हाल ही में हिमाचल और गुजरात विधानसभा तथा दिल्ली नगर निगम चुनाव समाप्त हुए ही थे कि अब अखबार वर्ष 2023 के चुनावों की तैयारी वाली ख़बरों से पटे हुए हैं। जब भी ऐसा होता है, ‘एक देश, एक चुनाव’ की मांग सामने आ जाती है।
वर्ष 2023 में पूर्वोत्तर के तीन राज्यों, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान सहित कुल 9 राज्यों में चुनाव प्रस्तावित हैं। इन चुनावों को भारतीय जनता पार्टी के लिए बड़ी परीक्षा माना जा रहा है। एक तरफ राज्यों में सत्ता बनाए रखने की चुनौती है तो दूसरी ओर इन चुनावों के अगले ही वर्ष 2024 में लोकसभा चुनाव हैं जो देश की दीर्घकालीन नीति एवं नियति तय करेंगे।
रणनीतिक तौर पर भाजपा ने कई कदम उठाये जिनसे उसको लाभ ही हुआ। इसका परिणाम गुजरात, हिमाचल और दिल्ली नगर निगम में देखा गया। हिमाचल प्रदेश में हारने के बावजूद भाजपा और कांग्रेस के वोट शेयर में एक प्रतिशत से भी कम का अंतर रहा।
इन रणनीतिक कदमों के दूरगामी परिणाम वर्ष 2024 में भाजपा को अन्य दलों से एक कदम आगे रखने में मददकारी साबित होने जा रहे हैं। आइए नजर डालते हैं इन पहलुओं पर।
नई चुनावी परम्परा
रेवड़ी कल्चर के इस दौर में जहाँ कई दलों की राजनीति का आधार मुफ्त वादों पर आधारित है, ऐसे में वर्ष 2022 में भाजपा ने अलग स्टैंड लिया और विकासवाद की राजनीति को आगे किया, जिसका असर घोषणापत्र में परिलक्षित हो रहा है। पार्टी जहाँ गुजरात में ओलंपिक आयोजन सहित विकास के मुद्दों पर चुनाव लड़ रही थी। वहीं हिमाचल में OPS (पुरानी पेंशन स्कीम) के नकरात्मक परिणाम समझकर अर्थव्यवस्था से कोई समझौता नहीं किया।
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भाजपा के इस फैसले में अन्य राज्यों के वोटर्स के लिए भी सन्देश निहित था कि सत्ता हेतु एक दल देश की नीतियों को प्रभावित नहीं करेगा। देश की नीतियों के साथ-साथ भाजपा ने अपने संगठन की नीति में भी बदलाव किया है।
संगठन की नई नीति
भाजपा ने उम्मीदवारों के चयन में ‘भावनाओं’ को दरकिनार करते हुए आंतरिक सर्वे के आधार पर टिकट वितरण किये। पार्टी ने स्पष्ट किया कि मात्र अधिक उम्र और लम्बे समय तक पद धारण करना उम्मीदवारी निर्धारित नहीं कर सकेगा। गुजरात में नई पीढ़ी के नेताओं को आगे किया गया और हिमाचल में बागी होने के डर को दरकिनार किया गया।
यह पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी एक सन्देश था कि पार्टी के लिए जीत का अब कोई विकल्प नहीं है। हालाँकि ऐसा नहीं दिखा कि सरकार में रहते हुए पार्टी ने जीत-हार को देख कर नीतियाँ तय की हों।
सदियों से लंबित मुद्दों पर कार्य
सरकार ने राजनीतिक नफा नुकसान को समझे बगैर ‘अछूत’ समझे जाने वाले मुद्दों पर न केवल चर्चा की बल्कि सुधारात्मक कदम भी उठाये। अछूत इसलिए क्यों किहर सत्ताधारी दल को इन मुद्दों से वोट बैंक छिटकने का डर बना रहता था।
राजनीतिक विश्लेषकों को लग रहा था कि कृषि सुधार के तहत लाये गए कानूनों पर विरोध के बाद सरकार ऐसे मुद्दों पर शायद ही एक्शन में दिखे लेकिन सभी अनुमानों को झूठा साबित करते हुए केंद्र सरकार ने लम्बे समय से सेना को आधुनिक बनाने की मांग को पूरा किया और इस सुधारात्मक क्रम में अग्निवीर योजना को लॉन्च किया।
कुछ हिस्सों में दंगे जैसी घटनाओं का दावा कर कई विपक्षी दलों ने इसे विरोध प्रदर्शन साबित करने का प्रयास किया लेकिन पार्टी सुरक्षा के मोर्चे पर बैकफुट पर आने के मूड में नहीं दिखी। सरकार के इस रूख से बाद देश में जनसँख्या नियंत्रण कानून की आस भी जगी है जिस जनसंख्या नियंत्रण की बात पर अन्य दल ख़ामोशी ओढ़ लेते हैं।
