विश्व के आधे से अधिक हिस्से पर कभी अपना शासन चलाने वाला ब्रिटेन आज भारत के एक ऐसे प्रधानमंत्री से परेशान है जिसे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के बाद बहुमत के साथ चुना गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, यूनाइटेड किंगडम को पछाड़कर भारत आज दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और यह संभावनाएँ लगाई जा रही हैं कि इस दशक के अंत तक भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है।
ऐसे में ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन (BBC) गुजरात दंगों (Gujarat Riots) को मुद्दा बनाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सवाल उठाने की कोशिश कर रहा है। इसके पीछे कई सारी वजह हो सकती हैं, जिनमें से भारत का एक ताकतवर राष्ट्र के रूप में उभरना सबसे प्रमुख है।
हाल ही में बीबीसी ने एक कथित ‘डॉक्युमेंट्री’ (BBC documentary on PM Narendra Modi) विवादों में है। इसका नाम है, “इंडिया: द मोदी क्वेश्चन”।
गुजरात में साल 2002 में हुए दंगों में अपनी जान गँवाने वाले 59 कारसेवकों की बात आज भी कहीं सामने नहीं आती है। उनके नाम शायद ही किसी को मालूम हों, लेकिन जाकिया जाफ़री का नाम हर किसी की ज़ुबान पर है।
जब कॉन्ग्रेस सांसदों के कहने पर इंदिरा ने BBC को बंद कर दिया
‘इंडिया, द मोदी क्वेश्चन’
BBC की इस डॉक्युमेंट्री की शुरुआत ही साल 2021 की हरिद्वार धर्म संसद के बैकग्राउंड वॉयस स्पीच से होती है, जिसका गुजरात में 27 फरवरी 2002 के आसपास हुई घटनाओं से कोई संबंध नहीं है। लेकिन इस प्रॉपगेंडा वीडियो का असली मक़सद क्या हो सकता है ये तो कम से कम स्पष्ट हो जाता है।
अब उस कथित डॉक्युमेंट्री की प्रमाणिकता के बारे में सोचिए, जिसने ‘तथ्यों’ के तौर पर आकार पटेल, अरुंधति रॉय और हरतोष सिंह बल (हिट जॉब के लिए पॉपुलर Caravan के राइटर) जैसे कट्टर मोदी विरोधी ब्रिगेड का इस्तेमाल किया हो, इन सभी विवादित चेहरों में एक और बात कॉमन है और वो है इनकी भारत विरोधी विचारधारा। और मानो यही काफ़ी नहीं था। इसमें एक कथित पत्रकार अलीशान जाफरी को भी शामिल किया गया है जिसकी ट्विटर पर सुबह भी हिंदू-मुसलमान और शाम भी हिंदू-मुसलमान करने से ही होती है।
बीबीसी ने भी अपनी डाक्यूमेंट्री में सिर्फ़ यही किया है। कारसेवकों से भरी ट्रेन का सिर्फ़ ज़िक्र किया और इसके पीछे के कारणों को बेहद सावधानी से अज्ञात बता दिया। उनके बारे में बात तक नहीं की गई। बाक़ी उन सभी चीजों और विवादित चेहरों की बात की गई है जो भारत में 2024 से पहले मुस्लिमों की भावनाओं को भड़का सकती हों।
गोधरा ट्रेन अग्रिकांड के दोषी अब्दुल की पत्नी को कैंसर, सुप्रीम कोर्ट ने बढ़ाई जमानत अवधि
लेकिन यह जान लेना भी आवश्यक है कि गुजरात दंगों के बारे में जो माहौल हर बार बनाये जाता है, वह कितना सही और कितना ग़लत है।
BBC ने 28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद में गुलबर्ग सोसाइटी में हुई हिंसा के दौरान मारे गए कांग्रेस नेता एहसान जाफरी का ज़िक्र किया गया है, लेकिन बीबीसी उनकी पत्नी की याचिका की सुनवाई के दौरान कोर्ट द्वारा दिये गये बयान को बताना ज़रूरी नहीं समझता। ज़ाकिर जाफ़री की पत्नी जकिया जाफरी ने SIT द्वारा नरेंद्र मोदी सहित 64 लोगों को क्लीन चिट दिए जाने को चुनौती दी थी। 2002 Gujarat Riot Case में जाकिया जाफरी की याचिका सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुकी है।
इस सुनवाई में कोर्ट में जो बयान दिये गये वो जान लेने बेहद आवश्यक हैं। जाफ़री मामले की सुनवाई के दौरान ज़किया की तरफ से कपिल सिब्बल ने बहस की थी जबकि SIT का पक्ष मुकुल रोहतगी ने रखा था। रोहतगी ने इस याचिका का विरोध करते हुए कहा था कि याचिकाकर्ता मामले में पीएम मोदी का नाम जुड़ा होने के चलते इसे खींचते रहने की कोशिश कर रहे हैं। रोहतगी ने याचिकाकर्ता की मंशा पर भी सवाल उठाते हुए कहा था, “अगर इन्हें सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुई जांच पर भी भरोसा नहीं है, तो क्या अब स्कॉटलैंड यार्ड (ब्रिटिश पुलिस मुख्यालय) की जांच टीम को बुलाने की मांग करना चाहते हैं?”
