राजनीतिक तौर पर पूरा भारत ही करवट बदल रहा है लेकिन जिस राज्य ने देश की राजनीति में आने वाले परिवर्तन को सबसे पहले पहचाना वो बिहार था। इसीलिए २०१४ के बाद बिहार की राजनीति में हो रहा परिवर्तन बाकी देश में हो रहे परिवर्तन जैसा दिखने पर भी हमेशा की तरह विशेष है। बिहार पूर्वी भारत में वो राज्य है जहाँ हमेशा से राजनीतिक विचारधाराएं आपस में टकराती रही हैं और नयी राजनीति का उदय होता रहा है। आज़ादी के पूर्व बिहार में चम्पारण से ही गाँधी की विचारधारा जमीन पर उतरी। आज़ादी के बाद बिहार १९७० से ही जाति संघर्ष और वर्ग संघर्ष के बीच के संघर्ष में कौन सा विचार रहेगा, इसको तय करने की भूमि बना रहा। कुर्मी, यादव, राजपूत, भूमिहार जैसे भूमिधारी वर्गों की निजी जाति सेनाएं वामपंथ के वर्ग संघर्ष आधारित विचार से बिहार में ही टकरायीं और इस खूनी टकराव के संश्लेषण से लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे पिछड़े वर्ग के कुलीनों का राजनीतिक समाजवादी मॉडल निकला।
बिहार में फिर विचारधाराएं टकरा रही हैं, इसमें कोई शक नहीं है और इस बार समाजवाद के पैरोकारों का सामना दक्षिणपंथी समाजवाद से है लेकिन १९७०-८० के दशक की भांति ही इस बार भी बिहार परिवर्तन की दिशा को लेकर संशय में है और कोई स्पष्ट मार्ग निकलता अभी तक तो नहीं दिख रहा है। बिहार में वैचारिक संशय किस हद तक है, इस बात का प्रमाण ये है कि पिछले दो दशक से बिहार की राजनीति पर स्थापित नीतीश कुमार पिछले एक दशक से दक्षिणपंथी समाजवादी गठबंधन से वाममार्गी समाजवादी गठबंधन के बीच झूला झूल रहे हैं।
नीतीश कुमार जैसा मंझा हुआ राजनीतिज्ञ लगभग आधी शताब्दी तक पसरे अपने राजनीतिक करियर में इतना भ्रमित कभी नहीं दिखा जितना पिछले एक दशक में दिखा है। एक दशक पहले तक नीतीश ने जब चाहा पाला बदला लेकिन पूरे आत्मविश्वास के साथ और कोई नीतीश को पलटू कुमार नहीं कह सका लेकिन पिछले एक दशक में उनके हर राजनीतिक साथी ने उनको खुलेआम पलटू कुमार की उपाधि से नवाज़ा है। नीतीश पाले खींचने और बदलने में इतने माहिर थे कि बीजेपी के साथ गठबंधन में रह कर ही उन्होंने बीजेपी में दो पाले कर डाले थे जिसमें एक पाला नरेंद्र मोदी की भाजपा का था और दूसरा नरेंद्र मोदी के बिना भाजपा का।
उस ज़माने में बीजेपी के भीतर ही बने पालों को धर्म निरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के आधार पर चिन्हांकित किया जा सकता है और सामान्य तौर पर लोग उस ज़माने में बीजेपी के भीतर के वैचारिक विभाजन को ऐसे ही देखते रहे हैं लेकिन बाजपेयी साहब और मोदी साहब के बीच के समय में बीजेपी में बने इन पालों को देखने का एक और तरीका है और वो ये है कि समझौते की शर्तें कौन तय कर रहा था ये देखा जाए। नीतीश ने बीजेपी को ऐसी जगह खड़ा किया जहाँ समझौते की शर्तें भाजपा नहीं बल्कि सहयोगी दल तय करते थे चाहे वो शिव सेना रही हो या नीतीश कुमार रहे हों। इस दृष्टि से देखने पर ये समझ आता है कि नीतीश कुमार ने भाजपा को तात्कालिक रूप से राजनीतिक नुकसान भले न पहुंचाया हो लेकिन वैचारिक दृष्टि से भाजपा को जरूर बाँट रखा था, जिसके राजनीतिक परिणाम २००९ के चुनावों