भाजपा को जनता की इन उम्मीदों से 2024 में संसद तक पहुँचने में मदद मिल सकती है। वैसे तो संसद तक पहुँचने में उत्तरप्रदेश की 80 लोकसभा सीटें अहम भूमिका निभाती हैं लेकिन ऐसा नहीं दिखा कि सरकार ने लोकसभा सीटों के वितरण के आधार पर राज्यों में लोक कल्याणकारी योजनाएं लॉन्च की हों।
इसका उदाहरण है पूर्वोत्तर, जहाँ प्रतिनिधत्व के तौर पर लोकसभा की चंद सीटें हैं लेकिन सरकार ने पूर्वोत्तर के लिए एक अलग ही प्रयास किया जो दिखाई देता है।
‘जब एस्केलेटर की जरूरत थी तो वे रिवर्स गियर खींच रहे थे’: पीएम मोदी
नेशनल कैपिटल कनेक्टीविटी प्रोजेक्ट्स एवं पीएम डिवाइन योजना के तहत अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट्स से लेकर नई रेलवे परियोजनाएं,हज़ार करोड़ों के राष्ट्रीय राजमार्गों से लेकर देश की सबसे लम्बी सुरंग तक, यह सब पूर्वोत्तर राज्यों में हो रहा है। वर्षों से लंबित राज्यों के बीच सीमा विवाद भी सुलझाए गए।
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हालाँकि सामाजिक स्तर पर वर्षों से उपेक्षित राज्यों में सिर्फ योजनाओं के विस्तार से ही बदलाव नहीं लाया जा सकता था। पूर्वोत्तर के राज्यों को अन्य राज्यों से जोड़कर पूरे भारत को एक जनभावना में पिरोना आवश्यक था।
किरण रिजिजू और हिमंत बिस्वा सरमा जैसे पूर्वोत्तर के नेताओं को संगठन एवं सरकार में अहम भूमिकाएं दी गयी।
स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने भी वहां की संस्कृति को अपनाया। इसकी झलक प्रधानमंत्री की जनसभाओं में देखी गयी जब वह पारम्परिक पोशाक में नज़र आये।पूर्वोत्तर के राज्यों के प्रति प्रधानमंत्री मोदी के इस व्यक्तिगत प्रेम ने भाजपा की छवि को मजबूत करने का कार्य किया।
पार्टी की एक छवि जो साम्प्रदायिकता के आरोपों के घेरे में सीमित प्रतीत होती थी, इस वर्ष भाजपा ने उसमें सफलतापूर्वक बदलाव करने का प्रयास किया।
पार्टी की साम्प्रदायिक मुद्दों से दूरी
यह एक चुनावी रणनीति हो सकती है लेकिन विविधता में एकता के सूत्र के तहत राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से यह उचित कदम प्रतीत होता है। पार्टी ने किसी भी धर्मविशेष के मुद्दों से दूरी बनाई और पार्टी लाइन को फॉलो करते हुए मंत्री, सांसद, विधायक अनावश्यक बयानबाज़ी से बचते हुए दिखे।
भाजपा ने पीएम के पसमांदा मुसलमानों के बीच जाने के निर्देश को अपनाया और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में इसका असर देखा भी गया। जहाँ मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर वर्षों बाद भाजपा ने जीत दर्ज की। सभी समुदायों के बीच पार्टी की इस नयी छवि का परिणाम आगामी लोकसभा चुनावों में भी देखने को मिल सकता है।
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पार्टी जिस लैब में यह प्रयोग कर रही थी वो एकाएक तैयार नहीं हुई बल्कि वर्षों से जारी चिंतन इस वर्ष 2022 में क्रियान्वन हो रहा है। इसका एक उदाहरण है पंचप्रण।
‘गुलामी से मुक्ति’ की शुरुआत
इस वर्ष 15 अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में विकसित भारत की कल्पना और ‘गुलामी से मुक्ति’ सहित ऐसे पांच प्रणों का आह्वान किया जिसके तहत देश का वर्ष 2047 तक का एक रोड मैप तय किया गया। अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति पर हमेशा बात होती आयी लेकिन लोगों की भावनाओं में यह बदलाव दिखा नहीं क्योंकि यह सिर्फ भाषणों तक ही सीमित रहा। इस बार फर्क यह था कि गुलामी से मुक्ति की बात भाषणों से आगे बढ़कर सरकार के कामों में देखी गई।
राजपथ का नाम बदलकर कर्तव्य पथ किया गया, इंडिया गेट की ग्रैंड कैनोपी में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भव्य प्रतिमा को स्थापित किया गया और सितम्बर माह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडियन नेवी के ध्वज से गुलामी के प्रतीक को हटाया।