इस मामले पर फैसला देने वाली बेंच ने कहा कि यह अपील आदेश देने योग्य नहीं है कोर्ट ने माना कि मामले में मजिस्ट्रेट का आदेश सही था और उन्होंने सभी पहलुओं को देखने के बाद उचित कानूनी प्रक्रिया का पालन करते हुए आदेश दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में SIT के कामकाज की तारीफ भी की साथ ही, यह भी कहा है कि इस मामले को जानबूझकर लंबा खींचा गया बेंच ने कहा कि कुछ लोगों ने न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने का प्रयास किया ताकि मामला चर्चा में बना रहे। हर उस व्यक्ति की ईमानदारी पर सवाल उठाए गए, जो मामले को उलझाए रखने वाले लोगों के आड़े आ रहा था। न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग कर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करने वाले लोगों पर उचित कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। मज़ेदार बात ये है कि बीबीसी की डॉक्युमेंट्री में कोर्ट के इन शब्दों का उल्लेख नदारद है।
जॉन स्ट्रॉ की भूमिका
बीबीसी इस कथित डॉक्युमेंट्री में जिस ब्रिटिश सरकार की रिपोर्ट के अंश की बात कर रहा है, वह साल 2002 में जैक स्ट्रॉ के कार्यकाल के दौरान ही मीडिया में लीक हो गए थे। लेकिन यह बात सामने नहीं रखी जा रही है। यही जॉन स्ट्रॉ टोनी ब्लेयर की सरकार में ब्रिटेन के विदेश सचिव थे। इराक युद्ध के बारे में पूछताछ के लिए गठित चिल्कोट रिपोर्ट के अनुसार, स्ट्रॉ एकगोपनीय समझौते के बारे में जानते थे। इस वादे के अनुसार, तब के ब्रिटिश पीएम ब्लेयर ने 2002 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश से हर तरह उनके साथ रहने का आश्वासन दिया था।
चिलकोट रिपोर्ट के अनुसार, जो कि इराक़ की लड़ाई की समीक्षा के लिए जारी की गई थी। इसके लिए उन्होंने झूठी इंटेलिजेंस रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया था कि सद्दाम हुसैन ब्रिटेन के लिए कोई ख़तरा नहीं है, जबकि इसी जैक स्ट्रॉ ने फैक्ट्स से छेड़छाड़ कर सद्दाम को गुनहगार और हत्यारा साबित करने का प्रयास किया और कहा गया कि उसके पास भारी तबाही का समान मौजूद है। यह जनता को इस तरह से तैयार करने के लिए किया गया था कि इराक से सभी को खतरा है और इराक में सैन्य हस्तक्षेप बेहद आवश्यक है।
इसके बाद इराक पर आक्रमण हुआ, जिसमें हजारों मुस्लिमों की जान चली गई। इराक अभी भी इससे उबर नहीं पाया है और देश अशांति से घिरा हुआ है। सद्दाम के ख़िलाफ़ माहौल बना कर इराक़ के तेल के लिए 50,000 से ज़्यादा बच्चों की हत्या करने वाला मुल्क भारत पर इनक्वायरी बिठाने की बात कर रहा है।
बीबीसी की इस डॉक्युमेंट्री के समर्थन में हर वो कथित पत्रकार और एक्टिविस्ट आ गया है जिनका करियर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाने से ही बना है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री की छवि को धूमिल करने का बीबीसी का यह बेहूदा प्रयास ऐसे लोगों के करियर में एक और अवसर बनकर आया है।
निश्चित तौर पर, जब संपूर्ण विश्व आर्थिक मंदी के कगार पर खड़ा है, तब भारत की अर्थव्यवस्था बेहतरीन स्थिति में है। रुस के साथ भारत की नीति तथा गल्फ़ देशों से भारत के मज़बूत होते रिश्तों के बाद बीबीसी की यह कुंठा इस डाक्यूमेंट्री के रूप में सामने आई है।
