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Home » विवादास्पद किताब Dragon On Our Doorstep: ‘चीन नहीं भारत चाहता है युद्ध’
रक्षा एवं आंतरिक सुरक्षा

विवादास्पद किताब Dragon On Our Doorstep: ‘चीन नहीं भारत चाहता है युद्ध’

The Pamphlet StaffBy The Pamphlet StaffDecember 9, 2022No Comments12 Mins Read
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Dragon on our doorstep: managing China through military power’ एक विवादास्पद पुस्तक, जिसमें भारत की छवि चीन और पाकिस्तान के सामने धूमिल और कमजोर बताई गई है। प्रवीण साहनी और गजाला वहाब द्वारा लिखी गई यह पहली पुस्तक है, जिसे पुजिता कृष्णन और ऐनला ओजुकुम द्वारा संपादित किया गया है और वर्ष 2017 में एलेफ बुक कम्पनी के डेविड डेविडार द्वारा प्रकाशित किया गया है।

450 पन्नों की इस किताब में 9 भाग हैं, जिसके 22 अध्यायों में भारत के दो पड़ोसी देशों के साथ सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। चीन और पाकिस्तान के साथ सैन्य एवं सामरिक संबंधों पर भी इस पुस्तक में बात की गई है। 

लेखकों का परिचय

प्रवीण साहनी और गजाला वहाब ने यह किताब लिखी है। दोनों लेखक फोर्स (FORCE) (एक राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीति पर आधारित मैगजीन) में बतौर संपादक कार्य कर चुके हैं। मेजर प्रवीण साहनी रिटायर्ड सेना अधिकारी भी हैं, जो पत्रकारिता में आने से पूर्व 13 वर्ष सेना में सेवा दे चुके थे और फिलहाल दिल्ली में रह रहे हैं। 

प्रवीण साहनी इससे पहले भी दो पुस्तकें लिख चुके हैं। जिनमें, ‘डिफेंस मेकओवर: 10 मिथ देट शेप इंडियास् इमेज’ और ‘ऑपरेशन  पराक्रमः द वॉर अनफिनिश्ड’। फिलहाल वो अपनी अगली पुस्तक ‘नॉन कॉन्टेक्ट हाइपर वॉरः इंडिया-चीन वॉर 2024’ पर काम कर रहे हैं। गजाला वहाब भी पत्रकार हैं, जो पहले ‘बॉर्न अ मुस्लिम’ नाम की किताब लिख चुकी हैं। 

पुस्तक समीक्षा

किताब की शुरुआत विवादास्पद बयान से शुरू होती है, “चीन तो छोड़िए, भारत तो पाकिस्तान से भी युद्ध नहीं जीत सकता।” इसके बाद यह किताब सैन्य बल और सैन्य शक्ति के अन्तर के बारे में विस्तार से चर्चा करते हुए इस बात पर जोर देती है कि भारत पिछले 60 वर्षों में केवल सैन्य बल के विस्तार और पोषण पर ही ध्यान देता आ रहा है। पुस्तक का पहला भाग स्वतंत्रता के समय से भारतीय कूटनीति और शासन की कड़वी सच्चाई दिखाने से शुरू होता है।

इसमें बताया गया है कि कैसे वर्षों के संघर्ष और सीमा विवाद के बाद भी इस भूमि का ना तो परिसीमन हुआ और ना ही कोई निर्धारित हुई। साथ ही, किताब में चीन और विश्व की अन्य शक्तियों के प्रति भारत के प्रधानमंत्रियों को लेकर वॉर क्रिटिकल एनलिसिस भी दिया गया है, जिनमें प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह का जिक्र किया गया है। 

बता दें कि यह पुस्तक वर्ष 2017 में प्रकाशित हुई थी। इसमें सीमा मुद्दों और भारतीय रूख को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा किए गए कार्यों का उल्लेख नहीं मिलता है। इस अध्याय में चीन की तकनीक TECHINT & HUMINT को ध्यान में रखते हुए उसके खुफिया जानकारी जुटाने के तरीकों की प्रशंसा की गई है। इसके बाद लेखक जम्मू-कश्मीर में किए गए आतंकवाद के विरुद्ध अभियानों में भारतीय सेना की भूमिका पर बात करते हैं। 13 लाख की मजबूत सेना के प्रभाव पर बात करते हुए इस अध्याय में दो बड़ी चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया है, पहली 1990 से 2016 तक चीन और पाकिस्तान के साथ ‘नो वॉर नो पीस (NWNP)’ और दूसरी ‘भयंकर युद्ध’ की आशंका। 

