“यह देश बहुभाषी है, यह देश बहुधर्मी है, इस देश में अलग अलग जनजातियों का निवास है। वे संख्या में कम हैं इसलिए अपने अस्तित्व के बारे में चिंतित हैं। कभी-कभी उत्तर पूर्व में बसे लोग न केवल भौगोलिक दूरी महसूस करते हैं लेकिन भावनात्मक दृष्टि से भी अपने को उपेक्षित पाते हैं। इस दृष्टि को बदलना पड़ेगा और हम बदलने के लिए कटिबद्ध हैं”
यह शब्द हैं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के जो उन्होंने 22 वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री के रूप में संसद के पटल पर कहे थे।
उस दौरान केंद्र में भले ही भाजपा गठबंधन की सरकार थी लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा का कहीं अस्तित्व नहीं था। वर्ष 2003 में भाजपा की अरुणाचल प्रदेश में पहली सरकार बनी थी लेकिन यह कांग्रेस के दो तिहाई दल बदल के कारण बनी थी। हालाँकि यह 42 दिन से अधिक नहीं चल पायी थी।
वर्ष 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद पूर्वोत्तर की राजनीति में एक नया युग शुरू हुआ। वर्ष 2016 में असम की जीत ने भाजपा के लिए उत्तर पूर्व का द्वार खोला। इसके बाद भाजपा ने अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर को भी केसरिया रंग में रंग दिया। फिर वर्ष 2018 के चुनाव में नागालैंड, मेघालय में सरकार में शामिल होने में कामयाब रही। इसके साथ ही त्रिपुरा में लेफ्ट के 25 वर्ष के शासनकाल को खत्म कर अपने दम पर भाजपा ने वहां भी सरकार बनाई।
अब वर्ष 2023 में पूर्वोत्तर के तीन राज्य त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय के चुनाव परिणाम सामने हैं, जहाँ तीनों राज्यों में भाजपा वापसी में कामयाब रही है। त्रिपुरा एवं नागालैंड में भाजपा को बहुमत मिल गया है और मेघालय में भी भाजपा के संभावित गठबंधन में वापसी के कयास लगाए जा रहे हैं।
भाजपा ने पूर्वोत्तर को अपने एक नए गढ़ के रूप में स्थापित कर दिया है। यह कैसे हुआ और इसके पीछे क्या कारण रहे कि हिंदुत्व और उत्तर भारत की पार्टी के तमगे वाली पार्टी बहुधर्मी और बहुभाषी राज्यों में अविजित रह रही है।
विकास, विकास और विकास
राजनीति में चुनाव कईं मुद्दों पर लड़े और जीते जाते हैं लेकिन विकास का कोई विकल्प नहीं होता। इसी बात को ध्यान में रख कर केंद्र की भाजपा सरकार आगे बढ़ी। पूर्वोत्तर में सबसे अधिक अभाव था कनेक्टिविटी का। इसी पहलू पर कार्य भी किया गया। चाहे रोड हो, रेलवे हो या फिर हवाई मार्ग के लिए एयरपोर्ट्स।
इसकी शुरुआत तब होती है जब प्रधानमंत्री मोदी लाल किले से पूर्वोत्तर राज्यों की राजधानियों को देश के अन्य हिस्सों से रेलवे के माध्यम से जोड़ने की घोषणा करते हैं।
इसमें बड़ी भूमिका निभाई पीएम डिवाइन योजना एवं नेशनल कैपिटल कनेक्टीविटी प्रोजेक्ट्स ने, जिसके तहत 6 परियोजनाओं पर काम चल रहा है, जो कि 2024 से पहले पूरी हो जाएंगी। असम, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा की राजधानियों को पहले ही ‘ब्रॉड गेज’ रेल नेटवर्क से जोड़ा जा चुका है।
मेघालय की राजधानी शिलॉन्ग, मणिपुर की इंफाल, नागालैंड की कोहिमा और मिजोरम की राजधानी आइजोल को नयी ‘ब्रॉड गेज’ लाइनों से जोड़ने का काम जारी है। इसके अलावा, भारतीय रेलवे इंफाल को गुवाहाटी से जोड़ने वाले देश की सबसे लंबी रेलवे सुरंग का निर्माण कर रहा है।
