‘बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है’
विधानसभा चुनाव में जेडीयू की तरफ से यह नारा दिया गया। अगले चुनाव में नारा हो गया; ‘क्यूं करें विचार, ठीके तो है नीतीश कुमार’
अब अगले लोकसभा चुनाव आने से पहले नीतीश कुमार को सत्ता दोबारा हासिल करने हेतु ‘विचार’ करना पड़ा और विचार कर इस नतीजे पर पहुंचे कि राज्य की यात्रा करने से इसका समाधान मिल सकता है। अब वे निकल पड़े समाधान यात्रा पर। वैसे नाम को ध्यान से देखा जाए तो लगता है जैसे नितीश कुमार इस बात को स्वीकार करते हैं कि समाधान की आवश्यकता है। समस्याएं अधिक हैं इसलिए उनके बारे में बात न करके केवल समाधान की बात कर लेने में सुभीता है।
अपनी यात्रा के दौरान वे सिवान के एक मदरसे में पहुंचे और मदरसों में शिक्षा के प्रसार की घोषणा कर उन्होंने कहा कि इस बार उन्होंने जानबूझकर इस यात्रा की शुरुआत की है क्योंकि उन्हें यह देखना था कि योजनाओं की वास्तविकता क्या है और क्या-क्या करना बाकी है। इसमें मदरसों का जीर्णोद्धार एक प्रमुख विषय है।
अच्छा है उन्होंने शिक्षा पर बात की लेकिन कुछ शिक्षा राज्य में सरकारी विद्यालयों में भी दी जाती है। आखिरी बार नीतीश कुमार प्राथमिक स्कूलों के दौरे पर कब देखे गए थे? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें शायद दिमाग पर बहुत जोर डालना पड़ेगा। या फिर सरकारी विद्यालयों के निरीक्षण की कोई तस्वीर ध्यान आ जाए तो काम बने।
नीति आयोग के अनुसार बिहार में 26.27% ऐसे बच्चे हैं जिन्होंने स्कूली शिक्षा पूरी नहीं की है। यह देश में सबसे ख़राब आंकड़ा है। अब इसका समाधान यात्रा तो हो नहीं सकती। इसका समाधान नीति निर्धारण और उन नीतियों के क्रियान्वन में है। इसमें तो यात्रा से अधिक मेहनत लगती है और नितीश कुमार ने बिहार के लिए मेहनत का काम तेजस्वी यादव पर छोड़ दिया है।
वैसे देखा जाए तो नितीश कुमार यूँ ही चलते-चलते मदरसे की ओर नहीं मुड़ गए। उनके लिए दिल्ली की ओर जाने वाली राष्ट्रीय राजनीति की सड़क मदरसे से होकर ही गुजरती है। ऐसे में इस दौरे और मदरसे से जुड़ी घोषणा संयोग मात्र नहीं है। नीतीश कुमार जानते हैं कि दिल्ली के सपने मदरसे में गए बिना देखे नहीं जा सकते।
वर्ष 2015 में मुसलमानों ने नीतीश को भरपूर वोट दिए तो वहीं वर्ष 2020 के विधानसभा चुनावों में यह वोट बैंक उनसे छिटक आरजेडी के पास चला गया। इसी वोट बैंक की तलाश उन्हें मदरसे के बारे में चिंता व्यक्त करवा रही है। नीतीश मजहबी टोपी पहनने के लिए तैयार हैं ही और बाकी का काम जातिगत मतगणना करवा देगी।
नीतीश कुमार राज्य की नीतियों के लिए कम एवं चुनावी रणनीतियों के लिए अधिक उत्साहित दिखाई दे रहे हैं। क्या आने वाले वर्षों में भी हम नीतीश कुमार से यही उम्मीद रखें कि बिहार के शासन और प्रशासन से अधिक उनका ध्यान केंद्र में अपना स्थान बनाने पर रहेगा? हाल ही में उन्होंने ऐसा ही कुछ बयान दिया जहां उन्होंने तेजस्वी को अपना उत्तराधिकारी बताया लेकिन कुर्सी नहीं सौंपी।
इस घोषणा का असर यह हुआ कि तेजस्वी की पार्टी के लोग उत्साहित होकर नीतीश के ख़िलाफ़ लगातार बयानबाजी कर रहे हैं। तेजस्वी इन बयानों को लेकर असहज तो दिख रहे हैं लेकिन अपने नेताओं पर कार्रवाई करते नहीं दिखते। ऐसे में कयास लग जाते हैं कि क्या नीतीश के खिलाफ इस बयानबाज़ी को तेजस्वी की मौन स्वीकृति मिल जाती है?
तेजस्वी भी बिहार के उपमुख्यमंत्री से मुख्यमंत्री बनने के सफर को जल्द पूरा करना चाहते हैं। शायद इसलिए भी विधानसभा में अधिक सीटें होने के बावजूद नंबर 2 से ही संतुष्ट हैं ताकि सरकार में रहकर पहले छवि तैयार की जाए। तेजस्वी की अच्छी छवि तभी बन पाएगी जब नीतीश छवि के मामले में उनसे कमतर नज़र आएं इसलिए वो नीतीश कुमार के उटपटांग बयानों पर आपत्ति दर्ज़ करते हुए नज़र नहीं आते।
आज ही एक कार्यक्रम में जनसंख्या नियंत्रण पर नीतीश बोले कि “मर्द लोग रोज-रोज करते ही रहता है। महिलाएं ही खुद को बचा सकती हैं” बगल में तेजस्वी भी चुपचाप सुनते रहे। ऐसा ही कुछ बयान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दिनों हुए लाठीचार्ज पर दिया, उन्हें पूछा गया कि “लाठीचार्ज पर क्या कहना है” तो उनका जवाब था कि कहाँ हुआ? ऐसा कुछ हुआ है क्या?
बिहार के इतने संवेदनशील मुद्दे पर नीतीश कुमार के बयान से स्पष्ट हो जाता है कि अब वह बिहार के लिए जवाबदेह नहीं है उन्हें देश का नेता बनना है। वे समाधान यात्रा के जरिये मुसलमान या हिन्दू को कितना जोड़ पाते हैं यह कहना जल्दबाज़ी होगी लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण ‘सुशासन’ शब्द को एक बुरे शब्द की श्रेणी में अवश्य ही जोड़ चुके हैं।