लगभग 53 साल पहले की घटना है जब फिलिस्तीनी लड़ाकों ने मुस्लिम राष्ट्र जॉर्डन के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ा था। इसमें फिलिस्तीन और सीरिया को जान-माल का बहुत ज्यादा नुक़सान उठाना पड़ा। अरब देशों में साल 1970 के 16 सितंबर से 27 सितंबर तक एक युद्ध चला था जिसे इतिहास में ‘ब्लैक सितंबर’ (Black September) के नाम से याद किया जाता है। ‘ब्लैक सितंबर’ वो घटना है जब जॉर्डन की सेना ने फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) और अन्य समूहों के आतंकवादियों को देश से बाहर निकालने के लिए एक अभियान चलाया था। जॉर्डन में अधिकांश फिलिस्तीनी 1947 में इज़रायल के गठन के बाद शरणार्थी के रूप में आए थे। 1967 के 6 दिनों तक चली लड़ाई में जब इज़रायल ने कई अरब राज्यों को हराया तो लगभग 3,00000 से अधिक फिलिस्तीनी अम्मान और जॉर्डन के अन्य हिस्सों में भाग गए।
हमास के उकसावे के जवाब में जब इजरायल हमास पर हमले कर उन्हें तबाह कर रहा है तब ‘ब्लैक सितंबर’ की घटना याद आती है। ये युद्ध जॉर्डन और फिलिस्तीन के बीच लड़ा गया था और कहा जाता है कि इसमें 3000 से 4000 फिलिस्तीनी आतंकी और सीरिया के 600 आतंकी मारे गए थे। वहीं फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात ने बताया था कि इस युद्ध में 20 से 25000 की संख्या में फिदायीन मारे गए थे। उम्माह के समर्थन के नाम पर जो पाकिस्तान आज फिलिस्तीन के साथ होने का दावा करता है कभी उसी पाकिस्तान के सेना प्रमुख को ‘Butcher of Palestinians’ कहा गया था, उसका नाम था जिया उल हक़।
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अरब जगत में सात दशकों से इजरायल-फिलिस्तीन के बीच संघर्ष चल रहा था और उसके बाद बारी आई थी ब्लैक सितम्बर की। इस युद्ध के बाद इसके बारे में जो कुछ भी लिखा गया, उन सभी का एक ही निष्कर्ष था कि इस युद्ध में पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह जिया-उल-हक की ही भूमिका थी। जंग से हार चुके जॉर्डन के शासक शाह हुसैन ने पाकिस्तान से मदद माँगी थी और जिया-उल-हक की वजह से ही जॉर्डन को इस युद्ध में जीत मिली।
दरअसल, सीरिया और जॉर्डन के बीच युद्ध छिड़ गया था। 1967 में 6 दिनों तक युद्ध में हारने के बाद जॉर्डन की हालत पस्त हो चुकी थी। मिस्र और सीरिया के साथ साथ जॉर्डन को भी इस युद्ध में बहुत नुक़सान हुआ था और उसी समय वह ग़ज़ा पट्टी, यरूशलम और वेस्ट बैंक जैसे इलाक़ों को भी खो चुका था।
जॉर्डन में फ़िलिस्तीनी उग्रवादियों की मौजूदगी के कारण शाह हुसैन की सरकार के साथ उनका तनाव पैदा हो गया, शाह 1952 में गद्दी पर बैठे थे। पॉपुलर फ्रंट फॉर लिबरेशन ऑफ फिलिस्तीन (PFLP) जैसे फिलिस्तीनी आतंकवादी समूहों ने जॉर्डन से इजरायल के खिलाफ हमले शुरू किए, जिससे यहूदी राज्य इजरायल ने जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी।शाह हुसैन के लिए परेशानी का एक और कारण था जॉर्डन में इराकी सेना की एक बड़ी टुकड़ी की मौजूदगी, जो जाहिर तौर पर इज़रायल से खिलाफ सुरक्षा के लिए वहां मौजूद थी। उस समय जॉर्डन में इराकी सेना के पास 20,000 सैनिक और 200 टैंक थे। यहाँ पर तनाव पैदा करने के लिए इराक और सीरिया, दोनों ने जॉर्डन में सक्रिय अलग-अलग फिलिस्तीनी आतंकवादी समूहों को समर्थन देना शुरू कर दिया।
इसी बीच साल 1970 में शाह हुसैन पर हमले भी हुए जिसके बाद जॉर्डन सेना ने फिलिस्तीनी शरणार्थी शिविरों पर गोलाबारी की। 1967 के युद्ध में जब जॉर्डन की सेना और वायुसेना को इजरायल ने हरा दिया और फिर अमेरिका और ब्रिटेन की मदद से जॉर्डन ने फिर से सेना को ठीक करने की कोशिश की। जॉर्डन ने अपनी सेना को ट्रेनिंग के लिए पाकिस्तान की मदद मांगी। पाकिस्तान द्वारा भेजे गए विशेषज्ञों में से एक मोहम्मद जिया-उल-हक नाम का ब्रिगेडियर था।
17 सितंबर, 1970 का दिन था जब शाह हुसैन ने जॉर्डन सेना को शरणार्थी शिविरों से ऐक्टिव आतंकवादियों को निशाना बनाने का आदेश दिया।।
