भोपाल में वर्ष 1982 में पत्रकार राजकुमार केसवानी द्वारा हिंदी के एक साप्ताहिक अख़बार में एक रिपोर्ट लिखी गई, जिसकी मुख्य हेडलाइन थी “बचाइए हुज़ूर इस शहर को बचाइए”, रिपोर्ट में लिखा गया था कि शहर में एक बड़ी आपदा आ सकती है।
राज कुमार भोपाल शहर की बात कर रहे थे। इस रिपोर्ट के कई महीने बाद यह आपदा तब आई, जब दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना घटी। 2 और 3 दिसम्बर 1984 की रात भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारखाने में विश्व की सबसे भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई।
इस दुर्घटना का असर भोपाल और उसके आस-पास के इलाकों में रहने वाले लोगों पर हुआ। 5 लाख लोग यूनियन कार्बाइड के कारखाने से रिसने वाली मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस के शिकार हुए।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार, 2,259 लोगों की मृत्यु हुई। अलग-अलग गैर-सरकारी आँकड़े यह संख्या 16,000 तक बताते हैं। सरकार द्वारा वर्ष 2006 में दिए गए एक हलफनामे के अनुसार, कुल 55,8,125 लोग इस दुर्घटना में घायल हुए। जिनमें 38,478 लोगों को अल्पकालिक और 3,900 लोगों को स्थायी क्षति पहुँची।
हज़ारों लोग अंधे हो गए। ऐसा कहा जाता है कि इस दुर्घटना में कारखाने से निकलने वाले रेडिएशन का प्रभाव स्थानीय मिट्टी और पानी पर रहा और भविष्य में भी रहने की संभावना है।
क्या कहती थी राजकुमार केसवानी की रिपोर्ट?
ऐसे क्या तथ्य थे, जिनके आधार पर पत्रकार राजकुमार केसवानी ने अपनी रिपोर्ट में आने वाले संभावित खतरे की बात कही थी?
सन 1976 में दो स्थानीय ट्रेड यूनियन ने यूनियन कार्बाइड के इस कारखाने में प्रदूषण की शिकायत की थी। 1981 में कारखाने के सामान्य रखरखाव के काम में लगे एक कर्मचारी को फॉस्जीन नामक गैस के रिसाव का सामना करना पड़ा।
अचानक गैस रिसाव के लिए तैयार न होने के कारण कर्मचारी ने अपना मास्क उतार कर जब चेक करना चाहा तो गैस उसके शरीर में पहुँच गई। दो दिन बाद उस कर्मचारी की मृत्यु हो गई।
ऐसी और घटनाओं के बाद पत्रकार राजकुमार केसवानी ने मामले की तह तक पहुँचने के प्रयास में निजी अनुसंधान किया और अपने निष्कर्ष रपट नामक स्थानीय साप्ताहिक में छापा। अपनी रिपोर्ट में उन्होंने शहर लोगों को आगाह करते हुए लिखा, “भोपाल के लोगों, जागिए, क्योंकि आप एक ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हैं।”
कैसे हुआ भोपाल में यह बड़ा हादसा ?
2-3 दिसम्बर की रात भोपाल के आरिफ नगर स्थित अमेरिकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड कारख़ाने में 40 टन तक का मिथाइल आइसो साइनाइट (MIC) नामक ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ।
इस गैस का प्रयोग कीटनाशक के निर्माण में किया जाता था। गैस लीक होने का कारण यह था, कारखाने के तमाम गैस टैंकों में से एक, टैंक नंबर 610 का लीक होना, जिसमें 42 टन गैस थी। नियम के अनुसार टैंक में 30 टन से अधिक गैस नहीं रखी जा सकती थी लेकिन, कारखाने में रखरखाव और उपकरणों की क्वालिटी को लेकर प्रबंधन सतर्क नहीं था।
परिणामस्वरूप हज़ारों लोगों की मृत्यु हो गई। इलाके के पेड़ सूख गए। हज़ारों जानवर मारे गए। हजारों बकरियाँ, गाय, भैंस और बैल जगह-जगह मरने के बाद पड़े थे। मृतकों की पहचान संभव नहीं थी। सामूहिक दाह संस्कार किए गए। सरकार की ओर से आधिकारिक सूचना दी गई कि पानी, हवा, खाद्य पदार्थ और सब्जियाँ वगैरह सुरक्षित थीं। हालाँकि, जनता को आगाह किया गया कि वे मछलियों का सेवन न करें।
सूचना की कमी ने भी नागरिकों में लंबे समय तक भ्रम पैदा किया।
वारेन एंडरसन का भारत से जाना
दुर्घटना के बाद कारखाने को पूरी तरह से सील कर दिया गया। दुर्घटना की जाँच का जिम्मा सीबीआई को सौंपा गया। कंपनी के सीईओ वारेन एंडरसन अपनी एक टेक्निकल टीम के साथ भारत आए। उन्हें सरकार ने नजरबंद कर लिया और चौबीस घंटे के अंदर उन्हें देश छोड़ कर चले जाने के लिए कहा।
