सामाजिक एक्टिविस्ट शब्द फंडिग से एजेंडा प्रायोजित कार्यकर्ताओं की वजह से बदनाम जरूर हुआ है पर देश में उन उदाहरणों की भी कमी नहीं जब किसी आम आदमी ने अपने संघर्ष और जनकार्य के जरिए सरकार को प्रेरणा प्रदान की हो। सुलभ शौचालय के जरिए देश में स्वच्छता की क्रांति लाने का काम करने वाले बिंदेश्वर पाठक एक ऐसा ही नाम हैं जो स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश को अलविदा कह गए।
समाज शास्त्र में अपनी शिक्षा ग्रहण करने वाले बिंदेश्वर पाठक गांधी शताब्दी समिति से जुड़े और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में समाज के कई हिस्सों से रूबरू हुए। इस दौरान जातिवाद, हाथ से मैला ढ़ोने वाले और खुले में शौच के कारण महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखकर यह तस्वीर बदलने का निर्णय ले लिया। उनके द्वारा पहला सुलभ शौचालय 70 के दशक की शुरुआत में खोला गया। इससे पहले 1968 में ही वे ऐसी तकनीक लेकर आ चुके थे जो शुष्क शौचालयों की जगह ले सकती थी। इसके साथ ही शौचालय क्रांति, स्वच्छता क्रांति या पाठक जी का टॉयलेट मैन बनने का सफर शुरू हो चुका था।
समाज में स्वच्छता और जातिगत बंधनों से आजादी दिलाने का काम सरकार का था। औपनिवेशिकता से बाहर निकलकर पहला कार्य समाज को संगठित करके बुनियादी सुविधाएं मजबूत करने का था। सरकार जो कार्य करोड़ों के बजट से नहीं कर पा रही थी उसे पाठक जी न्यूनतम संसाधनों के साथ पूर्ण कर रहे थे। यह सरकारी मशीनरी की विफलता ही कही जाएगी न।
ऐसा नहीं था कि सरकार ने इन समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया था। देश में स्वच्छता बढ़ाने, मैला ढ़ोने से मुक्ति और खुले में शौच की समस्या हल करने के लिए आजादी के बाद से ही पंच वर्षीय योजनाओं और विशेष कार्यक्रमों के जरिए करोड़ों रूपए के बजट जारी किए जा रहे थे। पहली पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत स्वास्थ्य और स्वच्छता को प्राथमिकता के रूप में पहचान कर 140 करोड़ रुपये का बजट स्वीकृत किया गया था। दूसरी पंचवर्षीय योजना में शहरी जल आपूर्ति और स्वच्छता के लिए 53 करोड़ रुपये, ग्रामीण जल आपूर्ति और स्वच्छता के लिए 28 करोड़ रुपये और नगर निगमों वाले शहरी क्षेत्रों के लिए 10 करोड़ रुपये का विशेष अनुदान आवंटित किया गया।
दोनों ही योजनाओं में लक्षित परिणाम प्राप्त न होने के कारण आखिरकार सरकार को युद्ध और आर्थिक विकास का हवाला देकर तीसरी पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण स्वच्छता के लिए परिव्यय घटाकर 13 करोड़ रुपये कर देना पड़ा। जाहिर है सरकार के पास बजट तो था पर दृष्टिकोण और कार्यान्वयन की कमी रह गई। जिस कार्यबल और चुनौतियों का हवाला देकर सरकार अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल साबित हो रही थी उसी दौरान पाठक जी पोर-फ्लश टॉयलेट तकनीक के जरिए गांवों में हाथ से मैला ढ़ोने वालों को सम्मानीय जीवन देने के लिए काम कर रहे थे।
चुनौती भरे काम करने के लिए केवल ज्ञान की ही नहीं बल्कि दृढ़संकल्प से काम करने की आवश्यकता होती है। यह उनका मानना था और इसी संकल्प के साथ उन्होंने काम भी किया।
पाठक जी ने मात्र 75 रुपए की राशि से अपने अभियान का आगाज किया। इसमें राजनीतिक छल नहीं बल्कि सामाजिक सुधार का संकल्प था। दिलचस्प बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद से देश में कांग्रेस का शासन था जो गरीबों और दलितों के हक की बात करती थी। सर्वप्रथम युगदृष्टा नेहरू जी आए। उनके बाद इंदिरा जी और उनके बाद राजीव गांधी। सभी ने गरीबी को मिटाने का नारा दिया। पिछड़ों पर राजनीति की। पर इस प्रश्न का जवाब कौन देगा कि जब लोग हाथ से मैला ढ़ो कर सेप्टिक टैंक में अपनी जान गंवा रहे थे तो पिछड़ों की हितैषी सरकार ने उनके लिए क्या कदम उठाए?
