वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा 1 फरवरी को पेश किया गया वित्त वर्ष 2023-24 के लिए पेश किये गए बजट प्रस्ताव कई मायनों में खास रहे। बढ़े कैपिटल एक्सपेंडिचर और टैक्स बदलाव के अतिरिक्त एक और बड़ा बदलाब भारत के सरकारी बैंकिंग सेक्टर में देखने को मिला।
पिछले कई वर्षों में NPA के कारण घाटे से जूझने वाले बैंकों को सरकार की ओर से दिए जाने वाले कैपिटल, जिसे अर्थव्यवस्था की भाषा में रिकैपिटलाइजेशन कहा जाता है, इस बार देने का प्रस्ताव बजट में नहीं आया है।
यूपीए शासन के दौरान नियमों को अनदेखा कर दिए गए लोन और गलत वित्तीय प्रबंधन के चलते देश के पब्लिक सेक्टर बैंक लगातार पिछले कुछ सालों से घाटे में चल रहे थे पर अब स्थिति में बड़ा सुधार आया है।
बैंकों की कार्यशैली में बदलाव और नए नियमों के क्रियान्वन के कारण स्थिति तरह बदल चुकी है। बैंक अब फायदे में हैं। पिछले बजट में वित्त मंत्री ने बैंकों के रिकैप के लिए 1500 करोड़ रुपए का प्रावधान किया था।
इसी से आगे उम्मीद लगाई जा रही थीं कि वित्त वर्ष 2023-24 में कोई भी प्रावधान सरकारी बैंकों के लिए नहीं किया जाएगा। सरकारी बैंकों की वार्षिक रिपोर्ट में भी बैंकों की सेहत सही लग रही है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया समेत अन्य सरकारी बैंक अब बड़े स्तर पर मुनाफा कमा रहे हैं।
क्या होता है बैंक रिकैपिटलाइजेशन?
इस समय भारत में 12 सरकारी बैंक हैं। इन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कहा जाता है। पहले इन बैंकों की संख्या 20 से भी अधिक थी परन्तु वर्ष 2014 में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से इन बैंकों की बिगड़ी हालत में सुधार और वित्तीय प्रबन्धन को सरल बनाने के उद्देश्य समेत अन्य लक्ष्य पूरा करने के लिए बैंकों के विलय की योजना लाई गई थी। इसी के तहत अब इनकी संख्या घटाकर 12 हो गई है।
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देश में उद्योग धंधों को सरलीकृत कर्ज देने की योजना से स्थापित किया गया IDBI बैंक सरकार निजी हाथों में दे चुकी है। वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र के कहे जाने वाले यह अधिकांश बैंक 1969 से पहले निजी क्षेत्र के ही बैंक थे जिन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने समाजवादी नीति की तरफ झुकते हुए इन बैंकों को राष्ट्रीयकृत कर दिया था।
तब से लगातार इन सरकारी बैंकों के अकार्यकुशल अप्रोच, घोटालों, बिना जांचे-परखे लोन देने जैसे क़दमों के चलते इनकी हालत दिन प्रति दिन खराब होती गई और सरकार इन्हें जिन्दा रखने के लिए जनता की कमाई से दिए गए टैक्स के पैसे को इन बैंकों को देती गई।
सामान्यतः, बैंकों को रिकैपिटलाइज करने की आवश्यकता तब पड़ती है जब उनके पास लोन आदि देने के लिए धन का अभाव होता है और बैंक घाटे में चल रहे होते हैं।
बैंकों में धन की तरलता कम होने से यह स्थिति पैदा होती है। भारत में सरकारी बैंकों की अधिकाँश समय ऐसी ही स्थिति रहती थी। ऐसे में सरकार को बैंकों में कैपिटल इन्फ्यूजन करना पड़ता था।
क्या हुआ इस बार के बजट में ख़ास?
वित्त वर्ष 2023-24 के बजट में केंद्र सरकार ने कोई भी धनराशि बैंकों के रिकैप के लिए नहीं दी है। वित्त वर्ष 2022-23 में यह 15000 करोड़ रुपए थी। पिछले कुछ सालों में लगातार यह घटती आई है।
इससे पहले वर्ष 2021-22 के दौरान यह धनराशि 20,000 करोड़ रुपए थी। एक आँकड़े के अनुसार वर्ष 2009 से वर्ष 2019 के बीच सरकार ने 3.15 लाख करोड़ रुपए बैंकों में डाले।
वहीं एक और आँकड़े में केंद्र सरकार ने बताया है कि उसने वर्ष 2017-22 के बीच 2.86 लाख करोड़ रुपए बैंकों में डाले।
क्यों महत्वपूर्ण है यह फ़ैसला
एक रिपोर्ट के अनुसार देश के सरकारी बैंक वर्ष 2017 में 85 हजार करोड़ रुपए के घाटे में थे। वर्ष 2022 तक आते-आते यह सभी बैंक अच्छे मुनाफे में हैं।
समाचार वेबसाइट बिजनेस स्टैन्डर्ड के अनुसार, वर्ष 2017 में सरकारी बैंकों ने 85,390 करोड़ रुपए का घाटा दर्ज किया था जबकि वर्ष 2022 आते आते वह 66,539 करोड़ रुपए के मुनाफे में पहुँच गए।
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वित्त वर्ष 2022-23 के अंत तक इस आँकड़े के 1 लाख करोड़ से अधिक पहुँचने की संभावना है। वर्ष 2014 से पहले सरकारी बैंकों द्वारा नियमों को ताक पर रख कर बड़े स्तर पर लोन बांटे गए जो लगातार NPA में बदल गए।
एक स्थिति ऐसी आई जब 21 में से 11 सरकारी बैंकों को रिजर्व बैंक के सुधारों के अंतर्गत लाना पड़ा था क्योंकि इनके द्वारा दिए गए कुल लोन में से 14% से अधिक खराब लोन में बदल चुका था।
ऐसे में बैंकों का अच्छी स्थिति में आकर मुनाफा कमाना और सरकार पर निर्भर ना रहना देश में बैंकिंग सुधारों के सफल होने का संकेत है।
आगे बैंकों के लिए क्या है योजना?
सरकार का विचार है कि देश में अलग-अलग बैकों के और विलय करके स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जैसे 4 से पांच बड़े बैंक बनाए जाएं। इसके पीछे सरकार का विचार है कि इससे बैंकों की खुद पूँजी बढ़ेगी और इनकी क्रेडिट देने की क्षमता बढ़ेगी।
बैंकों के बड़े तथा इनकी संख्या कम होने से देश इनका प्रबंधन भी आसान होगा। वर्ष 2017 में देश में 27 सरकारी बैंक थे जिनका अलग-अलग प्रबन्धन काफी मुश्किल होता था।
ऐसे में ऐसी परिस्थितियों में इन बैंकों से बड़े स्तर पर व्यापार किया जाना मुश्किल था। साथ इनके प्रबन्धन की समस्या की वजह से वित्तीय अनियमितताओं की आशंका और बढ़ती थी। अब बैंकों की संख्या कम होने के कारण उनके प्रबंधन सम्बन्धी काफी समस्याएं कम हो रही हैं।