“सस्टेनेबल” का हिंदी अर्थ मोटे तौर पर दीर्घकालिक, संवहनीय या टिकाऊ जैसा होगा। विश्व पर्यटन दिवस पर इस शब्द की याद इसलिए आई क्योंकि, हाल ही में भारत के एक पर्यटन के लिए विख्यात राज्य में भयावह भूस्खलन हुआ था। कितने लोग मारे गए पता नहीं। हाँ, जो बचाव कार्यों के नाम पर राजनीति हुई, वो जरूर याद रह गई।
ऐसा ही हाल में दोबारा तब दिखा जब एक पहाड़ों के ही पर्यटन स्थल पर बिखरा कूड़ा एक तस्वीर में दिखा। इस तस्वीर पर जनता की राय दो भागों में बंट गई। एक पक्ष का कहना था कि पर्यटक को कम से कम स्थानीय पर्यावरण का तो लिहाज रखना था। दूसरे पक्ष की राय थी कि पर्यटक अपने घर से ये कूड़ा लेकर वहाँ फेंकने तो गया नहीं था न?
स्थानीय सरकार और प्रशासन की जिम्मेदारी है। प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाना स्थानीय प्रशासन का काम था, और वैसी चीजें न बेचना, स्थानीय लोगों का जो दुकानें चला रहे हैं। इसलिए केवल पर्यटक पर तो दोष मढ़ा नहीं जा सकता।
यह घटनाएँ हमें वहाँ ले आती हैं, जहाँ की हम बात करने वाले हैं, यानी कि भूटान। भूटान नाम का यह छोटा सा देश अपनी खुशहाली के लिए विख्यात है। दूसरे देशों में जहाँ लोग लोकतंत्र के नाम पर सत्ता में आने के बाद भी कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते, वहीं भूटान की राजसत्ता ने लोगों को करीब-करीब जबरन लोकतंत्र की ओर धकेला, इसके लिए भी भूटान की चर्चा होती है।
इसके अलावा, पशु देश के एक भाग से दूसरे भाग में आराम से आ-जा सकें इसके लिए भूटान ने फारेस्ट कॉरिडोर बना डालने की व्यवस्था की है। फारेस्ट कॉरिडोर का मोटे तौर पर अर्थ ये है कि एक वन को दूसरे वन से जोड़ने के लिए दोनों वनों के बीच कई पेड़ लगाकर एक वन पट्टी सी बना दी गयी, जिसमें से होते हुए जंगली पशु एक इलाके से दूसरे इलाके में पहुँचते हैं।
इसकी तुलना आप देश-विदेश से आने वाली उन ख़बरों से कर सकते हैं, जिनमें आये दिन किसी हाथी के रेलगाड़ी की पटरी पर ट्रेन से टकराकर घायल होने या हिरण जैसे कई पशुओं की जंगल से गुजरती सड़क पार करने के चक्कर में किसी गाड़ी की चपेट में आने की बात सुनते-पढ़ते हैं।
भूटान जैसे संवेदनशील क्षेत्र में, हिमालय पर पर्यावरण को पर्यटन के साथ बनाये रखना काफी कठिन कार्य है। अगर बहुत से पर्यटक आते रहे, तो उनके साथ गाड़ियाँ होंगी, उनके रहने के लिए होटलों का निर्माण होगा, कुछ न कुछ कूड़ा-कचरा भी आबादी के साथ आना ही है।
इन सब को ध्यान में रखकर भूटान ने पहले ही अपनी नीतियाँ कुछ ऐसी बनायीं थी कि पर्यटक संख्या में कम रहें और खर्च करने में आगे। विदेशों से आने वाले पर्यटकों के लिए एक “सस्टेनेबल डेवलपमेंट फी” (एसडीएफ) भी होता था जो अन्य देशों के नागरिकों के लिए 65 डॉलर था। भारतीय, बांग्लादेशी और मालदीव से आने वाले पर्यटकों पर एसडीएफ नहीं लगता था।