केंद्र सरकार ‘पूर्व की ओर देखो नीति’ (Look east policy) के तहत पूर्वोत्तर के राज्यों का दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ सुदृढ़ सड़क-रेल नेटवर्क बनाने की योजना पर काम कर रही है। इसके तहत रेलवे उत्तर पूर्वी राज्यों के साथ चीन, म्यांमार और बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाकों को जोड़ने का कार्य चल रहा है। इसमें अरुणाचल प्रदेश में 180 किलोमीटर रेल लाइन की योजना शामिल है जो तवांग में चीन सीमा तक कनेक्टीविटी देगी।
पूर्वोत्तर में एयरपोर्ट निर्माण देखें तो नवम्बर, 2022 में प्रधानमंत्री ने अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर में दोन्यी पोलो एयरपोर्ट का उद्घाटन किया। यह पिछले 8 सालों में पूर्वोत्तर क्षेत्र में संचालित होने वाला 7वां एयरपोर्ट है।
विकास की यह प्रक्रिया सिर्फ शहरों को गांव से जोड़ने तक ही सीमित नहीं रही बल्कि यहां के ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए वेलफेयर स्कीम लाई गई।
जनकल्याणकारी योजनाएं
‘रोटी कपड़ा मकान’ भले ही एक मूलभूत आवश्यकता है जो उपलब्ध करवाना हर एक सरकार का कार्य है लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों के ग्रामीण इलाके कई वर्षों तक इनसे वंचित थे। केंद्र सरकार द्वारा रोटी के लिए राशन की योजना बनाई गई और मकान के लिए आवास योजना। जहाँ किसान समृद्धि योजना से सरकार किसानों तक पहुँची, वहीं जिन गावों के लिए बिजली अभी भी एक सुना हुआ किस्सा थी उनको विद्युतीकरण से जोड़ा गया। देश के अन्य हिस्सों की तरह ही पूर्वोत्तर राज्यों में भी सबसे अहम भूमिका निभाई डिजिटल इंडिया ने।
योजनाएं तो सरकार ले आई थी लेकिन भ्रष्टाचार फिर भी एक चुनौती बना हुआ था। इसको खत्म करने के लिए वेलफेयर स्कीम्स में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) का सहारा लिया गया। इन राज्यों में महिलाओं का भाजपा को भरपूर समर्थन मिलने लगा है। ऐसा क्यों हुआ?
महिला उत्थान पर जोर
केंद्र सरकार ने महिला कल्याण को केंद्रित करके योजनाओं का क्रियान्वयन किया। दरअसल पूर्वोत्तर राज्यों में विभिन्न आदिवासी समुदाय निवास करता है जिनमें अधिकतर मातृ सत्तात्मक समाज देखा जाता है, चाहे त्रिपुरा हो, मेघालय या फिर नागालैंड।
गांव की जिन महिलाओं को चूल्हा जलाने के लिए दूर से लकड़ी लानी पड़ती थी, उज्जवला योजना के तहत घर-घर के सिलेंडर पहुंचाया। महिलाओं को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत तीन लाख आवास दिए गए। स्वावलंबन योजना लाई गई ताकि पर महिलाएं आत्मनिर्भर बन सकें और सेल्फ हेल्प ग्रुप के जरिए आमदनी कर सकें।
इसका नतीजा यह हुआ कि इन राज्यों के चुनाव में भाजपा को महिलाओं का भरपूर समर्थन मिलता देखा गया। चुनावी रैलियों में महिलाओं की भारी भीड़ उमड़ी। यह भीड़ सिर्फ रैली तक ही सीमित नहीं रही बल्कि भाजपा इन्हें ईवीएम तक पहुंचाने में भी कामयाब रही।
जनजातीय विकास
जिस दिन 16 फरवरी को त्रिपुरा में मतदान किया जा रहा था उस दिन दिल्ली में प्रधानमंत्री आदि महोत्सव का उद्घाटन कर रहे थे। यह महज़ एक संयोग नहीं था।