में दिखाई दिए जब बिहार को छोड़ भाजपा विंध्य पर्वत के उत्तरी क्षेत्रों से जिसमें गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य आते हैं, लगभग साफ़ हो गयी। इस प्रकार २००२ से २०१३ के मध्य भाजपा के राजनीतिक अवसान जो सीधे-सीधे वैचारिक दुविधा का परिणाम था, में नीतीश कुमार की भूमिका को नज़रअंदाज करना मूर्खता होगी। उसी नीतीश कुमार को आज हर वर्ष पाला बदलते देखना भारतीय राजनीति में आये परिवर्तन की विशालता का संकेत देता है।
भारत में समाजवादी दर्शन हमेशा जाति के मुद्दे पर राजनीति करता रहा है और इस प्रकार डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के अनुयायी समाजवादी दल वामपंथी दलों से अलग थे हालाँकि प्रक्रिया के स्तर पर दोनों विचारधाराएं मोटा-मोटी जातियों और वर्गों के मध्य संघर्ष के माध्यम से ही विकास के प्रश्न को देखती रहीं। बिहार के भीतर ही १९७० के दशक से जाति आधारित समाजवादी और वर्ग आधारित साम्यवादी विचारों में खूनी संघर्ष प्रारम्भ हुआ और वहां से जो दो प्रवृत्तियां ९० के दशक में विकसित होकर निकलीं उसमें से एक प्रवृत्ति के नेतृत्व में नीतीश कुमार भी शामिल थे। जॉर्ज फर्नांडेस के साथ मिलकर नीतीश कुमार ने १९९० के मध्य में समाजवाद को जो नयी दिशा दी, उसने केवल पूर्वी भारत में ही नहीं बल्कि पूरे देश की राजनीति में आमूलचूल परिवर्तन किये और बीजेपी को सत्तासीन किया। इस नए समाजवाद ने पूर्व की हठवादी समाजवादी प्रवृत्तियों के इतर आर्थिक उदारीकरण के माहौल में समाजवादी सिद्धांतों और प्रवृत्तियों की प्रासंगिकता को स्थापित करने का प्रयास किया और इस प्रकार न केवल समाजवाद को एक विचारधारा के रूप में प्रासंगिक बनाये रखा बल्कि उसमें नवाचार भी किया।
समाजवाद की दूसरी प्रवृत्ति के नेता लालू प्रसाद यादव रहे, जिन्होंने सामाजिक न्याय को आर्थिक विकास के ऊपर तरजीह दी और इस प्रकार रूढ़िवादी समाजवाद के साथ खड़े रहे जिसमें आर्थिक विकास एक ऊँची जातियों द्वारा संचालित बुर्जुआ अवधारणा थी और पिछड़ी और दलित जातियों के लिए महत्वहीन थी। समय के साथ यह तथ्य स्थापित हो गया कि समाजवादी राजनीतिक सिद्धांतों में नवाचार करने वाले जॉर्ज फर्नांडेस की सोच सही दिशा में थी और नीतीश कुमार का पिछले दो दशक से बिहार की राजनीति का सिरमौर रहना इसका प्रमाण है।
नीतीश कुमार द्वारा पिछले एक दशक में दिखाई गयी बेचैनी इस बात का संकेत है कि नीतीश कुमार वर्तमान हालातों में समाजवाद के राजनीतिक सिद्धांत में कोई नवाचार करने में असफल रहे हैं। जॉर्ज फर्नांडेस द्वारा सोची गयी जिस राजनीतिक नवाचार की सड़क को पकड़ कर वो यहाँ तक पहुंचे हैं, वो सड़क अब जिस दिशा में जाती है उसको नीतीश कुमार सांप्रदायिक कहते रहे हैं। इसका मतलब ये निकलता है कि नीतीश कुमार ने स्वीकार कर लिया है कि वो वैचारिक स्तर पर गलत थे या उनको विचार की समझ नहीं थी। ये तो हुई एक बात जो नीतीश कुमार के निर्णय से निकलती है। दूसरी बात ये है कि ऐसा नहीं है कि नीतीश कोई रास्ता बनाने का प्रयास नहीं कर रहे लेकिन इस प्रयास में वे सिर्फ इस बात का प्रमाण दे रहे हैं कि राजनीतिक विचारक के तौर पर वो जॉर्ज फर्नांडेस