आज भले चीन दुनिया में अपने अजीबोगरीब उत्पादों व वस्तुओं के कारण चर्चित रहता है, लेकिन वास्तव में इतिहास की गहराई में जाकर देखा जाए तो वर्तमान चीन एक ‘अवैध अस्तित्व’ वाला देश है। इसी बात को प्रमाणित तथ्यों के साथ प्रो कुसुमलता केडिया ने अपनी पुस्तक ‘कम्युनिस्ट चीन, अवैध अस्तित्व’ में विस्तार से बताया है। पुस्तक के परिचय के रूप में आमुख शीर्षक में ही इस पुस्तक का पूर्ण परिचय व इसकी विषय वस्तु स्पष्ट है। 22 अध्यायों के माध्यम से लेखिका ने इस पुस्तक में चीन की विस्तारवादी कूटनीति व उसकी राजनीति व शासन में चीनी वामपंथियों की घुसपैठ पर सविस्तार लिखा है।
जिसे हम चीन कहते हैं उसे चीन स्वयं झुआंगहुआ कहता है। वर्तमान के विशाल भौगोलिक क्षेत्र वाले चीन का निर्माण मुख्यतः सोवियत संघ तथा अन्य पश्चिमी देशों के अनुग्रह, हस्तक्षेप और प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग के कारण ही हुआ है। रोचक यह है कि यह चीन न होकर कम्युनिस्ट चीन है। पारंपरिक चीन को बाहरी शक्तियों से कभी भी ऐसी व्यापक और प्रभावकारी सहायता नहीं मिलती। इस मुख्य बात को यहां इस पुस्तक में प्रमुखता से विभिन्न संदर्भों व लेखकों की पुस्तक के माध्यम से अलग अलग अध्यायों में स्पष्ट बताया गया।
पुस्तक एक और बात प्रमुखता से कहती है कि ‛वर्ष, 1954 तक चीन में उसके प्राचीन इतिहास का कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं था। जब माओत्से तुंग ने सोवियत संघ के अनुसरण में सैन्य प्रोद्योगिकी का विस्तार करते हुए भवन निर्माण के लिए जगह-जगह खुदाइयाँ शुरू कीं, तब उसे पहली बार हूनान प्रांत में एक बड़ा पुरातात्विक क्षेत्र मिला, जिसके आधार पर चीनी सभ्यता की प्राचीनता की बात प्रचारित की गई।’
वास्तव में इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने बताया है कि वर्तमान चीन एक कब्जा किया हुआ क्षेत्र है। वर्तमान में दुनिया के अधिकांश देशों व बुद्धिजीवियों को पता है कि चीन का करीब 23 देशों से सीमा विवाद है। वर्तमान चीन का अधिकांश भाग उसने अपने पड़ोसी देशों से जबरन कब्जाया हुआ है। और इस सबके पीछे पश्चिमी ताकतें व वामपंथी विचारधारा सबसे प्रमुख कारण है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वर्तमान कम्युनिस्ट चीन अपने वर्तमान अवैध अस्तित्व का आकार लेना शुरू हो गया था। वामपंथियों, पश्चिमी ताकतों, पादरियों, रूसी सत्ता व भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सहारे कम्युनिस्ट चीन अपनी विस्तारवाद की कूटनीति पर अपने पड़ोसी देशों की सीमाओं पर अवैध कब्जा करता गया।
लेखिका पुस्तक के पहले ही अध्याय के पृष्ठ 16 में लिखती हैं कि ‘नेहरू द्वारा माओ जेडोंग या माओत्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी का कब्जा तिब्बत पर करा देने के बाद से पहली बार कम्युनिस्ट चीन भारत का पड़ोसी बना है।’ इससे पहले कभी चीन भारत का पड़ोसी नहीं रहा। बल्कि चीन महाभारत काल में भारत के एक जनपद का ही सिर्फ़ भाग था। वह भी सुदूर प्रशांत महासागर क्षेत्र से लगा हुआ था व क्षेत्रफल में बहुत कम था।