विपक्षी दल चाहे इस बात को नकार लें लेकिन इन कार्यों का प्रभाव यह हुआ कि पहली बार अपनी विरासत एवं भारतीयता पर गर्व करने को लेकर देशवासियों के बीच एक जनभावना का संचार हुआ है। विरोधियों को लेकर भी भाजपा ने अपनी कार्यशैली में बदलाव किया है।
विरोधियों से उचित दूरी
राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा कन्याकुमारी से वर्तमान में दिल्ली पहुँच चुकी है। भाजपा की तरफ से इस यात्रा को अधिक तवज्जो नहीं दी गयी, न ही पदाधिकारियों ने और न ही सरकार के मंत्रियों ने, राहुल गाँधी की इस यात्रा पर कोई ख़ास टिप्पणी नहीं की।
ऐसा ही कुछ चुनावों के दौरान भी देखा गया जब गुजरात चुनाव में विपक्षियों द्वारा ‘नीच’, ‘रावण’ जैसे शब्द छोड़े गए पार्टी ने अपनी ओर से जवाब देने की बजाय इसे जनता पर छोड़ा और जनता ने वोट के जरिए इसका जवाब भी दिया।
शायद भाजपा भी इस बात को मानती है कि पब्लिसिटी नकारात्मक या सकारात्मक नहीं बल्कि सिर्फ पब्लिसिटी होती है। इसलिए जब भी पीएम मोदी के खिलाफ देश में कोई नेता स्वयं को विपक्ष के चेहरे के तौर पर स्थापित करना चाहता है, भाजपा उसे भाव न देते हुए चर्चा को ही समाप्त कर देती है।
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यह सभी रणनीतियां पार्टी के किस थिंक टैंक में तय की जाती हैं यह कहना मुश्किल है, हालाँकि इन्हीं रणनीतियों के आधार पर ही भाजपा अगले कई वर्षों तक शासन करने के आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रही है। शायद यही आत्मविश्वास है कि पार्टी संगठन एवं हाईकमान ने एक नई परिपाटी शुरू की है
सत्ता जरुरी या जनता ?
हाल ही में भाजपा ने गुजरात में पूरे मंत्रालय में ही फेरबदल कर दिया था। इससे पहले वहां मुख़्यमंत्री पद पर भी परिवर्तन किया था। ऐसा ही उत्तराखंड में देखा गया जहाँ ठीक चुनावों से पहले दो मुख्यमंत्री बदले गए।
जनता के फीडबैक को मद्देनज़र रखते हुए इतना बड़ा बदलाव करने की हिम्मत शायद ही अन्य दल दिखाएं। ‘पद पर बने रहने के लिए काम जरुरी है’, अपने मुख्यमंत्रियों में ऐसा सन्देश देकर भाजपा ने स्पष्ट कर दिया कि जनता ही जनार्दन है।
वर्ष 2024 की राह?
इन सभी बिंदुओं का विश्लेषण करने के बाद यह ज्ञात होता है कि विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा वर्तमान में राजनीतिक शीर्ष पर होने के बावजूद जीत की भूख बनाए हुए तो है। साथ ही वर्ष 2047 के ब्लूप्रिंट पर अभी से कार्य भी शुरू हो गया है।
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भाजपा की अब तक की सफलता के पीछे हमेशा ‘चुनावी मोड’ में सक्रिय रहना नहीं है। चुनाव के लिए तो हर दल सदैव तैयार ही रहता है लेकिन भारतीय जनता पार्टी की सरकार दीर्घकाल में देश का हित देख कर इस प्रकार कार्य करती है कि जनता स्वयं ही उस पहल से जुड़ जाती है।
इस उदहारण से समझ सकते हैं कि गरीबी हटाओ में गरीब को मकान या राशन देकर आप कुछ समय के लिए उसकी गरीबी मिटा सकते हो लेकिन वह पूर्ण तरीके से तभी गरीबी से बाहर निकलेगा जब वह स्वयं को सक्षम बनाकर रोजगार की तलाश करेगा।
बीते वर्षों में देश के साथ यही हुआ जब पार्टियों ने सिर्फ सत्ता के उद्देश्य से वादे किए और जनता को मात्र वोट बैंक ही समझा लेकिन अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इस वर्ष यह लकीर खींच ली है कि देश की सुरक्षा, अर्थव्यवस्था जैसे कुछ मुद्दों के साथ बिल्कुल समझौता नहीं किया जायेगा।
ऐसा प्रतीत होता है, भारत सरकार यह सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है कि देश को पहले इतना सक्षम किया जाए ताकि हम सामान्य मुद्दों की चर्चा से ऊपर उठकर एक नया वैचारिक स्तर तैयार करें।