“कल बात बीच में ही रह गयी थी।” भगवती बोले।
“कोई बात नहीं, आज पूरी करेंगे।” भगत सिंह बोले।
“आज मिलने वाले हैं क्या जयचंद्र जी?”
“नहीं, वो नहीं लेकिन मुझे अच्छे से पता है कि आज हमको इतिहास का एक ऐसा पन्ना सुनने को मिल सकता है जिसके बारे में हम सभी को आधा अधूरा सा ही पता है।”
“मतलब?”
“मैंने आज श्याम जी भाई को डी.ए.वी. की ओर जाते देखा है। जिस दिन वो कॉलेज जाते हैं उसका मतलब है कि वो अच्छा ख़ासा समय लेकर जाते हैं। हमको आज उनसे वहीं मिलकर उलझी कड़ियों को सुलझाना चाहिए।”
“यह सही रहेगा।” सभी लोग डी.ए.वी. की तरफ बढ़ गए।
“यह डेरा साहिब तो वही है ना भगत जहाँ सिख धर्म के पाँचवें गुरु, गुरु अर्जन देव, 1606 में शहीद हुए थे?” यशपाल ने रास्ते में गुरूद्वारा डेरा साहिब को देखकर पूछा।
“हाँ, यशपाल, जहाँगीर की आत्मकथा तुज़्क-ए-जहाँगीरी जहाँगीरनामा के अनुसार, गुरु अर्जन की शिक्षाओं से हज़ारों हिन्दू-मुस्लिम, सिख धर्म से प्रेरित होकर गुरु अर्जन की शरण में जाने लगे थे। जहाँगीर ने गुरु अर्जन से मुस्लिम धर्म अपनाने को कहा था जो उन्होंने नहीं माना और इस कारण जहाँगीर ने उनका क़त्ल करवा दिया था।”
“कॉलेज के अंदर जैसे ही सभी दाखिल हुए, भाई जी उनको किसी के साथ गैलरी में बातचीत करते हुए दिख गए। चारों साथियों ने जाकर भाई जी को प्रणाम किया तो भाई जी चौंक गए।”
“यहाँ कैसे बच्चों?”
“जी आप को ढूंढते हुए आये हैं।”
“क्यूँ क्या हुआ? सब कुशल- मंगल?”
“जी, कल जयचंद्र जी और शास्त्री जी से कुछ चर्चा हो रही थी। किसी के आ जाने से वो चर्चा अधूरी रह गयी थी। सोचा आज अगर आपके पास समय हो तो….” भगत सिंह ने मुस्कुराते हुए कहा।
“तुम कम शैतान हो? तुमको पता होगा कि यहाँ मैं खाली समय में ही आता हूँ तभी अपना गुट ले आये।” भाई जी ने भी मुस्कुरा कर जवाब दिया।
“हम लोग पुस्तकालय में बैठे हैं, आपके पास जब समय हो हमको बता दीजियेगा भाई जी।”
“ठीक है पर यह बताओ कि चर्चा का विषय क्या था और क्या रह गया है?”
“वो जयचंद्र जी हमको ग़दर पार्टी की पृष्ठभूमि के बारे में बता रहे थे। हमको यह तो समझ आ गया है कि शुरुआत कनाडा से ही हुई किन्तु इसमें लाला हरदयाल जी नाम नहीं आया कहीं। हमने तो सुना था… ” भगवती की बात को बीच में काट कर भाई जी बोले,
“वहाँ बैठो चलकर, मैं आता हूँ। एक काम और करना, वहाँ भाई बल्लू सिंह होंगे उनसे मेरा नाम लेकर कहना कि भाई वतन सिंह की कहानी सुनाएँ।”
भाई बल्लू सिंह को ढूँढने में ज़्यादा समय नहीं लगा। वह इस पुस्तकालय में सहायक का काम संभाल रहे थे। वो करीब साठ साल की उम्र वाले एक बुज़ुर्ग थे जिनके सर पर पगड़ी थी। दाड़ी के सफ़ेद बाल देख कर साफ़ समझ आ रहा था कि पगड़ी के अंदर वाले बालों का क्या रंग हो चुका होगा। आँखों पर गोल फ्रेम का चश्मा कानों पर एक डोरी के सहारे बंधा हुआ था। इस समय वो एक अलमारी के सामने एक स्टूल पर खड़े होकर अलमारी की धूल साफ़ कर रहे थे।
“सत श्री अकाल भाई जी!”