स्वच्छता और जातिवाद के नाम पर विदेशी मीडिया के प्रोपगेंडा और देश की छवि सुधार पर सरकार को अधिक गंभीरता बरतनी चाहिए थी। सरकार को क्या यह डर रहा कि अगर गरीब गरीबी से बाहर आ गया और आदमी सेप्टिक टैंक से तो वोट किस के नाम पर मांगे जाएंगे?
उपनिवेशिकों द्वारा बोई गई जातिवाद की जड़ों में कुंठा बोने का काम सरकार ने किया। समाज में सुधार सरकार के द्वारा आते और समय से आते तो संभव था कि देश का पिछड़ा वर्ग स्वयं को मुख्यधारा से जोड़ने में सहज महसूस करता।
पाठक जी के प्रयास इसलिए भी सहारनीय है क्योंकि ब्राह्मणवाद और जातिवाद के सामाजिक संघर्ष के बीच वो कथित रूप से निचली जातियों की आवाज बनें। जनकार्य में जातिवाद का स्थान भी नहीं है। इसके बाद भी राजनीतिक जिम्मेदारी जातिवाद का कार्ड खेलकर और पिछड़ों को तस्वीरों और नारों में स्थान देने के स्थान पर उनको सम्मानजनक जीवन उपलब्ध करवाने की थी। यही कारण है कि जब तक मैला ढ़ोने वाले तस्वीरों का हिस्सा बने रहे, उन्हें योजनाओं का लाभ नहीं मिला और वे सिर्फ राजनीतिक प्रचार सामग्री बनकर रह गए।
पाठक जी ने 50 वर्षों तक अपना जीवन सामाजिक कार्य को दिया और सुलभ शौचालय को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ले गए। उनके सामाजिक प्रयासों को सरकारी सहयोग स्वच्छ भारत अभियान से भी मिला जिसको पाठक जी ने पूर्ण समर्थन दिया और प्रधानमंत्री मोदी पर ‘द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड’ नामक पुस्तक भी लिखी। जिसमें उन्होंने स्वच्छ भारत को लेकर प्रधानमंत्री मोदी के विजन की प्रशंसा भी की है।
बेशक पाठक जी ने स्वच्छता की क्रांति लाने के लिए काम अकेले ही शुरू किया था। उन्हें सरकारी सहयोग मिलता तो देश की आजादी के 7 दशक बाद शायद स्वच्छ भारत अभियान की जरूरत नहीं पड़ती। सरकारी सहयोग का परिणाम क्या निकलकर आता है इसके लिए आंकड़े गवाह हैं। जहां जनवरी 1993 से 2010 के बीच सीवर की सफाई के दौरान लगभग 920 लोगों की मौत हुई थी। वहीं संसद की जानकारी के अनुसार वर्ष 2017 से 2021 तक देश में हाथ से मैला ढोने के कारण कोई मौत नहीं हुई। यह सफर सरकारी सहयोग और एक कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता के प्रयासों को दर्शाता है।
सुलभ शौचालय ही नहीं पाठक जी ने शुद्ध जल, प्लास्टिक मुक्त पर्यावरण, वृंदावन की विधवाओं और शिक्षा के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व काम किया है। एक साधारण परिवार से निकलकर देश को जातिवाद की बेड़ियों से मुक्त करने और स्वच्छता की क्रांति लाने के लिए पाठक जी एक सामाजिक कार्यकर्ता नहीं बल्कि संपूर्ण संस्था के रूप में पहचान स्थापित कर गए हैं।
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