पाठक जैसे -जैसे किताब को पढ़ता है तो उसे पता चलता है कि किताब में साफ तौर पर बताया गया है कि सीमा मुद्दों पर विवाद असल में किसी युद्ध का नहीं बल्कि भारतीय नेतृत्व द्वारा ‘शान्ति उपायों का नतीजा’ है। इसे वर्ष 1993 के समझौते ने दोगुना कर दिया। जिसमें सीमा प्रबंधन की जिम्मेदारी बिना किसी आपसी सामंजस्य के भारतीय सेना और तिब्बत सीमा पुलिस दोनों को ही दे दी थी। चीन और भारत के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर लिए गए निर्णयों में तार्किक अन्तर भी इस अध्याय में समझाया गया है, जिसमें भारत का शांत रवैया बड़ा कारण है।

पुस्तक का दूसरा भाग विषय पर पूर्ण रूप से पकड़ बनाने की बात जरूर करता है लेकिन यह चीन पर संपूर्ण गुटनिरपेक्ष का नजरिया नहीं दर्शा पाता है। शुरूआत में ही यह किताब बताती है कि कैसे चीन, पाकिस्तान से बिल्कुल अलग देश है, इसलिए दोनों देशों को भारत एक ही तरीके से नियंत्रित नहीं कर सकता। इसमें बताया गया है कि पूर्व जनरल एनसी विज द्वारा भारतीय सेना और भारतीय वायु सेना के साथ पाकिस्तान के खिलाफ बनाई गई कोल्ड-स्टार्ट की सक्रिय रणनीति चीन के सामने नहीं चलाई जा सकती है। इसलिए लेखकों के अनुसार दो मोर्चों पर युद्ध के बारे में सोचना जमीनी हकीकत से दूर एक स्वप्न के समान है।

लेखक भारत को ताकत के पैमाने पर चीन से कम ही आँकते हैं। उनका कहना है कि भारत का गैर-संघर्षपूर्ण रवैया सबसे सही विकल्प है। लेखक इस ओर भी ध्यान देते हैं कि भविष्य में अगर भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी तरह की युद्ध स्थिति पैदा होती है तो चीन इसमें शामिल होने की संभावना न के बराबर है। अगले ही अध्याय में लेखक चीन को प्रशंसात्मक दृष्टि से देखते हुए लिखता है कि इस पूरे मामले में चीन बुद्धिमतापूर्ण निर्णय लेता है और भारत के साथ वह युद्ध नहीं करना चाहता। 

यहाँ तक कि भारत से सीमा विवाद का मुद्दा चीन की मुख्य या बड़ी चिंताओं में भी शामिल नहीं है। इस अध्याय में लेखक पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, पीपुल्स लिबरेशन एयर फोर्स और पीपुल्स लिबरेशन नेवी सहित चीन के सेना संगठन के बारे में विस्तार से बताता है। 

यह जानकारियाँ चीन के कई आधिकारिक आउटलेट से ली गई है। लेखकों ने चीन में आयोजित कई सम्मेलनों में भाग लिया है। साथ ही, अपना आउटलेट भी प्रस्तुत किया है, जिसमें जरूरत से ज्यादा चीन के सैन्य और तकनीकी क्षमताओं की तारीफ की गई है। इस अध्याय में उत्कृष्ट सीमा प्रबंधन, कमांड की एकता, युद्ध थिएटरों का विभाजन, भू-भाग, मिसाइल क्षमताओं, प्रक्षिशित विशेष बल और निशस्त्र वाहन क्षमता की सूचनाओं को लेकर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने कई खूभियाँ गिनाई हैं। 

लेखक कम्युनिस्ट देश के China’s Dream को अन्तरराष्ट्रीय संबंधों के लिए नई रणनीति बताते हुए आगे बढ़ते हैं। इसे आपसी समझ, विश्वास और साझेदारी का गठजोड़ बताया गया है। दक्षिणी चीन सागर में चीन के फैसले को सही ठहराने के लिए भी इस तर्क का उपयोग किया गया है। इस अध्याय में अमेरिका और चीन के बीच जारी विवाद का संक्षिप्त विवरण भी दिया गया है। हालाँकि, दिए गए तथ्यों या ऐतिहासिक तर्कों के आधार पर किसी निर्णायक नतीजे पर पहुँचना बेहद मुश्किल है। 

लेखक ‘कश्मीर’ नामक अगले भाग में भारत सरकार और राजनीतिक व्यवस्था पर तीखा कटाक्ष करते हुए नजर आते हैं। दिलचस्प बात यह है कि लेखकों ने APHC (G), JKLF, PDP और इस क्षेत्र में उनके प्रभाव सहित समस्त भारत के राजनीतिक दलों के बारे में बताते हुए APHC (M) के नेता अब्दुल गनी भट के विचारों का प्रस्तुत किया है। इस अध्याय में अलोकप्रिय विचार का भी जिक्र किया गया है कि कैसे कश्मीर पर चीन अपना दाँव लगा रहा है। साथ ही लेखक लेह-लद्दाख क्षेत्र में चीन के प्रभाव के बारे में बताते हैं कि कैसे जम्मू कश्मीर का पूर्ववर्ती क्षेत्र (2017 के पहले) चीन के सिल्क रूट/सीपीईसी योजना का विवादित बिंदु था। 