भाई बल्लू सिंह ने मुड़ कर देखा और सर हिला दिया। वो वापिस अपने काम में लग गए थे।”
“हमको परमानन्द भाई जी ने आपसे मिलने भेजा है भाई जी।” यशपाल लपके।
भाई बल्लू सिंह स्टूल से उतरे और उसी पर बैठ गए। कुर्ते के कोने से अपने चश्मे पर लगी धूल को पोछा और बोले,
“क्या कहते हैं भाई जी?”
“वो हमसे यहाँ मिलने आने वाले हैं। आपसे मिलकर किन्हीं वतन सिंह जी के बारे में बात करनी है।” यशपाल फिर आगे बढ़े।
“किन्हीं..??” भाई बल्लू सिंह जी की आवाज़ में एक कसैलापन आ गया था।
भगवती चरण को समझ आ गया कि मामला बिगड़ रहा है तो उन्होंने बात संभाल ली।
“अरे भाई जी, हम यहाँ गप्प बाजी में ना लग जाये तो भाई जी ने कहा है कि हम आपसे भाई वतन सिंह जी के बारे में जानकारी ले कर लिख लें। हम सभी को भाई वतन सिंह जी पर कॉलेज में एक गोष्ठी करनी है।”
भाई बल्लू सिंह अब मुस्कुरा रहे थे, “आओ बच्चों!” वो हाल की तरफ बढ़ गए।
हाल के एक कोने में तीन अलमारियों के बीच एक कमरा सा बना दिया गया था जिसमे एक फर्श बिछा हुआ था। भाई बल्लू सिंह एक कोने में रखे लोहे के संदूक के पास जाकर बैठ गए।
संदूक से एक फोटो निकाली, उसे चूमा और संदूक में फिर रख दिया।
“वतन सिंह के बारे में जानने से पहले भाग सिंह भाई और भाई बलवंत सिंह के बारे में तो जान लो तुम बच्चों।” भाई जी ने बोलना शुरू किया।
यह नाम सुनकर सभी को जयचंद्र जी की कनाडा में हुए आन्दोलन की बातें याद आने लगीं।
“अमृतसर जिले के भीखीविंद गाँव में जन्मे भाग सिंह के पिता का नाम नारायण सिंह और माता का मान कौर था। भाग सिंह ने कुछ साल ब्रिटिश भारतीय घुड़सवार सेना में काम किया था। कुछ दिन बाद चीन के में नगरपालिका पुलिस में लगभग तीन वर्षों तक सेवा करने के बाद वो वैंकूवर में बस गए थे। वहीं उनके दोस्त बलवन्त का जन्म जिला जालंघर के गाँव खुर्देपुर में हुआ था। पिता सरदार बुद्धसिंह का परिवार गाँव का अमीर और आदरणीय परिवार था। फ़ौज में भर्ती का उन दिनों सभी को शौक होता था सो बलवंत भी जाकर फोज में जा भर्ती हुए। फ़ौज में ही उनकी मुलाकात भाई संत करमसिंह जी से हुई थी। और बस इसी मुलाकात ने बल्वन्ते की ज़िन्दगी बदल कर रख दी।”
“ऐसा क्या हुआ था भाई जी?”