पीएम नरेंद्र मोदी पर बीबीसी के इस प्रॉपगेंडा के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट रूप से उसे औपनिवेशिक मानसिकता का उदाहरण बताते हुए कहा है, “ध्यान देने की बात है कि इसे भारत में प्रदर्शित नहीं किया गया है। हमें लगता है कि यह महज़ एक प्रॉपगेंडा सामग्री है, जिसे सिर्फ़ एक मनगढ़ंत कहानी को आगे बढ़ाने के लिए बनाया गया है। इसमें पूर्वाग्रह, निष्पक्षता की कमी और औपनिवेशिक मानसिकता स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है।”
‘द गार्जियन’ जैसे समाचार पत्र प्रधानमंत्री की तुलना उन ग्लोबल नेताओं से करते देखा जा सकता है, जो हाल ही के वर्षों में विश्व में बड़े क़द के साथ उभरे हैं।
साल 2023 मोदी सरकार के वर्तमान कार्यकाल का अंतिम वर्ष है और राजनीतिक दलों ने 2024 के राजनीतिक वातावरण की तैयारी शुरू कर दी है।
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि ‘सबका साथ सबका विकास’ देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इन वाक्यों के लिए अक्सर तंज किया जाता है लेकिन ब्रिटेन की ओर से किए जा रहे इन हमलों के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि इन तंज करने वालों को क्यों ठहर जाना चाहिये।
पीएम मोदी ने अपने कार्यकाल में मीडिया द्वारा रचे गए “मुस्लिम उत्पीड़न” के मिथक को सफलतापूर्वक तोड़ा है। लोकसभा चुनावों से ले कर विधानसभा चुनावों में आने वाले नतीजे इस बात की तस्दीक़ भी करते हैं। यदि प्रधानमंत्री मुस्लिम विरोधी होते तो मतदान के नतीजे कुछ और होते। यह कितनी साधारण सी बात है।
साल 2002 के दंगों के बाद गुजरात को स्थिर होने में बिलकुल भी समय नहीं लगा। समावेशी विकास के 20 वर्ष आज हर राज्य के लिए प्रेरणास्रोत हैं।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले गुजरात की छवि एक गुजरात दंगों में बांधकर रख दी गई। यहां तक कि साल 2002 के में अक्षरधाम आतंकवादी हमला और फिर 2008 के सीरियल बम विस्फोटों के रूप में कई क़िस्म की उकसावे वाली घटनाएँ भी हुई किंतु इन्होंने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को बेहतरीन ही साबित किया।
बीबीसी की यह प्रायोजित डॉक्युमेंट्री इमरान दाऊद की कथा और गवाही के साथ शुरू होती है। उत्तर गुजरात की प्रांतिज तहसील के वडवासा गांव के समीप 2002 में तीन ब्रिटिश नागरिकों सहित चार लोगों की हत्या कर दी गई थी। इमरान दाऊद इस केस में जीवित बच गए लोगों में से एक था। उन 9 मामलों में से एक जिनकी जांच सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एसआईटी द्वारा की गई थी। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि यह मामला दुर्लभतम मामलों में से एक था जहां ब्रिटिश राजनयिकों ने गवाह के रूप में गवाही दी थी।
2002 में ब्रिटिश उच्चायुक्त इयान रीक्स और एक और ब्रिटिश राजनयिक ने 2012 में स्काइप के माध्यम से ट्रायल कोर्ट के सामने गवाह के रूप में गवाही दी थी। निचली अदालत ने सभी 6 आरोपियों को बरी कर दिया था। दरअसल, 3 प्रमुख गवाह अदालती कार्यवाही के दौरान मुकर गए। यहां तक कि मामले के शिकायतकर्ता इमरान दाऊद, जिसने वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से अपना बयान दर्ज कराया था, आरोपी की स्पष्ट रूप से पहचान करने में विफल रहा।
चंदूभाई पटेल (62) – 6 बरी किए गए आरोपियों में से एक – ने कहा कि जब अपराध की सूचना दी गई थी तो वह अपराध स्थल पर मौजूद नहीं थे और दावा किया कि उनका एकमात्र ‘अपराध’ यह था कि उनके पास जिस इलाके में घटना हुई उस राजमार्ग के पास 52 बीघा जमीन थी। कोर्ट ने कहा कि इनके खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं।
बीबीसी की डॉक्युमेंट्री में किन लोगों की है भूमिका