लद्दाख, जो कि अब एक केंद्र शासित प्रदेश है, की भौगोलिक स्थिति की महत्ता पर भी प्रकाश डाला गया है क्योंकि दोनों देश यहाँ थल और वायु सेना के रूप में मजबूत उपस्थिति दर्ज करते हैं। लेखक स्थानीय समुदाय के प्रभाव में भारतीय सेना और केंद्र सरकार को राज्य के दुश्मन के रूप में भी चित्रित करते दिखाई देते हैं। साथ ही, यह भारतीय सेना द्वारा शुरु किया गया कथित दिखावटी ‘सद्भावना’ कार्यक्रम का मजाक उड़ाता है और कहता है कि इसने वास्तव में कश्मीर की आबादी को सहायता या लाभ नहीं पहुँचाया है बल्कि,  घाटी में आने वाले विभिन्न कंमाडरों द्वारा मात्र एक प्रोजेक्ट का बिंदु बनकर रह गया है। 

पश्चिम विरोधी विचार पर पुस्तक का अगला अध्याय विवादित ढांचे बाबरी के विध्वंस और उसके बाद आए परिणामों से शुरू होता है। इस शीर्षक से ही पाठक को भान हो जाता है कि लेखक 1990 में बढ़ते हिंदुत्व और विवादित ढांचे के विध्वंस को ही भारत पाकिस्तान के बीच कश्मीर और वहाँ की मुस्लिम आबादी को लेकर हो रहे विवाद का कारण बताता है। लेखक अपने विचारों को और मजबूती देने के लिए पाकिस्तान के कवियों की कविताएँ इस अध्याय में शामिल करता है, जिनमें बताया गया है कि कैसे पाकिस्तान भारत की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाता है लेकिन, भारतीय नेतृत्व इसे स्वीकार नहीं करता और इसकी कीमत भारत को चुकानी होगी।

FORCE मैगजीन में काम करते हुए लेखक के संपादकीय भाग में प्रकाशित हुए पाकिस्तानी सेना के जवानों द्वारा लिखे लेख भी इस पुस्तक में प्रकाशित हुए हैं। अगले भाग में रक्षा मंत्रालय, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, एकीकृत रक्षा स्टाफ संरचना के बारे में विस्तार से बताया गया है। पुस्तक में आगे भारतीय थल सेना, भारतीय वायु सेना और जल सेना के बार में भी संक्षिप्त जानकारी दी गई है, जिसमें वर्षों से सेना के प्रयास, नेतृत्व और विकास कार्यों को नजरअंदाज किया गया है। साथ ही, वर्ष 1998 से 2014 तक परमाणु नीति और रुख के साथ-साथ स्थानीय रक्षा जरूरतों को बढ़ाने के बारे में भी बात की गई है। 

भारत के विषय से हटते हुए लेखक ने पुस्तक का एक भाग तिब्बत और दलाई लामा पर भी लिखा है, जिसमें तिब्बतियों को नरम बताते हुए मुश्किल समय में उनके द्वारा किए गए प्रयासों की सराहना की  गई  है। हालाँकि, लेखक तिब्बत के मामले में भारत द्वारा किए गए प्रयासों को कम आँकता है। साथ ही, भारतीय नेतृत्व की स्थिति को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल में ना कर पाने के लिए कमजोर बताता है। यहाँ तक पढ़ने के बाद पाठक यह तो जान ही लेता है कि लेखक के अनुसार, चीन के लिए तिब्बत उसका मुख्य मुद्दा है तो भारत के लिए सीमा क्षेत्र मुख्य मुद्दा है। 

लेखक अब वापस से भारत पर ध्यान केंद्रित करते हुए CPI (M), PLA (Manipur), ULFA, UALC, NSCN-IM, NSCN-K, UNLFWSEA सहित कई अन्य पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न विद्रोही आंदोलनों संगठनों के बारे में बात करता है। इसमें मुख्य तौर पर यह दर्शाया गया है कि माओवादी विचारधारा पर चलते हुए यह समूह कैसे राज्य के बीच अपनी सफलता और विफलता को मापते हैं और उनमें क्या अन्तर है। इन मुद्दों को ना सुलझाने का सबसे बड़ा कारण सरकार के पक्ष का बदलना है जो सत्ता परिवर्तन के बाद संभावित है ही। इसी के चलते विद्रोहियों और बाहरी एजेंटों को ऐसे मुद्दों को भड़काने का मौका मिल जाता है।