दरअसल, मेघालय-नागालैंड पूर्वोत्तर भारत के ऐसे राज्य हैं, जहां की जनसँख्या का बड़ा हिस्सा आदिवासी हैं। वहीं त्रिपुरा की 32 प्रतिशत आबादी आदिवासी है। भाजपा के प्लान नार्थ-ईस्ट में आदिवासियों का विकास वर्षों पहले से शामिल रहा है। अटल बिहारी बाजपेई सरकार ने सबसे पहले आदिवासियों के लिए अलग मंत्रालय एवं अलग बजट की व्यवस्था की थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी प्राथमिकता को आगे बढ़ाया जिसका सबसे बड़ा उदाहरण राष्ट्रपति पद के तौर पर पहली आदिवासी महिला श्रीमती द्रौपदी मुर्मू की नियुक्ति के रूप में देखा गया।
इसके साथ जनजातीय समुदाय का बजट 21 हजार करोड़ से 88,000 करोड़ रुपए किया गया। देश में पहली बार जनजातीय गौरव दिवस के रूप में भाजपा ने जनजातीय समुदाय को उपहार दिया।
यही कारण रहा कि त्रिपुरा के चुनाव में टिपरा मोथा के प्रद्योत विक्रम देव बर्मन की मौजूदगी और उनके वादों के बावजूद भाजपा आदिवासी समुदाय के बीच अच्छी पकड़ बनाये रखा। वही टिपरा मोथा है जिसने आदिवासी समुदाय को एक साथ जोड़कर ग्रेटर टिपरालैंड नामक अलग राज्य की बात कही थी।
ज्ञात हो कि कुछ महीने पहले ही गुजरात में भाजपा को प्रचंड जीत मिली उसमें भी जनजातीय समुदाय ने बहुत बड़ा योगदान दिया।आदिवासियों के लिए आरक्षित 27 सीटों में से 24 भाजपा ने जीती थी।
पीएम मोदी का पूर्वोत्तर से विशेष प्रेम
सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अपने 8 साल के कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने 50 से अधिक बार पूर्वोत्तर का दौरा किया। सामाजिक स्तर पर वर्षों से उपेक्षित राज्यों में सिर्फ योजनाओं के विस्तार से ही बदलाव नहीं लाया जा सकता था। पूर्वोत्तर के राज्यों को अन्य राज्यों से जोड़कर पूरे भारत को एक जनभावना में पिरोना आवश्यक था। इसका कार्य किया स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने। किसी क्षेत्र के लोगों से जुड़ने का सबसे अच्छा और आसान तरीका होता है उनके ही रूप में ढल जाना।
“नॉमॉश्कार!
खुलुमखा!
माता त्रिपुरासुन्दरीर पून्यो भुमिते
एशे आमि निजेके धोंनयो मोने कोरछी।
माता त्रिपुरासुन्दरीर ऐइ पून्यो भूमिके अमार प्रोनाम जानाइ”
यह प्रधानमंत्री द्वारा त्रिपुरा में दिए गए भाषण के अंश हैं। ऐसे ही अक्सर वह अपने भाषणों में स्थानीय भाषा के शब्दों का प्रयोग करते हैं। इसके अलावा सांस्कृतिक विविधिता लिए पूर्वोत्तर की संस्कृति को प्रधानमंत्री ने अपनाया और बढ़ावा दिया। इसकी झलक प्रधानमंत्री की जनसभाओं में देखी गयी जब वह पारम्परिक पोशाक में नज़र आये।
पूर्वोत्तर के राज्यों के प्रति प्रधानमंत्री मोदी के इस व्यक्तिगत प्रेम ने भाजपा की छवि को मजबूत करने का कार्य किया। यही कारण था कि इन चुनावों में प्रधानमंत्री या गृहमंत्री अमित शाह जहाँ भी जनसभा करने जाते विशाल भीड़ उन्हें सुनने पहुंच जाती।
उग्रवाद एवं अलगाववादी से मुक्ति
प्रधानमंत्री अपने भाषण में कहते हैं “डबल इंजन सरकार बनने से पहले तक सिर्फ दो बार नॉर्थ-ईस्ट की चर्चा होती थी जब एक चुनाव होते थे और दूसरा जब कोई हिंसा की घटना होती थी।”
दशकों से पूर्वोत्तर उग्रवाद, चुनावी हिंसा और अलगाववाद का साक्षी रहा है जिससे यहां के राज्यों में वर्षों तक अशांति ही रही। ऐसे में सरकार के साथ-साथ इन राज्यों के निवासी भी शांति स्थापित करना चाह रहे थे।
चुनाव प्रचार के दौरान एक ग्रामीण का बयान सामने आया। उन्होंने कहा कि पहले यहां बमबारी की आवाज ही सुनाई देती थी अब हवाई जहाज के उड़ान भरने की आवाज सुनाई देती है। शायद वह व्यक्ति पूर्वोत्तर राज्य के लिए शांति का महत्व समझ चुके थे। यही महत्व समझा केंद्र सरकार ने!
