कल रविवार 4 जून को बिहार के भागलपुर में उत्तर बिहार को दक्षिण बिहार से जोड़ने के लिए पिछले आठ वर्षों से भी अधिक समय से बनाया जा रहा एक चार लेन का पुल टूटकर नदी में समा गया।
पहली बार में सुनकर आपको बिहार में एक पुल के गिरने की बात सामान्य नज़र आ रही होगी लेकिन आपको जानना चाहिए कि यही पुल पिछले वर्ष भी टूट चुका है। और ये पुल कोई 200 या पांच सौ करोड़ की लागत से नहीं बन रहा था। बल्कि इसका बजट था पूरे 1710 करोड़ रूपये। लेकिन 1710 करोड़ रूपये नदी में समा के शून्य हो चुके हैं। ये शून्य इशारा करता है बिहार में स्थापित हो चुके ‘राजनीतिक शून्य’ की ओर। इस बात की पुष्टि कर रही हैं बिहार में होती रही घटनाएं जो चीख चीख कर बतलाती हैं कि बिहार भले ही लोकनायक, जननायक, राष्ट्रकवि की भूमि है लेकिन इसी भूमि में अब भ्र्ष्टाचार की जड़ें काफी नीचे जा चुकी हैं।
पिछले वर्ष ही बिहार के रोहतास जिले से खबर आई कि 60 फीट लंबा और 20 टन वजनी लोहे का पुल चोरी हो गया।
बताया गया कि सिंचाई विभाग के अधिकारी आए और नहर पर बने लोहे के पुराने पुल को काटना व उखाड़ना शुरू कर दिया। उन्होंने पुल को गैस कटर से काट दिया और जेसीबी से उखाड़ कर गाड़ी पर लाद लिया और आराम से चलते बने बाद में पता चला कि वे सिंचाई विभाग के अधिकारी नहीं, बल्कि चोर थे।
ये चोरी पुल तक सीमित नहीं रही फिर खबर आती है कि बिहार के बगहा में एक सड़क चोरी हो गयी। दरअसल बगहा में अतिक्रमण के चलते सड़क का अस्तित्व मिट गया था। इतनी मिट्टी काटी गयी कि सड़क तालाब में तब्दील हो गई।
क्या आपने मोबाइल टॉवर चोरी होते सुना है ?
राजधानी पटना में ललन सिंह के घर पर एक मोबाइल कम्पनी का टॉवर लगा हुआ था। कुछ लोग उनके घर मोबाइल कम्पनी के अधिकारी बन कर जाते हैं और बताते हैं कि घाटे के कारण कंपनी ने उन्हें मोबाइल टावर हटाने के लिए भेजा है। इसके बाद करीब 25 लोगों ने तीन दिनों तक चौबीसों घंटे काम किया। गैस कटर से मोबाइल टावर को टुकड़ों में काट लिया। इसके बाद सभी टुकड़ों को एक ट्रक में भरकर फरार हो गए।
इसके बाद रेल इंजन चुराने की खबरें आती हैं जिसका बाद में रेलवे ने यह कहकर खंडन किया कि रेल इंजन नहीं बल्कि एक पार्ट चुराया गया था। कभी 2 किलोमीटर रेल की पटरी चुराई जाती है तो कभी दिन-दहाड़े चलती मालगाड़ी से तेल चोरी करने का वीडियो सामने आता है।
आप और हम इन ख़बरों को सुनते हुए थक जाएंगे लेकिन ये खबरें इतनी हैं कि इन्हे एक जगह लाकर रखने में बहुत समय लग सकता है।
ये है बिहार मॉडल ऑफ़ गवर्नेंस, एक ऐसा मॉडल जिसे बारी बारी सबने संवारा। कभी समाजवाद की खाद से तो कभी जातिवाद के पानी से।
यह मॉडल इस प्रकार स्थापित हो चुका है कि अब सत्ता में कौन है कौन नहीं, इसे अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ता। क्या सुशासन बाबू, क्या कुशासन बाबू और क्या अनुशासन बाबू, अब सबका हाल एक ही हो चला है।
आप देखिये ना, बताया गया कि कल गिरने वाला पुल पिछले साल इसलिए गिर गया था क्योंकि उस वक़्त तेज़ हवा चल रही थी। उस वक़्त नीतीश मुख्यमंत्री थे लेकिन तेजस्वी विपक्ष में थे आज तेजस्वी पक्ष में हैं लेकिन उस बात का क्रेडिट ले रहे हैं कि मैंने विपक्ष में आवाज़ उठायी थी।
तो आपने पक्ष में आने के बाद यानी उपमुख्यमंत्री बनने के बाद अपनी आवाज़ स्वयं क्यों कुचल दी?
देखिये, पहले पुल का शिलान्यास होता है वर्ष 2014 में, निर्माण कार्य शुरू होता है वर्ष 2015 में और इस कार्य को पूरा होने के लिए 4.5 वर्ष की समयसीमा दी जाती है। लेकिन वर्ष 2019 आते आते इसकी समय सीमा 2020 कर दी जाती है फिर वर्ष मार्च 2022 कर दी जाती है। ऐसे ही पिछले 9 वर्षों में कुल 8 बार इसकी समय सीमा बढ़ा दी जाती है।
बिहार गवर्नेंस मॉडल आज देश में भ्रष्टाचार का सूचक बन चुका है क्योंकि बिहार का प्रशासन भ्रष्टाचार के आगे नतमस्तक है। किसी भी समाज का प्रशासन उस समाज के लोगों से मिलकर बनता है इसलिए शायद अब बिहार के लोगों ने भी इसे अपनी नियति मान लिया है।
हर वर्ष राजनैतिक उठापटक के बीच अब ऐसी घटनाएं बिहारवासियों के लिए भी आम हो चुकी हैं। अब चूहे कितनी शराब पी गए या शराब पीकर कितने लोग मर गए, यह भी उनके लिए चर्चा का विषय नहीं रह गया है। बिहार में बहार है या नहीं, इससे भी उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता।
एक आम नागरिक चर्चा करता है तो इस पर कि कल क्या गिरेगा?