श्री भूपेंद्र भारतीय उर्फ भूपेंद्र सिंह परिहार का सद्य प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘भिया के तेजस्वी पंखे’ चढ़ती गर्मी में हाथ आया तो लगा चलो इस प्रचंड गर्मी और लू लपाटे से कुछ तो राहत मिलेगी लेकिन भूमिका पढ़ते हुए ज्ञात हुआ कि भिया वाले जो पंखे भूपेंद्र जी ने भिजवाए हैं दरअसल वे तो भिया के पट्ठे हैं जो अपने इधर क्या कम है! और फिर पट्ठे तो चाय से केतली गरम टाइप होते हैं, उनसे कैसी राहत! खैर… ख्यात कार्टूनिस्ट डॉ देवेंद्र शर्मा जी द्वारा बनाया गया सुंदर आवरण और वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री ब्रजेश कानूनगो जी की भूमिका पाठकों से संग्रह पढ़ने का आग्रह करती है।
भिया के तेजस्वी पंखे भूपेंद्र जी का पहला व्यंग्य संग्रह है, जिसमें कुल जमा साठ रचनाएं हैं। संग्रहित रचनाएं यहां-वहां पत्र पत्रिकाओं में पढ़ी हुई हैं, तो कुछ पहली बार नजरों के सामने से गुजरीं। ”जाति के ताल में प्रश्न के कंकर’, ‘शिक्षा में मलखंभ’, ‘गधे हंस रहे हैं’, ‘श्रीमान का मास्टर प्लान’, ‘लोकतंत्र में लाइन में लगने का महत्व’, ‘मत वाली हंसी’, ‘पद जो देखन मैं चला’, ‘सब्जी के ठेले पर लोकतंत्र’, ‘अच्छा आदमी बनने की यात्रा में’, ‘बापू की बकरी फिर खो गई’ रचनाएं प्रभावित करती हैं।
भूपेंद्र भारतीय जी को पहले भी पढ़ते हुए मैंने महसूस किया है कि वे विद्रूपताओं को जैसा देखते हैं वैसा ही लिख डालते हैं। यहां तक कि लोकभाषा में प्रयोग होने वाले विविध देशज शब्द यथा पाखडें, खल्बा, खेडें, बागर, फोकटिया, माड़साब को भी तत्सम उपयोग करते दिखाई पड़ते हैं। लचकराम उनका प्रिय पात्र है, वे वाक्य,अनुच्छेद और रचना की सजावट में नहीं उलझते|न भाषा से चमत्कार पैदा करने का प्रयास करते हैं और न ही बड़े पंच लगाते हैं फिर भी कहते-कहते आखिर अपनी बात कह जाते हैं।
अभ्युत्थानम्: नंद, अलेक्ज़ेंडर और चंद्रगुप्त मौर्य | पुस्तक समीक्षा
संग्रह की रचनाओं में आए कुछ पंच जो ध्यान आकृष्ट करते हैं –
“आजकल नतीजे कैसे भी हों, चौकाने वाले ही होते हैं। लहरों का क्या है आती जाती रहती है ,कभी महामारी की कभी जीत हार की।
स्वीट साहित्यकारों का लेखन चाटने के लिए नहीं होता। मंडियों में आजकल प्रतिभाओं की बोलियां लगती है। रुपए और आदमी का जैसे जैसे मूल्य घट रहा है। नई नई प्रतिभाएं बिकने को बढ़ रही है।
जाति का वर्गीकरण जिस गति से हमारे देश में होता आया है, वह दिन दूर नहीं जब हर दूसरा आदमी अपनी अलग जाति की तख्ती लेकर आरक्षण की भीख मांगता मिले। कोई व्यक्ति आपको यदि पांच मिनट के कार्य के लिए एक घंटा प्रतीक्षा करवाए तो समझ लीजिए वह बड़ा आदमी है।
जिधर आयातित मुलायम हरी हरी घास होगी गधे उधर ही तो घुसेंगे। इस चुनावी रंग में जो मैदान मारता है वही माननीय हो जाता है।
अभिव्यक्ति की जो स्वतंत्रता सब्जी के ठेले पर होती है वह आपको मीडिया की बहसों में भी नहीं मिल सकती। भिया के पंखों का एक ही ध्येय होता है, भिया की छींक को भी एक आदेश समझे।”
भूपेंद्र जी यात्रा वृतांत लिखने के शौकीन रहे हैं। सो उनकी रचनाओं की शैली कहीं कहीं विवरणात्मक हो जाती है। इस संग्रह की अधिकांश रचनाएं तात्कालिक विषयों पर है अतः भूपेंद्र जी से आग्रह रहेगा कि पाठकों के मन मस्तिष्क पर असर करने वाले नए विषय उठाए। संग्रह की विषय सूची पढ़ते हुए प्रत्येक रचना शीर्षक के साथ दीर्घवृत्त (इलिप्सिस) सह द्विविस्मयादिबोधक चिन्ह लगाना अव्यवहारिक लगा।
बहरहाल, भिया के तेजस्वी पंखे राजनीति, शिक्षा और साहित्य के मंचों पर हर कहीं हवा(बाजी)करते नजर आते हैं। संग्रह की व्यंग्य रचनाएं पाठकों को पसंद आएगी, ऐसा विश्वास है।
पुस्तक का नाम: भिया के तेजस्वी पंखे
विधा: व्यंग्य
लेखक: भूपेंद्र भारतीय
मूल्य: ₹200/
प्रकाशक: सर्वभाषा प्रकाशन,दिल्ली
समीक्षक: मुकेश राठौर