“गुरा इक देहि बुझाई। सभना जीआ का इकु दाता सो मैं विसरि न जाई।।” भाई बल्लू सिंह बोले।
यशपाल ने भगत सिंह की ओर देखा तो सुखदेव मुस्कुरा कर बोले,
“गुरु नानक देव जी का वचन है कि गुरु के गुणगान करने से एवं मन में उनके प्रति सम्मान रखने से समस्त दुखों का नाश तो होता ही है, साथ में अनन्य सुखों के भण्डार की भी प्राप्ति होती है।”
सुखदेव से मुँह से व्याख्या सुनकर भाई बल्लू सिंह जी के चेहरे पर मुस्कराहट आ गयी। उन्होंने सुखदेव के सिर पर हाथ फेरा और आगे बोले,
“संत करम सिंह साहब की संगति से बल्वन्ते ईश्वर उपासना में लीन रहने लगा था। एक दिन अचानक नौकरी छोड़ कर वो गाँव आ गया। अब उसका पूरा समय गाँव के पास की एक बंद गुफा में ईश्वर की उपासना में ही गुज़रता था। पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि करीब ग्यारह महीने बाद वो गुफा से बहार आया और सीधा कनाडा के लिए प्रस्थान कर गया।”
“हैं?? ऐसा क्या हुआ था भाई जी?” सब की आँखें चौड़ी हो गयीं।
“पता नहीं, पर बल्वन्ते यही कहता था कि कनेडा में उसको कोई बुला रहा है, कोई इंतज़ार कर रहा है उसका कनेडा में।”
“भाग सिंह?” भगत सिंह ने कोतूहल भरी आवाज़ में पूछा।
“क्यूँ ना मिलता? रब दी जोड़ी थी लाले।”
“कनेडा में उन दिनों भाग सिंह वैंकूवर की खालसा दीवान सोसायटी के अध्यक्ष चुने जा चुके थे गए। भाग सिंह और बलवंत सिंह ने कनेडा में परेशान और दुखी हिन्दुस्तानियों को एक साथ लेकर अंग्रेज़ों की नाक में दम करना शुरू कर दिया था।”
“जी हमारे गुरूजी ने बताया था हमको कि भाई बलवंत सिंह जी और भाई भाग सिंह ही कनाडा में हिन्दुस्तानियों का एक मात्र सहारा थे और उन दो देशभक्तों के कारण ही हिन्दुस्तानी हुन्डोरास के जाल में फंसने से बचे थे।” भगत सिंह विनम्रता से बोले।
“तुम्हारे गुरूजी ने यह बताया तुमको कि बल्वन्ते और भाई भागसिंह जी ने ही कनेडा में पहला गुरुद्वारा बनाने का काम शुरू किया था?”
सब शांत थे।
“उन्होंने तुम बच्चों को यह बताया कि अपने परिवार के सदस्यों, सगे-सम्बन्धियों के मृत शरीर का अंतिम संस्कार जला कर करने की आज्ञा नहीं थी। मजबूरी में शव को दफ़नाना पड़ता था। दाह संस्कार करना होता तो जान पर खेलना पड़ता था। शव को जंगल ले जाते, चोरी-छुपे कुछ लकड़ियाँ इकट्ठी करते, तेल डालते और आग लगाकर भाग पड़ते थे। डर यह भी रहता था कि कहीं पुलिस गोली ना मार दे।”
चारों को काटो तो खून नहीं। सकपकाए से बैठे थे।
“बल्वन्ते ने कसम उठायी कि वो इस मसले को सुलझा कर ही रहेगा। उसने अपना पैसा लगाकर कुछ जमीन खरीद डाली और दौड़-भाग कर उस ज़मीन पर दाह-संस्कार की आज्ञा भी प्राप्त कर ली। बल्वन्ते का नाम अब कनेडा में फैलने लगा था।”
“कुछ दिनों बाद गुरूद्वारे में भाग सिंह और बल्वन्ते की सभाओं में भीड़ इकट्ठी होने लगी थी। सच्चरित्रता और ईश्वर की प्रार्थना के साथ- साथ अब देशभक्ति के पाठ भी पढ़ाये जाने लगे थे। कोमागाटा मारू की घटना ने भारतियों के दिल में देशभक्ति की आग लगा दी थी। अंग्रेज़ों को जब तक समझ आता कि सभाओं में क्या हो रहा है, बात आगे बढ़ चुकी थी। बल्वन्ते और भाग सिंह भाई के लिए लोग अपनी जान तक देने को तैयार थे। लेकिन…”
