अंतरराष्ट्रीय बाजारों में उसे ‘लॉबी’ कहा जाता है। लॉबी का काम होता है नीति नियंताओं को प्रभावित करना, जनता में अपने पक्ष में सहमती बनाना। इसका फायदा? इससे कानून और नीतियां ऐसी बनती हैं, जिससे कुछ ख़ास व्यापारों को फायदा हो सके। भारत में शराब, सिगरेट, गुटखा के अलावा बिल्डर्स की भी एक मजबूत लॉबी है, ऐसा माना जाता है। इनकी वजह से ऐसे धंधे, जिनसे असल में जनता का नुकसान होता हो, वो चलती जाती हैं। दिल्ली में शराब घोटाले में उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया आबकारी विभाग भी देखते थे। उनपर जो जांच अभी चल रही है, उसके पीछे कहीं न कहीं ऐसी ही शराब की लॉबी है। बिहार के मुख्यमंत्री परिवार यानि जिससे लालू-राबड़ी मुख्यमंत्री रह चुके और तेजस्वी उप-मुख्यमंत्री, उसपर जो दिल्ली के मकान और दूसरे मॉल इत्यादि की जांच है, वहाँ से कोई बिल्डर लॉबी निकल आये तो कोई चौंकेगा भी नहीं।
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ऐसी एक और लॉबी होती है जिसपर बात नहीं की जाती। वो है दवाओं की लॉबी यानि ड्रग लॉबी। कई जीवनरक्षक दवाओं की कीमतें इतनी ज्यादा इसलिए होती हैं क्योंकि पेटेंट कानूनों के जरिये उन्हें बनाने का अधिकार किसी एक-दो कंपनियों के पास ही सीमित होता है। मोनोपोली होने, एकछत्र राज होने के कारण वो दवाओं का मनमाना दाम और मनमानी आपूर्ति रख सकती हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर की ये ड्रग लॉबी इतनी मजबूत मानी जाती है कि कोई भी राजनेता आसानी से इसका सामना करने को, इनके विरुद्ध कोई कानून बनाने को तैयार नहीं होता। भारत की पिछली कई सरकारों ने स्वयं को ‘जनहित की सरकार’ और देश को ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ तो बताया, मगर भारत की गरीब जनता को स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया हो सकें, इसके लिए कुछ विशेष नहीं किया। मोदी सरकार ने ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना’ और फिर ‘जेनेरिक मेडिसिन’ लाकर इस स्थिति को बदल दिया।
इस लॉबी के काम करने का तरीका समझना हो तो देखिये कि भारत में किन बिमारियों को खतरनाक बताकर उनपर लगातार सेमिनार-गोष्ठी इत्यादि आयोजित होती रहती है? आपको आसानी से याद आ जायेगा कि एड्स और एचआईवी के खिलाफ वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन से लेकर बिल गेट्स के एनजीओ तक को आपने काम करते तो देखा ही है। क्या टीबी के खिलाफ भी आपने ऐसे कोई अभियान देखे हैं? दवाओं के बड़े निर्माता, जिस तकनीक का प्रयोग करते हैं, उन्हें पहले से ही एमएसएफ ‘एवरग्रीनिंग’ बुलाती है। ‘एवरग्रीनिंग’ का मोटे तौर पर अर्थ होता है मुख्य पेटेंट की समयसीमा समाप्त होने से पहले ही अलग-अलग, छोटे देशों से पेटेंट के आवेदन दिए जाते हैं। अक्सर नए पेटेंट की वजह ये बताई जाती है कि बीमारी के वायरस में बदलाव आ गए और उसकी वजह से दवा को बदलना पड़ा है। इस तरह अगले कई वर्षों के लिए फिर से पुरानी दवा को नए पैकेट, नए नाम से बेचने की छूट मिल जाती है। जॉनसन एंड जॉनसन ने टीबी की आवश्यक दवा बेडाक्विलिन पर भी भारत और दूसरे कई देशों में ऐसे ही आवेदन दे रखे थे।
भारत में जो बेडाक्विलिन (Bedaquiline Medicine) के लिए आवेदन दिया गया था, उसे मान लिया जाता तो दिसम्बर 2027 तक के लिए फिर से जेनेरिक दवाओं पर प्रतिबन्ध होता और जॉनसन एंड जॉनसन का एकछत्र साम्राज्य जारी रहता। सस्ती दवाएं बाजार तक आ ही नहीं पातीं। बेडाक्विलिन 2020 से ही ड्रग रेसिस्टेंट टीबी (डीआर – टीबी) के लिए जरूरी दवा है। इसके अलावा जो इंजेक्शन के जरिये दी जाने वाली दवाएं हैं, उनके साइड इफ़ेक्ट से किडनी और सुनने की क्षमता पर असर होता है। जिन टीबी से जूझने वालों – मुंबई की नंदिता वेंकटेशन और दक्षिण अफ्रीका की फुमेज़ा टिसिले ने मुंबई पेटेंट ऑफिस में 2019 में चुनौती दाखिल की थी, उन दोनों की सुनने की क्षमता प्रभावित है। फिलहाल डीआर-टीबी की दवाओं के खर्च में से 35-70% तक का खर्च केवल इसी दवा का होता है। पेटेंट बढ़ाए न जाने का फायदा ये हुआ है कि जुलाई 2023 में जब जेनेरिक दवा में बेडाक्विलिन मिलने लगेगी तो इसकी कीमतें 80 फीसदी तक गिर गई होंगी। अभी एक व्यक्ति के लिए इसका खर्च प्रति माह 3500 रुपये (45 डॉलर) से अधिक का आता है, जबकि जेनेरिक दवाओं में इसका मूल्य मुश्किल से 1700 रुपये (8-17 डॉलर) या उससे कम हो जाएगा।
भारत के लिए टीबी एक बड़ी समस्या है क्योंकि विश्व भर के टीबी के मामलों में से करीब 28 प्रतिशत मामले केवल भारत में होते हैं। प्रति लाख आबादी में 2015 की तुलना में 2021 में नये टीबी के मामलों में 18% की कमी दर्ज की गयी है। ड्रग रेसिस्टेंट यानी डीआर-टीबी के मामले भी 2015 में 1.49 लाख से घटकर 2021 में 1.19 मामले (20% गिरावट) दर्ज हुए। स्वास्थ्य के क्षेत्र में तीसरी दुनिया (थर्ड वर्ल्ड) माने जाने वाले भारत जैसे देशों में ऐसे फैसलों से बदलाव आएगा, ऐसी उम्मीद की जा सकती है। लोककल्याणकारी नाम रख लेने में, और सचमुच लोककल्याणकारी होने में, अंतर तो होता ही है।
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