जैक स्ट्रॉ – उल्लेखनीय तथ्य यह है कि बीबीसी की यह डाक्यूमेंट्री जैक स्ट्रॉ की गवाही पर आधारित है- जैक स्ट्रॉ उस दौर में ब्रिटिश विदेश सचिव थे जब यूके ने पीएम मोदी पर प्रतिबंध लगाया था। एक पत्रकार ने तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव जैक स्ट्रॉ के हवाले ने कहा कि गुजरात दंगे में तब से मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका “संदिग्ध” थी।
बीबीसी के इस दावे का तत्कालीन विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने खंडन किया है। कंवल सिब्बल ने कहा, “मैं उस समय विदेश सचिव था। मैं यूके मिशन की शरारतों से वाकिफ हूं। तब ब्रिटेन ने अपने राजनयिक को गुजरात भेजा और दिल्ली में यूरोपीय संघ के दूतों को अत्यधिक पक्षपातपूर्ण “रिपोर्ट” दी। यूरोपीय संघ के एक दूत ने इसकी सूचना मुझे दी। उनके इस जवाब पर मैंने तुरंत दिल्ली में उनके मिशन को चेतावनी दी, और कहा कि वे हमारे आंतरिक मामले में हस्तक्षेप न करें।”
वास्तव में गुजरात दंगों की कहानी गढ़ने में स्ट्रॉ की सक्रिय भूमिका को इस तथ्य से सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है कि ब्लैकबर्न के उनके संसदीय क्षेत्र में एक बड़ी आबादी मुस्लिमों की है और ब्रिटिश उच्चायोग की रिपोर्ट (बीबीसी द्वारा दिखाई गई डाक्यूमेंट्री के अनुसार) से किया गया यह “लीक” आकस्मिक नहीं था।
यह स्पष्ट रूप से जिस उद्देश्य के लिए किया गया है उसका ज़िक्र सुप्रीम कोर्ट कर चुका है और वो ये है कि गुजरात दंगों को मुद्दे को ज्वलंत बनाए रख कर अपने गोपनीय उद्देश्यों की हासिल करना है। यही जैक स्ट्रॉ मोदी सरकार के अनुच्छेद 370 को रद्द करने के फैसले के भी आलोचक रहे हैं।
‘एक्टिविस्ट’ की भूमिका
बीबीसी ने अपनी डॉक्युमेंट्री में ऐसे लोगों के बयान शामिल किए हैं जिनका मोदी-विरोधी, भारत-विरोधी और हिंदू-विरोधीविचारों का एक इतिहास रहा है। इनका करियर बनाने में इनके हिंदू धर्म, नरेंद्र मोदी, आरएसएस और यहां तक कि भारत के खिलाफ नफरत से भरे बयानों की अहम भूमिका रही है।
डॉक्युमेंट्री में तीस्ता सीतलवाड़, पूर्व IPS आरबी श्रीकुमार और संजीव भट्ट के नामों का इस्तेमाल किया गया है लेकिन डाक्यूमेंट्री ने इनके लिए कोर्ट द्वारा इस्तेमाल किए गये शब्द नज़रअन्दाज़ कर दिये।
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल जाफरी की याचिका को खारिज करते हुए कहा था कि ‘प्रक्रिया के दुरुपयोग में शामिल सभी लोगों को कटघरे में खड़ा होना चाहिए और उनके ख़िलाफ़ कानून कार्रवाई की जानी चाहिये’। इसके बाद इन तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया है।
गुजरात दंगों के मामले में अहमदाबाद क्राइम ब्रांच ने तीस्ता सीतलवाड़, पूर्व IPS संजीव भट्ट और DGP आरबी श्रीकुमार के खिलाफ फर्जी दस्तावेज बनाकर साजिश रचने का मामला दर्ज किया है।
आइए एक-एक कर तीस्ता सीतवलवाड़, आरबी श्रीकुमार और संजीव भट्ट द्वारा निभाई गई भूमिका की विस्तार से जाँच करें।
तीस्ता सीतवलवाड़
सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस नामक एनजीओ की सचिव तीस्ता सीतलवाड़ लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी गई सरकार और राज्य के खिलाफ द्वेष फैलाने में सबसे आगे रही हैं। 2002 के दंगों की दुर्भाग्यपूर्ण घटना के पीड़ितों की दुर्दशा का लाभ उठाते हुए, उन्होंने राज्य को बदनाम करने के अपने छिपे हुए एजेंडे को आगे बढ़ाया। उसने बिना किसी स्पष्टीकरण के 216 दिनों की देरी के बाद, गुजरात के उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका के रूप में – जकिया जाफरी याचिका दायर की – जिसे हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी तीस्ता सीतलवाड़ के NGO को गुजरात दंगों के बारे में निराधार जानकारी देने के लिए फटकार लगाई थी। शाह ने यह भी कहा कि उसके NGO की मदद UPA सरकार द्वारा की गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जाकिया जाफरी किसी और के निर्देश पर काम करती थीं। इस NGO ने कई पीड़ितों के हलफनामे पर दस्तखत किए और उन्हें पता तक नहीं है।
सीतलवाड़ ने जाकिया जाफरी की भावनाओं का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए किया। कोर्ट ने कई मामलों में यह पाया कि बलात्कार और नृशंस हत्याओं की वीभत्स कहानियों को सुप्रीम कोर्ट के समक्ष उन कहानियों को विश्वसनीय बनाने के लिए गवाहों को सिखाया गया था। उन गवाहों का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट को गुमराह करने और नरेंद्र मोदी तथा उनकी सरकार के खिलाफ राजनीतिक उद्देश्यों के अनुरूप कार्रवाई करने के लिए किया गया था।
संजीव भट्ट
संजीव भट्ट 1988 में अपने करियर की शुरुआत से ही एक बेहद घटिया ट्रैक रिकॉर्ड के साथ एक बदनाम आईपीएस अधिकारी हैं। उन्हें विभिन्न अधिकारियों (एनएचआरसी, राज्य सतर्कता आयोग और जांच आयोगों) द्वारा गंभीर दुराचार के लिए दोषी ठहराया गया है। और अपराध सहित हिरासत में मौत, यातना, मानवाधिकारों का उल्लंघन, जबरन वसूली, आधिकारिक संसाधनों का दुरुपयोग आदि आरोप उन पर लगे हैं।
वो कई सालों बाद मीडिया के समक्ष यह दिखाते हुए आए कि अब उनकी अंतरात्मा जाग गई है । यह भी बताना आवश्यक है कि संजीव भट कांग्रेस के साथ बेहद करीबी संबंध रहे हैं। संजीव भट्ट सुर्खियों में आए ही तब थे जब 2002 गुजरात दंगे में उन्होंने उस वक्त राज्य के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी की कथित भूमिका को लेकर गंभीर आरोप लगाए।
आरबी श्रीकुमार की भूमिका
आरबी श्रीकुमार गोधरा कांड के दौरान गुजरात में सशस्त्र इकाई के प्रभारी अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक थे और 2002 के गुजरात दंगों के तुरंत बाद खुफिया डीजीपी थे। वह फर्जी इसरो जासूसी मामले में इसरो के वैज्ञानिक श्री नंबी नारायणन को झूठा फंसाने में अपनी भूमिका के लिए कुख्यात है। नरेंद्र मोदी के खिलाफ व्यक्तिगत प्रतिशोध के चलते गुजरात दंगों को भुनाने का प्रयास किया गया ।
श्रीकुमार और भट्ट के बीच विवाद
साल 2011 में श्रीकुमार और संजीव भट्ट दोनों 27 और 31 दिसंबर 2011 के बीच खुलेआम एक बहस में थे। दोनों ने रहस्यमय तरीके से एक-दूसरे पर गंभीर और आपराधिक आरोप लगाने के बाद समझौता कर लिया।
गोधरा में न्याय
भारत में अन्य दंगों की तुलना में 2002 में हुए दंगों में न्याय बेहद तत्परता से दिये गये। 2002 के दंगों के लिए कुल 4,274 मामले दर्ज किए गए थे – जिसमें कुल 19,198 हिंदू और 7,799 मुस्लिम गिरफ्तार किए गए थे। पुलिस ने हर घटना के लिए प्राथमिकी दर्ज करने की कोशिश की, साथ ही राहत शिविरों में भी प्राथमिकी दर्ज की गई – नरोदा (69), माधवपुरा (23), मेघनगर (1). नवंबर 2012 तक, 47 मामलों में पहले ही दोष सिद्ध हो चुके हैं – 393 अभियुक्तों को दोषी ठहराया जा चुका है।
महिलाओं को स्वतंत्र रूप से आने और अपनी शिकायतें देने के लिए एक सशक्त महिला प्रकोष्ठ का गठन किया गया था। प्रकोष्ठ ने स्वयं राहत शिविरों का दौरा किया और कुल मिलाकर 856 महिलाओं की व्यक्तिगत रूप से सुनवाई की और 1,116 शिकायतें दर्ज कीं। वरिष्ठ महिला पुलिस अधिकारियों द्वारा निगरानी और पर्यवेक्षण के विशेष प्रावधान के साथ रिपोर्ट किए गए 5 बलात्कार के मामलों की ठीक से जांच की गई।