के सामने बौने हैं और अपने बौनेपन को छिपाने के लिए ही उन्होंने किसी नए विचार या नेता को आजतक आगे नहीं बढ़ने दिया। अगर ऐसा न होता तो नीतीश कुमार के पास प्रशांत किशोर जैसा व्यक्ति था लेकिन नीतीश को ये डर था कि कहीं उनकी ऊँगली पकड़ कर वो उन्हीं को सत्ता से बाहर न कर दे। नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव के लड़कों को राजनीतिक तौर पर केवल इसलिए आगे बढ़ाते दिख रहे हैं क्योकि उनको पता है कि इन लड़कों में राजनीति के वैचारिक पक्ष को समझ पाने की काबिलियत नहीं है।
नीतीश कुमार की ये समझ कि समाजवादियों को भाजपा का उसी तरह विरोध करना चाहिए जैसे किसी ज़माने में वो कांग्रेस का किया करते थे, एक घिसापिटा विचार साबित हो रहा है और इसको घिसापिटा कहने के कारण हैं। पहला कारण तो ये है कि समाजवाद का मूल विचार सामाजिक न्याय ही अब बड़ी और प्रभावी मानी जाने वाली पिछड़ी जातियों की लड़ाई नहीं रह गया है बल्कि अब सामाजिक न्याय की लड़ाई संख्या और प्रभाव की दृष्टि से छोटी जातियों की लड़ाई हो गयी है जो मुख्यतः पिछड़े वर्ग की प्रभावी जातियों के विरुद्ध ही हिस्सेदारी के लिए लड़ रही हैं। पिछड़ा और दलित वर्ग में विभाजन की रेखा जो नीतीश कुमार ने वर्ग आरक्षण में विभाजन के आधार पर खींची थी, वो अब खाई बन चुकी है और न तो लालू प्रसाद यादव के भूरा बाल साफ़ करो जैसे नारे का राजनीतिक प्रभाव अब वो रह गया है जो ९० के दशक में हुआ करता था और न ही रामचरित मानस और ब्राह्मणों को गाली देकर किसी की राजनीति चमक पा रही है। अभी-अभी ही बागेश्वर धाम के बाबा के पटना में हुए प्रवचनों में उमड़ी भीड़ में अधिकांश संख्या पिछड़ी जाति के लोगों की थी जो पिछड़ों के संस्कृतकरण का संकेत है। पिछड़े और दलित जातिवाद पर खड़ी राजनीति का संघर्ष ब्राह्मणों को गाली देने से लेकर ब्राह्मण बनने तक की यात्रा पूर्ण कर चुका है। नीतीश कुमार पिछड़ों के राजनीतिक बाल्कनीकरण के जिम्मेदार हैं और अपनी इन असफलताओं को छुपाने के लिए ही वो लालू यादव की तरफ मुड़े हैं। ये ट्यूब से निकले टूथपेस्ट को फिर से ट्यूब में डालने जैसा प्रयास है। सवाल ये है कि क्या नीतीश का लालू के साथ मिलना पर्याप्त है, क्योंकि लालू प्रसाद खुद वामपंथी और कांग्रेस जैसी पार्टियों की बैशाखी पर खड़े हैं और ये बैशाखी खुद बहुत मजबूत नहीं दिख रही, क्योंकि लालू यादव को भी अपना समाजवादी मॉडल, जिसको कुछ लोग परिवारवाद और जंगलराज भी कहते हैं, बचाना है।
चुनावी राजनीति की दृष्टि से नीतीश लालू यादव के बनाये गठबंधन में एक नए सदस्य मात्र हैं, जिसके उतनी सीटों पर लड़ने में भी संशय है जितने पर वो पिछले लोकसभा चुनाव में लड़ी थी जबकि बीजेपी के पास बिहार की छोटी जातिवादी पार्टियों से गठबंधन करने के बाद भी लड़ने के लिए पहले से ज्यादा सीटें बची रहेंगी। कुल मिलाकर आज बिहार में लालू यादव के अतिरिक्त बीजेपी ही ऐसी पार्टी है जिसके पास बीस प्रतिशत से ज्यादा वोट शेयर है और नीतीश इस लड़ाई से लड़ाई शुरू होने के पहले ही बाहर हो चुके हैं। २०२४ के बाद नीतीश अगर हाशिये पर भी न दिखाई दें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।