बिहार सरकार ने हाल ही में राज्य में किए गए पहले जाति आधारित सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण के निष्कर्ष जारी किए। इसमें ध्यान देने वाली कुछ मुख्य बातें यह हैं कि ओबीसी की आबादी 63% से अधिक है, जिसमें अति पिछड़ा वर्ग 36% के साथ सबसे बड़ा समूह है। इसके राजनीतिक और नीतिगत निहितार्थ शायद निकट भविष्यऋण परिलक्षित हों।
विभिन्न सामाजिक समूहों के लिए बेहतर कल्याणकारी नीतियां बनाने के नाम पर भारत में जाति-आधारित सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण की लंबे समय से मांग की जा रही है। हालाँकि, केंद्र सरकार ने तार्किक मुद्दों का हवाला देते हुए 1931 के बाद से जाति जनगणना नहीं की है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विभिन्न जातियों का सामाजिक-आर्थिक डेटा एकत्र करने के लिए पिछले साल राज्य स्तरीय सर्वेक्षण का आदेश दिया था।
सर्वेक्षण के निष्कर्षों को सार्वजनिक करते हुए सरकार की ओर से बताया गया कि बिहार की आबादी लगभग 13.1 करोड़ है। इसने विभिन्न जातियों और जनजातियों की जनसंख्या वितरण और स्थिति को समझने के लिए जनसांख्यिकीय और साथ ही व्यावसायिक डेटा एकत्र किया। निष्कर्ष इस व्यापक धारणा की पुष्टि करते हैं कि ओबीसी, विशेष रूप से ईबीसी, बिहार में एक महत्वपूर्ण बहुमत हैं। इससे 2024 के आम चुनावों से पहले राजनीति और कोटा पर असर पड़ने की उम्मीद है।
मुख्य निष्कर्षों से पता चलता है कि आबादी में ईबीसी 36%, ओबीसी 27%, एससी 20% और एसटी 2% हैं। यादव समुदाय, ओबीसी का 14%, सबसे बड़ा उप-समूह है। एससी (अनुसूचित जाति) 19.7% हैं जबकि एसटी (अनुसूचित जनजाति) 1.7% हैं। शेष 15.5% जनसंख्या सामान्य वर्ग की है। डेटा आरक्षण नीतियों को प्रभावित करेगा क्योंकि ओबीसी कोटा वर्तमान में 27% पर सीमित है।
JDU, RJD जैसे राजनीतिक दलों ने सर्वेक्षण की सराहना की है। सुप्रीम कोर्ट ऐसे सर्वेक्षण की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है। विपक्षी दल इसे मिसाल बनाकर देशव्यापी जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं। यह उच्च आरक्षण कोटा की लंबे समय से चली आ रही ओबीसी मांग को मान्य करता है।
संभावना है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस सर्वे का इस्तेमाल अपनी सामाजिक न्याय समर्थक राजनीति को मजबूत करने के लिए करेंगे। इसे शायद वे भाजपा की राजनीति का मुकाबला करने के लिए एक हथियार की तरह देखते हैं। साथ ही इसकी मदद से नीतीश कुमार को अखिल भारतीय मंच मिलने की संभावना है। बिहार में सभी दलों ने जनगणना का समर्थन किया था।
बिहार सर्वेक्षण के ज़रिए जाति डेटा प्रकाशित करने वाला पहला राज्य है। ओबीसी आरक्षण और जन कल्याण नीतियों से जुड़ी राजनीति पर इसका क्या प्रभाव होगा, यह समय बतायेगा। वैसे तो डेटा यदि सही रहा तो मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है।
जाति-आधारित सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण दशकों से जाति संरचना पर जनसांख्यिकीय डेटा प्रदान करती है। इसके महत्वपूर्ण राजनीतिक निहितार्थ होने की उम्मीद है क्योंकि सीएम नीतीश कुमार 2024 के आम चुनावों से पहले खुद को सामाजिक न्याय के चैंपियन के रूप में पेश करते हैं। ये निष्कर्ष जाति-आधारित आरक्षण के लंबे समय से बहस के मुद्दे को फिर से सामने लाते हैं।
2011 में यूपीए के समय भी जाति-आधारित सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण करवाई गई थी पर तब कुछ समस्याओं का हवाला देकर सर्वेक्षण के निष्कर्षों को सार्वजनिक नहीं किया गया। इसी तरह कर्नाटक में सिद्धरमैया सरकार ने भी यह कोशिश की थी लेकिन वहाँ भी कांग्रेस सरकार निष्कर्षों को सार्वजनिक करने से बचती रही। अभी बिहार की इस जाति जनगणना के विभिन्न पहलुओं को आंशिक तौर पर ही सार्वजनिक किया गया है। पूरी रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद उसके समग्र अध्ययन से निकलने वाले निष्कर्षों का इंतज़ार सबको रहेगा।