18 सितंबर को, सीरियाई टैंक फिलिस्तीनी आतंकवादियों के समर्थन में जॉर्डन में घुस गए और उन पर फिलिस्तीनी आतंकवादियों ने कब्जा कर लिया। यही समय था जब हुसैन ने स्थिति का जमीनी आकलन करने के लिए ज़िया-उल-हक को घटनास्थल पर भेजा। यहाँ से इस ऑपरेशन का रुख बदल गया। ज़िया-उल-हक़ उस समय अमेरिका से अपनी ट्रेनिंग पूरी कर लौटे थे।
हक को ज़िम्मेदारी दी गई थी कि वो पाकिस्तान और जॉर्डन की सेनाओं के बीच संबंध मज़बूत करेंगे और वहाँ पर जो कुछ भी हो रहा है उसकी जानकारी पाकिस्तान भेजते रहेंगे। इसी बीच सीरिया की सेना ने टैंकरों को लेकर जॉर्डन पर चढ़ाई कर दी। जब अमेरिका भी जॉर्डन की मदद करने से पीछे हट गया तो शाह हुसैन घबरा गए। जॉर्डन में उस वक्त जिया उल हक़ भी थे, हुसैन ने उनसे सीरियाई मोर्चे पर जाने को कहा लेकिन असल में जिया उल हक़ उस लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे। उनके कहने पर ही सीरियाई फ़ौज पर वायसेना से हमला किया गया। इस युद्ध के बारे में कहा जाता है कि शाह हुसैन ने ज़िया-उल-हक़ की मदद से फ़िलिस्तीनियों को हराने के लिए एक ख़ानाबदोश सेना भेजी थी, जिसने वहाँ ऐसा नरसंहार हुआ जिसका कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता है। ये भी कहा जाता है कि शाह हुसैन ने 11 दिन में जितने फिलिस्तीनी मारे, उतने तो इज़रायल 20 वर्षों में भी नहीं मार सकता। फिलिस्तीन के पूर्व राष्ट्रपति यासिर अराफात ने फिलिस्तीनियों के इस नरसंहार के बाद कहा था कि वे कभी पाकिस्तान नहीं जाएगा।
इसके बाद जब युद्ध जॉर्डन के पक्ष में जाने लगा तो शाह हुसैन ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो से तारीफ़ की। इस प्रशंसा के बदले जिया उल हक को ब्रिगेडियर से मेजर जनरल का पद दिया गया। बाद में जिया उल हक़ ने उन्हीं भुट्टो को फाँसी पर चढ़वा दिया। पाकिस्तान के छठे राष्ट्रपति भी बने लेकिन एक प्लेन हादसे में मारे गए। इसके बारे में कभी किसी को पता नहीं चल पाया कि ये हादसा था या फिर CIA या मोसाद ने ये काम किया था। लेकिन ‘ब्लैक सितंबर’ की घटना में हुए फिलिस्तीनियों के नरसंहार में ज़िया-उल-हक़ की भूमिका को लेकर किसी के मन में कभी कोई संदेह नहीं रहा।
सवाल ये है कि आज जो हमास महिलाओं की हत्या कर इज़रायल और पूरे विश्व को चिढ़ाने का प्रयास कर रहा है क्या उसके कोई नियम या क़ानून हैं? अगर बात PLO यानी फिलिस्तीन लिब्रेशन ऑर्गनाइजेशन या फिर हमास जैसे आतंकी संगठनों की करें तो ये ऑर्गेनाइज़ेशन किसी नियम से नहीं चलते। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि इज़रायल से युद्ध के समय इनको जॉर्डन से पनाह दी गई पर जब इज़रायल के हमले के चलते जॉर्डन ने इन्हें निकालना चाहा तो ये जॉर्डन के ही शाह हुसैन के ख़िलाफ़ हो गये। दरअसल इतना ख़िलाफ़ हुए कि ३-४ साल बाद जॉर्डन के ही प्रधानमंत्री की हत्या कर दी।
इन आतंकी संगठनों ने जॉर्डन में जो किया उसके चलते सितंबर 1970 में जॉर्डन ने पाकिस्तान आर्मी और ज़िया उल हक़ की मदद से इन्हें कुचला। इससे यह साबित होता है कि मुस्लिम उम्माह का कॉन्सेप्ट ज़रूरत पड़ने पर बरकरार नहीं रह पाता।
जॉर्डन टाइप के जो देश पहले इनके कारण अपना हाथ जला चुके हैं, उनसे टर्की और ईरान को सीखने की आवश्यकता है। टर्की को इसलिए और भी क्योंकि टर्की नाटो का सदस्य है और सत्तर साल से है। भारत में उम्माह के नाम पर फ़िलिस्तीनियों के लिए दुआ करने वाले लोगों को जॉर्डन में ब्लैक सितंबर की घटना को भूलना नहीं चाहिए। वर्तमान गतिरोध में भी सऊदी अरब इज़रायल के पक्ष में नज़र आने लगा है। विश्व की सीमाएँ वृहद् हो रही हैं और एक क़ौम है जिसे लगता है कि वो आज भी अपने मज़हब की दलीलों के आधार पर वर्ल्ड ऑर्डर तय करेगी। ये समय यह सोचने का भी है कि इज़रायल को आख़िर उम्माह के बॉयकॉट से डर क्यों नहीं लगता?
हमास जैसे आतंकी संगठनों का क्या मज़हब है? 53 साल पहले हुई ‘ब्लैक सितंबर’ की घटना से तुर्किए, ईरान जैसे देशों को क्या सीखना चाहिए।
आतंकी संगठन हमास के समर्थन में उतरा कांग्रेस का सहयोगी दल IUML