हालाँकि, जब न्याय की यह नियमित प्रक्रिया अपना काम कर रही थी इसी बीच उकसाए जाने पर घटना के 4 साल बाद विशेष रूप से प्रदेश के मुख्यमंत्री और 61 अन्य उच्च स्तरीय अधिकारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई थी। हालांकि शिकायत तथ्यात्मक त्रुटियों से भरी हुई थी, भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) द्वारा नियुक्त एक विशेष जांच दल (SIT) द्वारा इसकी गहन जांच की गई थी। हर कदम पर SC द्वारा जांच की बारीकी से निगरानी की गई। विभिन्न गवाहों की गहन जांच और परीक्षण के बाद, जिसमें स्वयं सीएम की 9 घंटे की लंबी पूछताछ भी शामिल है; एसआईटी ने निष्कर्ष निकाला कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला है। इस तथ्य की बाद में SC ने पुष्टि की थी। लेकिन डॉक्यूमेंट्री में कहीं भी इस तथ्य को साझा नहीं किया गया।
बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री में यह उल्लेख नहीं किया गया है कि दंगों की व्यापक जांच के लिए सरकार द्वारा तुरंत एक जांच आयोग नियुक्त किया गया था। न्यायमूर्ति जीटी नानावती – जिन्होंने सिख विरोधी दंगों की जाँच आयोग का नेतृत्व किया था – को सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव के आधार पर अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा दिया गया यही एकमात्र नाम था। इतना ही नहीं, भारत में दंगों के इतिहास में पहली बार मुख्यमंत्री और मंत्रियों की भूमिका और आचरण को नानावटी आयोग ने जांच के दायरे में शामिल किया है। यह राज्य सरकार ने ही किया है और ऐसा कर के सरकार ने दंगों की वास्तविकता तक जाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता का परिचय भी दिया।
बीबीसी का दोहरा मापदंड
बीबीसी की डॉक्युमेंट्री ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘नफ़रत का सौदागर’ कहने वाले सैड्रिक प्रकाश की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए गुजरात के पूर्व गृहमंत्री हरेन पांड्या की हत्या के 12 अभियुक्तों को बरी करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया। बीबीसी ने गुजरात दंगों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश में सुप्रीम कोर्ट के आख़िरी फ़ैसले को अनदेखा कर दिया। बीबीसी के अनुसार, हरेन पांड्या के कथित हत्यारों को बरी करने में सुप्रीम कोर्ट सही था, लेकिन उनका मानना है कि इसमें न्याय नहीं मिल पाया क्योंकि “गुजरात में नफ़रत फैलाने वालों पर” एक्शन नहीं लिया गया।
BBC को भारत की इतनी फ़िक्र रहती है कि वो अपने इतिहास को ही भूल गया है। उसके पास रॉयल फ़ैमिली के कारनामों पर डॉक्युमेंट्री बनने का समय हो या ना हो लेकिन उन्हें 2024 से पहले गुजरात दंगों पर फर्जी नैरेटिव चलाना है। भारत पर अगर बीबीसी को बात करनी है तो बीबीसी को 1943 के बंगाल के अकाल पर एक सिरीज़ करनी चाहिये। विंस्टन चर्चिल के उस बयान की समीक्षा भी करनी चाहिये जिसमें उसने कहा था कि मैं तब तक नहीं मानूँगा कि भारत में लोग मार रहे हैं जब तक महात्मा गांधी की मौत की ख़बर नहीं आती।
लोकतांत्रिक रूप से चुने गए भारतीय पीएम, भारतीय पुलिस और न्यायपालिका का अपमान करने वाले बीबीसी को द पैम्फ़लेट का ये वीडियो तो कम से कम ज़रूर देखना चाहिए, आप भी देखिए और इसे शेयर अवश्य करें।