दुनिया की सबसे बड़े औद्योगिक त्रासदी को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की प्रतिक्रिया हैरान कर देने वाली रही। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि राजीव गाँधी ने उन्हें आदेश दिया कि वारेन एंडरसन को भोपाल से सुरक्षित निकाला जाए।
एंडरसन भोपाल से दिल्ली पहुंचे और उसी रात वे अमेरिका के लिए रवाना हो गए और फिर कभी लौट कर नहीं आए। एंडरसन को क्यों जाने दिया गया, इसे लेकर तरह-तरह के कयास लगाए गए। बाद में वर्ष 2015 में लोकसभा में बोलते हुए पूर्व विदेश मंत्री स्वर्गीय सुषमा स्वराज ने अपने भाषण में कहा था, वारेन एंडरसन को भोपाल से दिल्ली और फिर दिल्ली से अमेरिका जाने की व्यवस्था तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने इसलिए की ताकि अमेरिका की जेल में गंभीर अपराध के लिए सजा काट रहे अपने बचपन के मित्र आदिल शहरयार को छुड़ा सकें।
सरकार द्वारा जाँच और अदालती कानूनी
केन्द्र सरकार द्वारा भोपाल गैस लीक डिजास्टर एक्ट पारित किया गया, जिसने सरकार को अधिकार दिया कि वह पीड़ितों प्रतिनिधित्व कर सके और आवश्यकतानुसार कानूनी कार्रवाई कर सके।
सरकार के समक्ष सबसे बड़ी समस्या थी, सूचना इकठ्ठा करने की। मामले को लेकर पहला मुकदमा अमेरिका में शुरू हुआ।
फ़ेडरल डिस्ट्रिक्ट जज ने अपने आर्डर में कहा कि बुनियादी मानवीय संवेदना यह कहती है कि यूनियन कार्बाइड को तुरंत 50 लाख से 1 करोड़ अमेरिकी डॉलर घायलों के लिए देना चाहिए।
कालांतर में दुर्घटना से सम्बन्धित मुकदमे भारतीय न्यायालयों में भी चले। उच्चतम न्यायालय ने दोनों पक्षों को अदालत के बाहर समझौते के लिए कहा।
1989 में यूनियन कार्बाइड और सरकार के बीच समझौता हुआ, जिसके तहत कंपनी ने सरकार को 4 करोड़ 70 लाख डॉलर देने का फैसला किया। इस राशि को लेकर कई पक्ष राजी नहीं हुए और इसके कारण 1990 में इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील की गई और लगातार कई मुक़दमे चले।
अन्त में 1991 में उच्चतम न्यायालय ने सभी अपीलों को खारिज करते हुए मूल समझौते को सही करार दिया। इसके बाद भी भोपाल की स्थानीय अदालत में फिर से मुकदमा दायर किया गया और लगातार कार्रवाई की गई। वारेन एंडरसन को भगोड़ा घोषित किया गया।
ये सारे मुक़दमे अमेरिका की अदालतों में खारिज हो गए। सम्बन्धित प्रक्रिया वर्ष 2010 तक चली।
तत्कालीन सरकारों का आचरण न्यायसंगत था?
देखा जाए तो केन्द्र और राज्य सरकार, दोनों का आचरण न्यायसंगत नहीं था। यह देखते हुए कि यह कंपनी सरकारी बैंकों और यूनियन कार्बाइड की साझेदारी वाली कंपनी थी, सरकारों का आचरण भारतीय नागरिकों और देश की संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए नहीं था।
ऐसे संवेदनशील रसायन बनाने वाले कारखाने में रखरखाव की कमी की जानकारी होने के बावजूद कंपनी के प्रबंधन की लापरवाही किसी भी हालत में सही नहीं ठहराई जा सकती। ऐसा कैसे हो सकता है कि बार-बार मिल रही चेतावनी के बावजूद किसी कंपनी का प्रबंधन इतना लापरवाह हो जाए? यह स्थिति बताती है कि नैतिक भ्रष्टाचार किस कदर देश के सिस्टम में फैला होगा।
इसके ऊपर तत्कालीन सरकारों में बैठे लोगों का आचरण यह बताता है कि देश के नागरिकों के लिए सरकार में बैठे लोगों को कितनी चिंता रही होगी।
तत्कालीन भारत भले एक विकासशील देश था पर उसे चलाने वाले पश्चिमी विकसित देशों और उनके नागरिकों के सामने कैसे झुकते होंगे, भोपाल गैस त्रासदी उस ओर इशारा करती है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोग किस कदर अपने व्यक्तिगत हितों के आगे देश और उसके वृहद समाज का हित कैसे गिरवी रख देते होंगे, यह त्रासदी उसकी एक बानगी दिखाती है।