बीबीसी की प्रोपेगेंडा डॉक्यूमेंट्री इस समय चर्चा का विषय बनी हुई है। भारत में इस डॉक्यूमेंट्री के प्रतिबंध पर प्रश्न और उसका विरोध करते हुए उसकी जगह-जगह स्क्रीनिंग तक, लगभग सब कुछ बहुत ही कम समय में हो चुका है। जहाँ एक ओर यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि एकाएक 2002 के दंगों का जिन्न क्यों बाहर लाया जा रहा है, वहीं यह भी पूछा जा रहा है कि जो बातें और विषय पहले ही भारतीय न्यायालयों में सेटल हो चुके हैं उस पर फिर से प्रश्न उठाने का औचित्य क्या है?
वर्ष 2014 में केंद्र में सत्ता पाने के बाद से ही ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा भारत की राजनीति का मुख्य नारा बन गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक नारे की बात करते ही रहे हैं परन्तु उनके विरोधी भी इसी नारे की बात करते हैं, फिर वह चाहे आलोचना के लिए करें या फिर प्रश्न पूछने के लिए। कई स्तर पर प्रश्न उठने के बावजूद विकास की कई योजनाएं अल्पसंख्यकों के लिए लाई गई और उन्हें सफलतापूर्वक लागू करने के साथ-साथ उनके वांछित परिणाम भी दिखाई दिए। समर्थकों द्वारा एक मोर्चे पर विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी अपने इस विज़न से पीछे हटते नहीं दिखे।
इसी क्रम में पार्टी ने ‘एक हाथ कम्यूटर, एक हाथ कुरान’ स्लोगन जारी किया। वहीं खुद प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले वर्ष पार्टी की कार्यसमिति बैठक में कार्यकर्ताओं से पसमांदा मुसलमानों के बीच जाकर उन्हें पार्टी से जोड़ने के लिए प्रयास किए जाने का आह्वान किया। इन सब प्रयासों का असर यह हुआ है कि विपक्षियों द्वारा वर्षों से प्रधानमंत्री की जो मुस्लिम विरोधी छवि बनाई गई थी, उस पर ख़ासा प्रभाव पड़ता दिखाई दिया और सार्वजनिक तौर पर अल्पसंख्यक समाज के कई हलकों द्वारा इसे स्वीकार किए जाने का भी आभास होने लगा। इसकी पुष्टि चुनावों के दौरान कुछ मुस्लिम बाहुल्य इलाकों में पार्टी को मिले अनुमानित समर्थन में देखा गया।
बीबीसी की यह डॉक्यूमेंट्री प्रधानमंत्री मोदी द्वारा नए भारत में पिछड़े मुस्लिमों से जुड़ने की मुहिम को भटकाने का प्रयास है। शायद मुस्लिमों और पीएम मोदी के बीच कम होती दूरी से ‘इकोसिस्टम’ डरा हुआ है। यह गठजोड़ देश के अंदर तक ही सीमित नहीं है। भारत की सीमाओं से बाहर वैश्विक स्तर पर कार्य कर रहे इकोसिस्टम को इस प्रयास से क्या लाभ होगा?
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था वहाँ के सुचारु शासन-प्रशासन पर निर्भर करती है। सांप्रदायिकता के कारण तनाव का माहौल और फिर दंगे उपद्रव, यह सभी कारक राष्ट्र में ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ और निवेश को ही प्रभावित करेंगे। इसका एक पहलू यह भी है कि मुस्लिम समुदाय अर्थव्यवस्था में एक अहम भूमिका निभाता है। ऐसे में इन बाहरी ताकतों को भारतीय अर्थव्यवस्था की गति को धीमा करने के विकल्पों पर विचार किया जा रहा है। यह डॉक्यूमेंट्री प्रयास का हिस्सा है।
जब-जब भाजपा की सरकार केंद्र में रहती है, तब भारत में से ‘डरा हुआ मुसलमान’ का नैरेटिव गढ़ना आसान हो जाता है क्योंकि इकोसिस्टम का हर तत्व मिलकर काम करने लगता है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि इकोसिस्टम इस वोट बैंक को पीड़ित ही रखना और दिखाना चाहता है। डॉक्यूमेंट्री में शामिल अधिकतर वह लोग हैं जो ब्रिटेन में मुस्लिम समुदाय को वोट बैंक बनाना चाहते हैं। वरना 2023 में 2002 की बात ना हो रही होती।
ऐसे में यह तथ्य स्थापित किया जाना चाहिए कि नरेंद्र मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री की गद्दी 2002 के दंगों से हुए ध्रुवीकरण की वजह से नहीं मिली। किसी राज्य में लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बनना और अब भी उस जीत को बरकरार रखना यह ध्रुवीकरण या किसी हिंदुत्व की छवि के सहारे सम्भव नहीं है। यह एक लम्बी प्रक्रिया के तहत विकास का परिणाम है।
गुजरात के वोटर्स हिन्दु-मुस्लिम मुद्दों से परे गुजरात मॉडल पर चर्चा कर वोट तय करते हैं। ऐसे में जो ब्रिटेन की ओर देख रहे हैं, उन्हें दासता से बाहर निकल कर समझना चाहिए कि यह वो गुलाम भारत नहीं है जहाँ हमारी नियति ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स द्वारा तय की जाएगी।
इन सब विषयों के बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत की सबसे बड़ी अदालत ने नरेंद्र मोदी पर लगे सभी आरोपों को निराधार बताया है। इसके बाद क्या बचता है? इसका उत्तर शायद यह है कि इसके बाद प्रोपगेंडा ही बचता है और वह हो रहा है।