भाई बिल्लू की आवाज़ अब धीमी पड़ने लगी थी। शायद गला सूखने लगा था। सुखदेव ने बगल में रखी सुराही से पानी का गिलास भरा और भाई बिल्लू को थमा दिया।
“अंग्रेज़ भी शांत कहाँ बैठने वाले थे। उनका एक अफ़सर था हॉपकिंसन जो ऊपरी तौर से तो इमिग्रेशन का अफ़सर था लेकिन था वो अंग्रेज़ों का जासूस। उसने हम हिन्दुस्तानियों का कनेडा में जीना दूभर कर रखा था। उसको समझ आ गयाथा कि जब तक भाई भाग सिंह और भाई बलवंत सिंह नाम के दो मतवाले कनेडा में हैं, अंग्रेज़ हिन्दुस्तानियों का कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे। उसने बहुत कोशिश की कि इन दोनों दोस्तों को कैसे भी कनेडा से बहार निकाल फेंका जाए लेकिन वो अपनी किसी भी चाल में सफ़ल नहीं हो पा रहा था। और फिर एक दिन…” भाई बिल्लू सिंह जी की आवाज़ भर्राने लगी थी।
“क्या हुआ भाई जी?” चारों घबरा गए।
“उस कमीने अफ़सर हॉपकिंसन ने एक गद्दार हिन्दुस्तानी को अपनी तरफ मिला ही लिया। 5 सितंबर 1914 को, भाई भाग सिंह की गुरुद्वारा में अरदास करते हुए बेला सिंह नाम के नमकहराम ने गोली मारकर हत्या कर दी।”
“क्या?? सब एक साथ बोल उठे।
“बल्वन्ते अपने दोस्त के साथ ही बैठा था। दूसरी गोली बेला सिंह ने बल्वन्ते पर चलाई तो जांबाज़ वतन सिंह सामने आ गया।”
“ओह, इन्ही वतन सिंह जी के बारे में ….”
“हाँ, भाई परमानन्द जी ने इसी वीर मतवाले वतन सिंह के बारे में जानने को भेजा था तुम सभी को मेरे पास।”
“गोली खाकर भी वतन सिंह बाज नहीं आया और आगे बढ़ता गया। दहाड़ता हुआ वो बेला सिंह की तरफ बढ़े जा रहा था। बेला ने अब गोली सीधे वतन सिंह के सीने में उतार दी। वतन सिंह फिर भी नहीं रुका और दौड़कर बेला सिंह की गर्दन जकड़ ली। बेला सिंह ने भी अपनी रिवाल्वर की सारी गोलियाँ वतन सिंह के ऊपर खाली कर डाली। वतन सिंह की पकड़ कमज़ोर और शरीर ढीला होता जा रहा था। बेला सिंह ने फ़ायदा उठाया और वो भाग निकला।”
चारों दोस्त भीगी आँखों वाले भाई बिल्लू सिंह को देखे जा रहे थे। भिया बिल्लू की आवाज़ अब रुंध चुकी थी।
“अस्पताल में जब भाई भाग सिंह के बेटे को मिलवाने लाये तो भाई जी बोले थे कि इसे यहाँ क्यूँ लाये हो? यह तो कौम की औलाद है, इसे दरबार साहिब ले कर जाओ। बोले कि मन था कि इन अंग्रेज़ों से भिड़कर आजादी के लिए अपनी जान देता। फूटी किस्मत मेरी कि बिस्तर पर पडे-पड़े ही मरना लिखा था। बस यही आखिरी शब्द थे भाई भाग सिंह के।”
भाई बिल्लू अचानक उठ गए और खिड़की पर जाकर आँसू पोंछने लगे।
“और आपके बल्वन्ते का क्या हुआ?” यशपाल ने पूछा।
“30 मार्च 1917 को बल्वन्ते भी फाँसी पर चढ़ा दिया गया था।”
“आप कैसे जानते हैं इतना उनके बारे में?” सुखदेव ने पूछा
“जान का टुकड़ा था इनका….!”
पीछे से भाई परमानन्द जी की आवाज़ सबको सुनाई दी तो सब चौंक गए।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे ही कुछ गुमनाम क्रांतिकारियों की गाथाएं आप क्रांतिदूत शृंखला में पढ़ सकते हैं जो डॉ. मनीष श्रीवास्तव द्वारा लिखी गयी हैं।
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