों को बात चीत में इस्तेमाल करके आप छद्म बुद्धिजीवी, या पैम्फलेट इंटेलेक्चुअल होने का ढोंग भी रच सकते हैं। चूँकि इन किताबों के विषय में कहीं ना कहीं, प्रेम भी होता है, इसलिए यह बोरिंग नहीं रोचक होती हैं।
इनमें सबसे पहले नंबर पर आता है, अज्ञेय द्वारा लिखी ‘नदी के द्वीप’। अज्ञेय ने ‘शेखर : एक जीवनी’ नाम की किताब भी लिखी है, जिसकी वजह से वो ज्यादा मशहूर हुए हैं, ‘नदी के द्वीप’ उनकी कम जाने जानी वाली किताबों में से एक है। अगर कहीं आप सोच रहे हैं कि यार यह क्या नाम है? नदी में भला द्वीप कहाँ होते हैं, तो बता दें कि माजुली नाम का द्वीप ब्रह्मपुत्र नदी, असम में स्थित है। वो सबसे बड़े नदी के द्वीपों में से एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल भी है।
इस जगह की एक और विशेषता है कि, वहाँ जो स्थानीय मिट्टी के बर्तन बनाने का तरीका है वो बिलकुल वही है जो हड़प्पा के बर्तन बनाने का तरीका था। इतिहास अपने आप को परम्पराओं में कैसे जिन्दा रखता है, यह उसका एक नमूना है। माजुली में मुखौटे प्रसिद्ध हैं, अक्सर सैलानी वहां से इन्हें खरीद कर ले जाते हैं।
उस उपन्यास को देखिए तो यह कोई मोटा-ताजा भी नहीं, दुबला पतला निरीह सा दिखता है। इसमें सिर्फ चार मुख्य किरदार हैं भुवन, रेखा, गौरा और चंद्रमाधव, बाकी एक एक दो पात्र छोटे मोटे से, आते जाते रहते हैं। रेखा पढ़ी-लिखी, परित्यक्ता स्त्री है और गौरा विज्ञान के प्रोफेसर भुवन की छात्रा है। जो प्रोफेसर भुवन है वो रेखा और गौरा दोनों के करीब है, और तीनों ही बोलते बहुत कम, सोचते बहुत ज्यादा हैं। ज्यादातर समय पात्र सोच रहे होते हैं, इसलिए इस उपन्यास में घटनाएँ बहुत कम हैं।
अन्दर क्या चल रहा है, इसे दर्शाने के लिए लेखक प्रतीकों और कविताओं का सहारा लेते हैं, इसलिए किताब को ‘इंटेलेक्चुअल’ या ‘फ़ूड फॉर थॉट’ कहा जा सकता है। यह उनके दूसरे उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ से अलग इसलिए है क्योंकि उसमें एक व्यक्ति की मानसिकता, उसके व्यक्तित्व का विकास दर्शाया गया है। यहाँ पात्र पहले से ही विकास के एक स्तर पर हैं।
यहाँ पात्र समाज का अंग हैं और उसकी धाराओं से प्रभावित भी होते हैं, एक मामूली सी घटना भी उन्हें कितना प्रभावित करती है, वो कितना सोचते हैं, लेकिन कितना कम अभिव्यक्त कर पाते हैं, इसपर उपन्यास आधारित है। अपने आपसी संबंधों के कारण यह पात्र सामाजिक आदर्श नहीं कहे जा सकते, लेकिन वो समाज का हिस्सा हैं। वो मुख्यधारा ना सही, अल्पसंख्यक ही सही लेकिन उनकी संवेदनाएं भी तो हैं ही।
अपनी बाकी सभी रचनाओं की तरह ही व्यक्ति और चिंतन अज्ञेय की इस किताब का महत्तपूर्ण हिस्सा है। लगातार बनता, बिगड़ता और फिर बनता व्यक्तित्व ही यहाँ कहानी है। व्यक्ति और समाज के बीच का अंतर हर रोज दिखता तो है, लेकिन उसे स्वीकारना मुश्किल है। यही अंतर दर्शा देना अज्ञेय की इस किताब को प्रासंगिक बनाता है। अज्ञेय का तीसरा उपन्यास ‘अपने-अपने अजनबी’, सार्त्र, किर्केगार्ड, हाइडेगर के पश्चिमी अस्तित्ववादी दर्शन पर आधारित है।
तीनों आसानी से उपलब्ध किताबें हैं लेकिन, शुरू करने के लिए ‘नदी के द्वीप’ से कीजिए। करीब 300 पन्नों की यह किताब आसानी से हर लाइब्रेरी में मिल जाएगी, खरीदने पर राजकमल प्रकाशन से करीब 225 रुपए की मिलती है। ढूँढिए, पढ़िए, क्योंकि पढ़ना जरूरी होता है।