अन्तिआलसिदास निकेफ़ोरस एक इंडो-ग्रीक राजा था जिसका राज्य भारत यूनान क्षेत्र के पश्चिमवर्ती भाग में था और उसकी राजधानी तक्षशिला थी। इसका काल ईसापूर्व 120-130 के आसपास माना जाता है। इस समय मध्य, पूर्व व उत्तर भारत में शुंग वंश का शासन था जिसके राजा भागभद्र थे। इनका काल 124 से 83 ईसापूर्व माना जाता है। अन्तिआलसिदास का राजदूत था दियोन का पुत्र हेलियोडोरस, जिसे उसने राजदूत बनाकर राजा भागभद्र के पास भेजा था। मूल रूप से यवन हेलियोडोरस ने विदिशा के बेसनगर में गरुड़ स्तम्भ बनवाकर स्थापित करवाया, जिसके पुरातात्त्विक अध्ययन से आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए।
इस स्तम्भ की खोज 1877 में एलेग्जेंडर कनिंघम ने की थी। जब कनिंघम ने इस गरुड़ स्तम्भ को पहली बार देखा तो इसपर लाल सिंदूर की मोटी परत चढ़ी थी, और इस खम्भे को स्थानीय लोग खम्भा बाबा कहकर पूजा करते थे, स्तम्भ के पास ही मिट्टी के टीले पर पुजारी का घर था। कनिंघम एक ब्रिटिश पुरातत्वविद् थे जिन्होंने कई प्राचीन स्थलों की खोज की थी। वे स्तंभ के चारों ओर सिन्दूर की मोटी परत के कारण कोई शिलालेख तो नहीं देख पाए पर फिर भी उन्होंने इसके आकार और स्वरुप को देखकर इसके ऐतिहासिक महत्व को महसूस किया, जैसे कि मुकुट का प्रतीक, नक्काशीदार पंख, फूलों की बेल, एक गोल खंड में विलीन होने वाली समरूपता आदि।
इस कारण उन्होंने यह भी अनुमान लगाया कि इस परत के नीचे एक शिलालेख हो सकता है, और स्तंभ को उनकी सभी खोजों में “सबसे विलक्षण और श्रेष्ठ” बताया। [1] बेसनगर स्तंभ के पास, कनिंघम को एक ताड़पत्र आकार के पंख जैसे शिखर के अवशेष मिले, जो उनके अनुसार मूल रूप से स्तंभ के थे।[2] यह मानते हुए कि यह टूटा हुआ हिस्सा खड़े स्तम्भ का हिस्सा था, उन्होंने इसका एक स्केच बनाया। ताड़पत्र के आकार के पंख गरुड़ को दर्शाते हैं जो वैष्णव मत में अहम स्थान रखता है। इसके थोड़ी ही दूर कनिंघम को कल्पवृक्ष और मकर के आकार के दूर स्तम्भ मिले थे जो इसी स्तम्भ से सम्बन्धित थे।
स्तंभ की खोज के लगभग 30 साल बाद, 1909-10 में एच.एच.लेक ने साइट का पुनरीक्षण किया। मोटी लाल परत को साफ करने के बाद, उन्हें वहाँ ब्राह्मी लिपि के शिलालेख मिले, जिसे जॉन मार्शल ने पढ़कर आश्चर्यजनक सूचना दी कि यह दूसरी शताब्दी ईसापूर्व के हेलियोडोरस नामक एक यूनानी राजदूत और देवता वासुदेव से संबंधित शिलालेख है और स्तंभ पर उत्कीर्ण एक अतिरिक्त छोटा शिलालेख जो मानवीय गुणों को सूचीबद्ध करता है वह महाभारत से सम्बन्धित है।
1913-1915 में भण्डारकर के नेतृत्व में और 1963-1965 में खरे के नेतृत्व में और विस्तृत पुरातात्विक अध्ययनों से पता चला कि यह स्तंभ एक प्राचीन वासुदेव मंदिर स्थल का हिस्सा है जिसके अवशेष उत्खनन में सामने आए। यहाँ यह तथ्य सत्यापित हुआ कि हेलियोडोरस जो मूल रूप से यवन था, उसने वासुदेव यानि भगवान विष्णु से सम्बन्धित भागवत धर्म में प्रवेश कर लिया था और अपने नाम के आगे भी भागवत उपाधि धारण की थी।
बड़े शिलालेख पर संस्कृत में ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है –
“देवदेवस्य वासुदेवस्य गरुड़ध्वजे अयं कारितो इह हेलियोडोरेन भागवतेन दियासपुत्रेण तक्षशिलाकेन यवनदूतेन आगतेन महाराजस्य अन्तालिकितास उपंता सकाशं रणो काशीपुत्रस्य भागभद्रस्य त्रातारस वासेन चतुःदशेन राजेन वधमानस्” [3]
देवताओं के देवता वासुदेव का यह गरुड़ध्वज स्तम्भ, तक्षशिला के एक व्यक्ति, दियास के पुत्र हेलियोडोरोस भागवत के द्वारा यहां बनाया गया है जो महान यवन राजा अंतालकिदास द्वारा त्राता के रूप में वास करने वाले काशीपुत्र राजा भागभद्र के शासनकाल के चौदहवें वर्ष में राजदूत के रूप में भेजे गए।
दूसरे छोटे शिलालेख पर संस्कृत में ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है –