इस अध्याय में लेखक ने क्षेत्र और राज्यों के बीच विभाजन का एक बड़ा कारण सामाजिक-धार्मिक समूहों- मुख्य रूप से  RSS की भूमिका पर सवाल उठाए हैं। इसके संदर्भ में छत्तीसगढ़ और बिहार का उदाहरण पेश किया गया है कि कैसे यहाँ देश के संसाधनों और संरचनाओं को ध्वस्त किया जा रहा है। पुस्तक के अंतिम भाग में विश्व के सामने धूमिल होती भारत की महान छवि को लेकर बात की गई है। साथ ही, भारतीय सेना को लेकर लेखक की राय है कि सेना इतिहास से न सीखकर अपनी गलतियाँ दोहराती रहती है। 

हालाँकि, इतनी आलोचना के साथ ही भारतीय वायु सेना की भूमिका और प्रभावशीलता को स्वीकार किया गया है। हालाँकि, जल सेना में नए प्रयोगों की बात की गई है, तो वर्ष 1990 से अब तक हुए विकास कार्यों का भी उल्लेख इस पुस्तक में है। इस अध्याय का अंत वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा मई, 2015 में दिए गए बयान को गलत बताने पर होता है, जिसमें कहा गया था कि भारत को वैश्विक खिलाड़ी के रूप में संतुलित शक्ति से आगे बढ़ना चाहिए। पुस्तक लेखकों के इस कथन के साथ समाप्त होती है कि भू-रणनीति का खिलाड़ी बनाने के लिए हम, हमारे इतिहास और भूगोल के कर्जदार हैं। 

आलोचना

पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठक लेखकों की उन्मुक्त और कठोर स्पष्टवादिता की सराहना कर सकता है। पुस्तक में आँकड़ों और तथ्यों नहीं है बल्कि चुनिंदा विश्लेषणात्मक टिप्पणियाँ जोड़ी गई है। पुस्तक में उल्लिखित आँकड़ों और रिपोर्ट पर नजर डालें तो सहज ही समझ आता है कि अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए दोनों पक्षों की बात रखने के बजाय कुछ चयनित आँकड़ों का उपयोग किया गया है।  

हालाँकि, यह पुस्तक पाठक को भारत की राजनीति, नौकरशाही, सैन्य प्रणाली के कामकाज की अच्छी जानकारी प्रदान करती है। साथ ही, आजादी के बाद से सरकारों की रणनीतिक विफलताएँ और एशिया में भारत की वर्तमान अप्रांसगिकता की ओर लेकर जाने पर तीखा व्यंग्य भी करती है। यह निश्चित ही भारत को ऐसे देश के रूप में चित्रित करती है, जिसका न तो कोई सैन्य उद्देश्य है और न ही रणनीतिक, जो कि सच्चाई से कोसों दूर हैं।

पाठक को लेखकों द्वारा भारतीय सेना के प्रति नरम और नकारात्मक रवैए का अहसास भी होता है, जो रिटायर्ड मेजर प्रवीण साहनी के कड़वे अनुभवों या वर्षों से दबे द्वेष का परिणाम हो सकता है। यह किताब चीन की विचारधारा से काफी प्रभावित नजर आती है और भारतीय कूटनीति, सैन्य और शासन के विरोध में मात्र एक प्रोपगेंडा सामग्री की तरह काम करती है।सरकार द्वारा संभावित बदलावों पर यह पुस्तक विस्तार से चर्चा करती है लेकिन मौजूदा तौर-तरीके, सरकार और रक्षा पदानुक्रमों के बीच समन्वय को लेकर किसी भी प्रकार के अन्तर को बताने के बारे में लेखक असफल प्रयास करते हैं।

उल्लेखनीय है कि देश की छवि को नुकसान पहुँचाने वाली किताब का भले ही यहाँ मखौल बना हो लेकिन पाकिस्तानी विश्लेषकों और सोशल मीडिया पर इसका जमकर प्रचार किया गया है। लेखक ने पुस्तक के जरिए अमेरीका, चीन और रूस के साथ पाकिस्तान को भू-राजनीति का महत्वपूर्ण  हिस्सा बताकर महिमामंडित किया है। कुल मिलाकर यह पुस्तक किसी उपाय या सुझाव देने और रणनीतिक रूपरेखा तैयार करने में विफल ही रही है। जैसे कि इसके कवर में बताया गया है, ‘मैनेजिंग चीन थ्रू मिलिट्री पावर।’

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