“दारू तो बराबर मिलती है। कहीं न कहीं तो मिल ही जाती है। चाहे थैली मिले या फिर अंग्रेजी। प्रशासन एक तरफ से घेरती है, तो लोग दूसरी तरफ भागकर चले जाते हैं। आखिर लोग घर में तो बना नहीं रहे।”
ये शब्द मोतिहारी के निवासी उमेश राम के हैं, जिन्होंने वही जहरीली शराब पी, जिससे उनके भाई जटा राम समेत 30 से अधिक लोग की मृत्यु हो गई। वे खुशनसीब थे कि उनका नाम मृतकों की सूची में नहीं आया और वे यह बताने के लिए जीवित बच गए कि बिहार में शराबबंदी के सात साल बाद भी देशी-अंग्रेजी शराब बराबर मिल रही है।
आखिर यह कैसे सम्भव है? यह अन्दाजा लगाना भी बहुत कठिन काम नहीं है। इसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है, जब जहरीली शराब से होने वाली मौतों पर अगर राज्य के मुखिया यह बयान देते हैं कि “जो पियेगा, गड़बड़ पियेगा, मरेगा।” ऐसी संवेदनहीनता दर्शाती है कि शराबबंदी के दावे की जमीनी हकीकत कुछ और ही है।
हालाँकि अब नीतीश कुमार ने अपनी प्रवृत्ति के मुताबिक यू-टर्न लिया है और मृतक के परिवार वालों को 4 लाख रुपए मुआवजे की बात कही है लेकिन सवाल मुआवजे का नहीं सवाल शराबबंदी, उससे पैदा होने वाली समस्याओं और उन पर कार्रवाई का है।
आँकड़े क्या कहते हैं?
1 अप्रैल, 2016 को बिहार में शराबबंदी का ऐलान हुआ था। तब से लेकर अब तक जहरीली शराब से 199 लोगों की मौत हुई है और अगर इसमें संदिग्ध जहरीली शराब को जोड़ दें तो यह आँकड़ा 250 से भी पार जाता है। इसमें मोतिहारी में हुई हालिया मौंतों को नहीं जोड़ा गया है।
हालाँकि यह आँकड़ें सही हैं, इस बात पर भी संशय बना रहता है। इसका कारण है, छपरा में जब जहरीली शराब से मौंत हुई तो सरकार का आँकड़ा 42 था, जबकि मृतकों की संख्या 72 थी और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस ‘अंडर रिपोर्टिंग’ के लिए राज्य सरकार को फटकार भी लगाई थी।
बिहार के सुशासन बाबू जहरीली शराब बनाने वालों को लेकर त्वरित और कड़ी कार्रवाई की बात करते रहते हैं लेकिन पुलिस की रिपोर्ट नीतीश कुमार के बयानों का समर्थन करती नहीं दिखाई देती।
अगर सही में कड़ी कार्रवाई होती तो वर्ष 2021 में 64 मौंते न हुई होती और 2022 में 114। अगर वाकई में कार्रवाई हो रही होती तो इन 84 महीनों में कई लोगों को सजा मिल चुकी होती। हालाँकि इसे विडंबना ही कहेंगे कि इस सम्बन्ध में 2016 से लगभग 30 मामले दर्ज किए गए लेकिन किसी को दोषी नहीं ठहराया गया।
जहरीली शराब मामले क्यों नहीं हुई सजा?
मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि एकमात्र मामला, जिसमें अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया था, वह 2016 गोपालगंज जहरीली शराब त्रासदी थी, जिसमें 19 लोग मारे गए थे। इस मामले में गोपालगंज की अदालत ने 9 को मौत की और 4 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। लेकिन बिहार का दुर्भाग्य देखिए कि प्रशासन पुख्ता सबूत नहीं दे पाया इसलिए पटना हाईकोर्ट ने सभी को बरी कर दिया।
तो फिर सवाल ये है कि नवादा, लउरिया, पश्चिमी चंपारण, नौतन, महमदपुर, गोपालगंज, सोहसराय, नालंदा, और अब मोतिहारी में जहरीली शराब से हुई मौतों का दोषी कौन है? क्या वो व्यक्ति जिसने वो जहरीली शराब पी या फिर वो प्रशासन जो दोषियों को सजा दिलवाने में नाकाम रहा या फिर सुशासन बाबू जो कहते हैं, “पियेगा तो मरेगा।”
मृतकों के परिजनों का हाल
सवाल यह भी है कि आखिर इस सब के बीच पिस कौन रहा है? इस ढील-ढिलाई से पिस रही है वो रिंकी जिसने गरीबी और आर्थिक तंगी के बीच अभी ग्रेजुएशन में एडमिशन लिया ही था और उसके पिता की मृत्यु हो गई। इस बीच पिस रही हैं धनवन्ती जिनके घर का कमाने वाला एकमात्र पुरुष चला गया। इस बीच पिस रही हैं सोना देवी जिनका 40 वर्षीय दामाद उन्हें आर्थिक बदहाली में छोड़ गया।
एक समय था जब विशेषज्ञ और राजनीतिक पण्डित यह बताते नहीं थकते थे कि शराबबंदी के कारण नीतीश कुमार को महिलाओं का सबसे बड़ा समर्थन मिला है। हालाँकि अब ऐसा सुनाई नहीं देता। कारण शायद यह है कि बंदी के बावजूद शराब मिलती भी है और बनती भी है। फिर बीच-बीच में ऐसी घटनाएं भी होती रहती हैं जिनके कारण शराब का चोरी छिपे सेवन करने वाले मरते रहते हैं। यह राज्य प्रशासन के लिए शर्मनाक है और समाज के लिए दर्दनाक।
बिहार में चूहे पी जाते हैं शराब
दरअसल बिहार में शराबबंदी की गंभीरता का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पुलिस द्वारा जब्त की गई शराब को चूहे तक पी जाते हैं। ऐसे में इन्सानों का क्या हो सकता है, यह बताने के लिए किसी शोध की आवश्यकता भी नहीं है।
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