“त्रीणि अमृतपदानि सुअनुष्ठितानि नयन्ति स्वर्गं दम, त्याग, अप्रमाद”
तीन अमर उपदेश (पदचिह्नों) का सम्यक रूप से अनुष्ठान करने पर वे स्वर्ग की ओर ले जाते हैं, वह हैं – आत्मसंयम, त्याग, अप्रमाद।
इस प्रकार यह स्तंभ किसी विदेशी द्वारा वैष्णव धर्म या भागवत धर्म में परिवर्तित होने के सबसे पुराने अभिलेखों में से एक है। भागवत धर्म का विस्तृत निरूपण श्रीमद्भागवत महापुराण में मिलता है। जहाँ वैदिक धर्म यज्ञ आदि विस्तृत कर्मकाण्डों पर आधारित है, जिसमें वर्णव्यवस्था की प्रधानता है, वहीं भागवत धर्म में सर्वाधिक महत्त्व परात्पर विष्णु की भक्ति को दिया गया है जिन्होंने राम, कृष्ण, नृसिंह के रूप में अनेकों अवतार लिए हैं। इसमें भगवान विष्णु की कथाओं के निरंतर श्रवण, उनके नाम के निरंतर जप को संसार में धर्म का सबसे बड़ा साधन बताया गया है और इसमें किसी भी जाति, वर्ण, देश, काल आदि की अपेक्षा नहीं है। सभी वैदिक तत्वों के समावेश के साथ भी भागवत धर्म की इसी उदारता के कारण एवं इसमें विद्यमान शान्ति, अहिंसा, परोपकार, सात्विक भावनाओं के कारण भारत से यूनान और दक्षिणपूर्वी एशिया तक भागवत धर्म की गहरी जड़ें देखने को मिलती हैं। भागवत धर्म में बड़ी संख्या में विदेशियों का प्रवेश प्राचीन काल से होता रहा है और आज भी हो रहा है, इसका आधार बना भागवत पुराण का यह श्लोक जिसमें स्पष्ट कहा गया है –
किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कशा आभीरकङ्का यवनाः खसादयः ।
येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥
-श्रीमद्भागवतपुराणम् २.४.१८
किरात, हूण, आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन, खस आदि निम्न जातियां तथा दूसरे पापी जिनवासुदेव के शरणागत भक्तों की शरण ग्रहण करने से ही पवित्र हो जाते हैं, उन प्रभावशाली भगवान् विष्णु को नमस्कार है।
भागवत धर्म में राजाओं, ऊँची जातियों या किसी भी अन्य विशेषण की अपेक्षा केवल भक्तों को ही सर्वोच्च प्रधानता दी गयी है, भगवान के होना, इसी से बना है भागवत, इसलिए भागवत पुराण जिसका नाम ही “भागवत” है, उसमें अनेक महाभागवत राजाओं, ऋषियों बालकों की कथाएँ संकलित हैं, जिनमें नारद, शुकदेव, ध्रुव, पृथु, प्राचीनबर्ही, प्रह्लाद, अजामिल आदि अनेक भागवत गण शामिल हैं। भागवत धर्म गुप्तसाम्राज्य के दौरान न सिर्फ समाज का बल्कि शासन का भी घोषित धर्म रहा, इसलिए गुप्त सम्राटों ने परमभागवत जैसी उपाधियाँ धारण कीं, यहाँ एक अन्तर है कि गुप्त सम्राट जहाँ स्वयं को विष्णु या वासुदेव के भक्त के रूप में ख्यापित करते थे वहीं दक्षिण पूर्वी एशिया के राजा स्वयं को विष्णु घोषित किया करते थे।
वैदिक धर्म की जटिलताओं के चलते इसमें विदेशी पान्थिकों का प्रवेश बहुत कठिन रहा है और समाज इसके रास्तों के प्रति अनभिज्ञ रहा है जबकि भागवत धर्म ने प्रारम्भ से ही सारे मानव समाज के लिए सहज सरल धर्म का राजद्वार खोल रखा है जिससे धर्म से अनभिज्ञ, अनाचार से भरे समाजों से आने वाले विशुद्ध हृदय के लोगों ने धर्म को पहचाना, भगवान विष्णु को पहचाना और भागवत धर्म को स्वीकार किया। हेलियोडोरस का उदाहरण एक बहुत प्राचीन उदाहरण है कि कैसे विदेशी होते हुए भी न सिर्फ उन्होंने भारतीय संस्कृति को जाना, संस्कृत को जाना, भगवान वासुदेव और उनकी भक्ति को जाना, उसे अंगीकार कर भागवत बने और इस हद तक उसे जिया कि देवों के देव भगवान वासुदेव को समर्पित करते हुए विदिशा के तत्कालीन विशाल वासुदेव मन्दिर में गरुड़ स्तम्भ की स्थापना की।
सन्दर्भ:-
1] John Irwin (1974). “The Heliodorus Pillar at Besanagar”.
2] Cunningham, Alexander (1880). Report Of Tours In Bundelkhannd And Malwa Vol X 1874-75
3] Archaeological Survey of India, Annual report 1908-1909