इसी बात को पुस्तक में ओर विस्तार से बताते हुए लेखिका ने लिखा है कि ‛वर्तमान कम्युनिस्ट चीन के 28 प्रांतों में से, जैसा कि जॉन की बताते हैं पाँच प्रांत ही मूल चीनी भूमि हैं- हेनान, हेबेई, शांक्सी, शेक्सी और शानदांग। 23 प्रांत 20वीं सदी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका के संरक्षण में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा कब्जा किए गए क्षेत्र हैं।’
अफीम युद्ध और अपमान की शताब्दी: विक्टोरिया के ड्रग डीलर्स ने कैसे समाप्त की चीन की सभ्यता
पुस्तक के अध्याय 2 में पादरी सैमुअल बील और जोसफ नीडम की चीन में भूमिका पर विस्तार से लिखा गया है और साथ ही बताया गया है कि कैसे पश्चिमी पादरियों ने मूल चीन के भोले भाले लोगों का मतांतरण किया। वहां पर इंग्लैंड की कंपनियों ने वहां के लोगों को अफीम के अवैध धंधे में उतार दिया व उन्हें अफीमची बना दिया। वर्तमान में जो भारत के मणिपुर व अन्य हिस्सों में इन्हें वामपंथियों द्वारा अफीम के माध्यम से विवाद खड़ा कर रखा है। भेद फैलाने और जासूसी करने तथा झूठ फैलाने में इंग्लैंड के अनेक पादरी अग्रणी रहे हैं। इसके लिए उन्हें सम्मानित भी किया जाता है। इन्हीं लोगों व इनकी विचारधारा वाले लोगों ने 1950 के बाद कम्युनिस्ट चीन का दुनिया के सामने बढ़ा चढ़ाकर प्रचार प्रसार किया व उसे आर्थिक रूप से विकसित देश बताने के लिए किसी भी तरह के आंकड़ों का सहारा लिया। वहीं वर्तमान चीन की हर विस्तारवादी नीति को विश्व पटल पर सही ठहराने के लिए विमर्श गढ़े गए।
पुस्तक में चीन के इतिहास पर फाहयान व शुंग युन के समय पर भी प्रकाश डाला गया है। उस समय के चीन व वर्तमान चीन में कितना अंतर है यह पुस्तक में स्पष्ट लिखा गया है। भारत का चीन से संबंध व इतिहास में चीन की क्या स्थिति थी। वह भारत के सामने कहीं नहीं ठहरता था। चीन वर्तमान में जितना बड़ा क्षेत्रफल वाला देश है वह पहले कभी नहीं रहा था, बल्कि चीन की सीमाएँ निरंतर बदलती रही हैं। तुर्क, मंगोल, मांचु, तिब्बति और जापानियों ने चीन को एक-एक कर अपने अधीन रखा और अंत में रूस ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार चीन को एक महान कम्युनिस्ट ‛नेशन स्टेट’ की तरह प्रचारित किया। इसका कारण यह था कि सोवियत संघ का आसपास कोई साथी नहीं था और उसे कम्युनिस्ट चीन के रूप में एक शक्तिशाली साथी दिखा।
माओत्से तुंग ने चीन की परंपरागत संस्कृति को नष्ट करने का एक महाभियान चलाया और कई लाख चीनियों को मौत के घाट उतार दिया। अंत में चीन के भीतर ही एक कई तरह के विद्रोह हो गए और सैन्य बल से कम्युनिस्ट पार्टी उन्हें कुचलती रही । इस प्रकार वर्तमान चीन पर कम्युनिस्टों का कब्जा है, जो किसी भी अर्थ में चीन की परंपरागत संस्कृति से संबंध नहीं रखता।
आखिर क्या कारण थे कि बाहरी शक्तियों ने वर्तमान चीन का आकार गढ़ने में सहयोग किया? मैं यहां समीक्षा में इसका खुलासा कर दूंगा तो पाठक की पुस्तक के प्रति जिज्ञासा कम हो सकती है। यहां इस पुस्तक में विस्तार से बताया गया है जिससे पाठक वर्तमान चीन की बनावट को आसानी से समझ जाऐंगे व यह भी समझेंगे की पश्चिमी देशों व रूस को इससे कितना लाभ हुआ व भारत को पिछले सात दशकों में कितना बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। जिसके पीछे जवाहरलाल नेहरू की अतिविश्वास भरी व अव्यवहारिक विदेश नीति जिम्मेदार रही है। ऐसा लेखिका ने अपनी इस पुस्तक में कितनी ही जगह प्रमाण सहित स्पष्ट किया है।