8 साल पहले के पूर्वोत्तर और आज के पूर्वोत्तर की तुलना करें तो हम पाते हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों के कई जिले AFSPA मुक्त हुए। उग्रवाद में कमी आयी है कई लोग जो उग्रवाद की तरफ मुड़ गए थे वह अब मुख्यधारा में जुड़ चुके हैं।
उग्रवाद की घटनाओं में ‘70%’ से ज्यादा की कमी आई है। सुरक्षाकर्मियों पर हमलों की घटनाओं में ‘60%’ की कमी आई है, जहां तक नागरिक मौतों का संबंध है, यह 90% कम हो गई है और लगभग 8,000 युवाओं ने उग्रवाद का रास्ता छोड़कर मुख्यधारा में शामिल होने के लिए आत्मसमर्पण किया है।
इसका परिणाम यह हुआ कि पूर्वोत्तर में शांति की लहर के साथ भाजपा के डबल इंजन की लहर भी चल गयी। पूर्वोत्तर में पिछले वर्षों में हुए विधानसभा चुनाव और इन 3 राज्यों के चुनाव परिणामों के विश्लेषण का एक मुख्य बिंदु यह है कि
भाजपा द्वारा बेहतर नेतृत्व को अवसर दिया जाना
इसमें सबसे मुख्य नाम है असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा का।
सरमा पहले कांग्रेस पार्टी में थे लेकिन उपेक्षा के कारण भाजपा में आए। भाजपा ने भी उन्हें हाथों हाथ स्वीकार किया और असम में जीत दर्ज़ करने के बाद उन्हें तुरंत मुख्यमंत्री बना दिया गया। भाजपा उनकी शैली और लोकप्रियता से वाकिफ थी। इसी लोकप्रियता को भाजपा ने आधार बनाया और उन्हें नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस का अध्यक्ष बना दिया गया। इस राजनीतिक मोर्चे का उद्देश्य पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों से जुड़ने के साथ-साथ गैर-कांग्रेसी दलों को एकजुट करना भी है।
उम्मीद के अनुसार हिमंता इस मोर्चे में अन्य स्थानीय नेताओं को साथ ले आये गए जिससे भाजपा को मेघालय और नागालैंड में सरकार बनाने में मदद मिली।
ऐसे ही दूसरे नेता हैं त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक साहा।
वह 6 साल पहले कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए और प्रभावशाली नेता बनकर उभरे। जिसके बाद उन्हें त्रिपुरा का मुख्यमंत्री बनाया गया। यह उनकी विश्वसनीयता ही थी कि भाजपा ने बिप्लब देव के बाद नए मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें चुना और यह चुनाव भी उनके नेतृत्व में लड़ा गया।
ऐसा ही अरुणाचल प्रदेश में देखा गया जहां वर्ष 2016 में कांग्रेस में रहे पेमा खांडू ने कांग्रेस छोड़ दी थी। भाजपा ने उनकी उपयोगिता को समझा और उन्हें भाजपा में शामिल कर दिया जिसके बाद वर्ष 2019 में पेमा खांडू के नेतृत्व में भाजपा ने अरुणाचल प्रदेश में ऐतिहासिक जीत दर्ज की।
साथ ही केंद्र सरकार ने अपने मंत्रिमंडल में पूर्वोत्तर राज्य से चुने गए सांसदों को अहम मंत्रालय देने शुरू किए। किरण रिजिजू पूर्वोत्तर के प्रतिनिधि के तौर पर सरकार का एक बड़ा चेहरा बन चुके हैं।
इन सभी बदलावों का असर पूर्वोत्तर राज्यों के क्षेत्रीय दलों की लीडरशिप पर देखा गया जहां वह पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन करते थे अब उन्होंने कांग्रेस को किनारे कर भाजपा के डबल इंजन में शामिल होने का फैसला कर दिया है
डबल इंजन तो कांग्रेस के राज में भी रहा जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार और पूर्वोत्तर के राज्यों में भी कांग्रेस शासन कर रही थी लेकिन जिस सांस्कृतिक विविधता को अन्य दलों ने सिर्फ राजनीतिक अस्थिरता के लिए इस्तेमाल किया भाजपा ने उस विविधता को अपना हथियार बनाया और आज पूर्वोत्तर को अपने एक मजबूत गढ़ के रूप में स्थापित कर दिया है।
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले हुए इन विधानसभा चुनाव परिणामों ने संदेश दे दिया है। चुनाव परिणाम के बाद ईवीएम पर सवाल उठाने वाले दलों को यह संदेश समझना चाहिए।