इस वर्ष 23 सितम्बर को जब कोविड-19 के लॉकडाउन के बाद भूटान में पर्यटकों की आवाजाही शुरू हुई, तो ये नियम बदल दिया गया। अब भारतीय पर्यटकों को भी 15 डॉलर (1200 रुपये) प्रतिदिन के हिसाब से एसडीएफ देना होगा। दूसरे कई देशों के लिए ये रकम बढ़ाकर 200 डॉलर (16000 रुपये) कर दी गई है।
एसडीएफ के अंतर्गत दूसरे नियम भी सख्त कर दिए गए हैं, जैसे कि अब टूरिस्ट गाइड लेना अनिवार्य होगा। प्रतिदिन टूरिस्ट गाइड का खर्च 1000 रुपये तक हो सकता है। ऐसे ही ठहरने के लिए पर्यटकों को टूरिज्म कौंसिल ऑफ भूटान (टीसीबी) द्वारा सूचीबद्ध होटलों में ही ठहरना होगा (जिनमें से अधिकांश कम से कम थ्री स्टार हैं)।
सीधी सी बात है कि भारत के मध्यमवर्गीय चार सदस्यों के परिवार के लिए अगर दिन का खर्च होटल-भोजन और घूमने फिरने की खर्च के बिना ही प्रतिदिन पांच हजार रुपये से अधिक हो, तो परिवार ऐसी जगह जाने के बदले किसी और देश जाना चाहेगा। जरा ठहरिये, बात इतने पर ही ख़त्म नहीं हो रही।
इसके अलावा विदेशी टैक्सी का भूटान का प्रतिदिन का किराया 4500 रुपये और उसके ड्राईवर का भी 1200 प्रतिदिन का जोड़ना हो, तो भारत के एक बड़े वर्ग के लिए भूटान अब कोई पर्यटन स्थल ही नहीं रहा। इनके अलावा भूटान की “नेशनल मोन्यूमेंट कमिटी” की जुलाई की बैठक में पर्यटकों के लिए टिकटों के मूल्य में भी वृद्धि कर दी है।
उदाहरण के तौर पर टाइगर्स नेस्ट मोनेस्ट्री के लिए टिकट का मूल्य अब 25 डॉलर (2000 रुपये) होगा। अब ये एक बड़ा सवाल है कि भारत या बांग्लादेश जैसी जगहों से कितने लोग इतने अधिक खर्च पर भूटान घूमने जाना चाहेंगे? अधिक खर्च करने वाले पर्यटक आयें, लेकिन संख्या में कम ही आयें, इस उद्देश्य से “टूरिज्म लेवी बिल 2022” को भूटान ने लागू किया है।
इन बदलावों को पर्यटन को सस्टेनेबल बनाने की दृष्टि से देखना है, या पर्यटकों को दूर भागने की दृष्टि से, ये अलग-अलग लोगों का अलग-अलग विचार हो सकता है। बाकि याद रखें कि मोहनदास करमचंद गाँधी, करीब-करीब इन्हीं कारणों से रेलवे का कड़ा विरोध करते थे।
उनका मानना था कि रेल के हर जगह होने से हमारे तीर्थस्थलों पर ऐसे लोग पहुँचने लगेंगे, जिनमें आस्था का अभाव होगा। बिना प्रयाप्त कष्ट झेले, कठिनाइयों का सामना किये लोग जो तीर्थस्थलों पर पहुंचेंगे वो पर्यटक होंगे, तीर्थयात्री नहीं। सरकारें भी गाँधी को बस नाम भुनाने के लिए इस्तेमाल करती रही है, इसलिए उन्होंने गाँधी के रेलवे के विरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया।
उत्तराखंड जैसे राज्य इसका खामियाजा भुगत चुके हैं। हो सकता है किसी दिन हम लोग भूटान जैसे देशों से सीखें, तबतक इन्तजार और सही, इंतजार और सही!