कुल मिलाकर इस पुस्तक के बारे में एक आम पाठक की तरह ही मेरी यह राय है कि यह पुस्तक व इसकी लेखिका अपने विषय के साथ पूर्ण न्याय करती है। कहीं-कहीं कुछ तथ्यों व घटनाओं का दोहराव हुआ है लेकिन वह भी अध्याय को स्पष्ट करने के लिए। साथ ही यदि पुस्तक के अंत में संदर्भ सूची होती तो पुस्तक ओर ज्यादा प्रमाणिक होती तथा आगे पाठक इस विषय पर विस्तार से पढ़ना व जानना चाहता तो उसे सुविधा रहती। फिर भी पुस्तक कम्युनिस्ट (वामपंथी) विचारधारा, इंग्लैंड व अमेरिका के पादरियों की करतूतों, पश्चिमी देशों की दुनिया में दादागिरी, अपने व्यापार व हितों के लिए अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस जैसे देशों की नीतियों व मानवता पर क्रुरताओं का यह एक अच्छा दस्तावेज है।
ईसाइयत के प्रचार प्रसार के लिए पादरी किस हद तक जा सकते हैं, पाठक जब यह किताब पढ़ेगा तो उसे इस विषय पर विस्तार से जानने-समझने को मिलेगा। किसने चीन को भारत का पड़ोसी बनाया, तिब्बत पर चीन का कब्जा, नेहरू की गलत विदेश नीति, भारतीय सीमा पर चीन का कूटनीतिक कुचक्र , कैसे वर्तमान चीन में मुसलमानों को दबाकर रखा गया है और बाकी दुनिया के मुसलमान इस पर क्यों चुप्पी साधे हुए हैं, कम्युनिस्ट छाया में भारत-चीन संबंध आदि विषयों पर यहां इस पुस्तक में विस्तार से पढ़ने के लिए है।
लेखिका अंत में कहती है कि भारत की लड़ाई मूल (वास्तविक) चीन से नहीं है, हमारी लड़ाई तो कम्युनिस्ट चीन से है। जो कि एक अवैध अस्तित्व व कम्युनिस्टों के हित साधने का राजनीतिक अखाड़ा है। जिस तरह से 1991 में सोवियत क्षेत्र से कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद समाप्त हो गया, उसी तरह से कम्युनिस्ट चीन से भी तिब्बतियों, मंगोलों, मांचुओं, तुर्को और हानो की मुक्ति आवश्यक है। वहीं इसमें भारत की क्या भूमिका है इस पर भी प्रकाश डाला गया है। वर्तमान में जो कम्युनिस्ट चीन है वह अपना वास्तविक इतिहास तक भी नहीं जानता है वह अब भी दंत कथाओं के आधार पर ही इतिहास लिखता, बताता व गढ़ता रहा है। उसका एक दिन सोवियत रूस की तरह विघटन होना ही है। क्योंकि जिस देश की पृष्ठभूमि ही अवैध अस्तित्व पर टिकी वह लंबे समय तक एक संपूर्ण राष्ट्र नहीं रह सकता है।
अंत में लेखिका की ही बात से मैं अपनी इस पुस्तक समीक्षा को विराम देना चाहुंगा, “वस्तुतः चीन कोई ‛नेशन स्टेट’ नहीं है, अपितु आपस में युद्धरत अनेक राष्ट्रीयताओं का समुच्चय है और वहाँ भीतरी झगड़े भयंकर रूप से चल रहे हैं और पूरा क्षेत्र कम्युनिस्ट पार्टी का उपनिवेश बना हुआ है। माओ त्से तुंग ने 9 करोड़ से अधिक चीनियों की हत्या कर एक आतंककारी शासन स्थापित किया, परंतु चीन भीतर से धधक रहा है और द्रवणशील स्थिति में है, क्योंकि इतिहास में कभी भी वह नेशन स्टेट रहा ही नहीं है।”
नोट- यह समीक्षा भूपेंद्र भारतीय द्वारा लिखी गई है।
यह भी पढ़ें- अभ्युत्थानम्: नंद, अलेक्ज़ेंडर और चंद्रगुप्त मौर्य | पुस्तक समीक्षा