13 सितम्बर को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी जतिंद्र नाथ दास का बलिदान दिवस है जो अनुशीलन समिति के भी प्रमुख सदस्य थे। उनको बाघा जतीन भी कहते हैं, यानी उनकी वीरता की वजह से उनका उपनाम ही बाघ हो गया था। उन्होंने लाहौर षडयंत्र केस में लाहौर जेल भेजे जाने के बाद भारतीय कैदियों के साथ जेल में किये जा रहे अन्याय और अत्याचार के खिलाफ 63 दिन तक अनशन किया था। अनशन के दौरान ही उन्हीं की मृत्यु हुई थी इसलिए स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान अनशन कर बलिदान देने वाले वे एकमात्र क्रान्तिकारी थे।
दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कोलकाता में एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था और किशोरावस्था में ही वो अनुशीलन समिति से जुड़ गए थे। 1921 में जब गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन चलाया तो जतिन्द्र ने उसमें सक्रिय भाग लिया था। काकोरी काण्ड में उनकी सक्रिय राजनैतिक गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 1925 में गिरफ्तार कर मैमनसिंह सेन्ट्रल जेल में बंद कर दिया था।
पहला अनशन
उस समय वो कोलकाता के विद्यासागर कॉलेज में बी.ए. के छात्र थे। इस जेल में ब्रिटिश सरकार द्वारा राजनीतिक कैदियों के प्रति भयंकर दुर्व्यवहार और निर्दयता की जा रही थी। इसके खिलाफ जतिन्द्र ने अपनी पहली भूख हड़ताल की, 20 दिन बाद जेल अधीक्षक को उनसे माफी मांगनी पड़ी, तभी जतिन्द्र ने अनशन त्याग किया।
बम निर्माण के विशेषज्ञ थे जतिन्द्र
इस दौरान चन्द्रशेखर आजाद की रणनीति के तहत भारत के अलग अलग भागों के क्रांतिकारियों के बीच संपर्क स्थापित किया जा रहा था। इस तरह जतिन्द्र का भगत सिंह और साथियों से परिचय हुआ था और वो बम बनाने की योजना में शामिल हो गए थे। बाद में जतिन्द्र इस दल के मुख्य बम निर्माणकर्ता बने। 1929 के असेंबली बम केस में भगत सिंह ने जो बम फोड़ा था वह जतिन्द्र दास ने ही बनाया था।
जेल में अनशन और प्रताड़ना
14 जून 1929 को उन्हें ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए दूसरी बार गिरफ्तार किया और लाहौर षडयंत्र केस में लाहौर जेल में बंद कर दिया। यहाँ भारतीय कैदियों के साथ जानवर जैसा व्यवहार किया जा रहा था, उन्हें बेहद गंदगी में रखा जाता था जिससे बहुत से कैदी बीमार हो रहे थे और कुछ की मौत भी हो गई थी। रसोई में भयंकर कीड़े और चूहे थे और कैदियों को बेहद घटिया खाना दिया जा रहा था, पहले तो जतिन्द्र ने इसकी शिकायत की पर कोई सुनवाई नहीं हुई।
इसके बाद भारतीय कैदियों की भयंकर दुर्दशा व अंग्रेज और भारतीय कैदियों में किए जा रहे भेदभाव के खिलाफ जतिन्द्र ने दूसरी भूख हड़ताल शुरू की जो 13 जुलाई 1929 को शुरू हुई और 13 सितंबर 1929 तक अनवरत 63 दिनों तक चली।
भूख हड़ताल के समय उन्हें जबरन खाना देने के लिए मार पिटाई में उनके फेफड़े क्षतिग्रस्त हो गए, और उन्हें लकवा भी मार गया। जेल अधिकारियों की प्रताड़ना, अत्याचार, और दबाव भी उन्हें हिला नहीं पाया और उनकी ये अटूट भूख हड़ताल 13 सितम्बर 1929 को उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हुई। इस घटना से ब्रिटिश सरकार बैकफुट पर आ गई और उसने आनन-फानन में बंदी क्रांतिकारियों की लगभग सभी मांगे मान लीं।
अन्तिम यात्रा में देश का ऐतिहासिक संगठन
उनके पार्थिव शरीर को रेल द्वारा लाहौर से कोलकाता के लिए ले जाते समय रास्ते के सारे स्टेशन उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए बेचैन हजारों लोगों की भीड़ से पट गए। लाहौर में भीड़ का नेतृत्व दुर्गा भाभी ने किया, कानपूर में प्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने और जब कोलकाता में उनकी पार्थिव देह लेने सुभाष चन्द्र बोस हावड़ा पहुंचे तो अंतिम यात्रा में करीबन 7 लाख लोगों का 3 किलोमीटर से भी लंबा जुलूस उनके सम्मान में पीछे पीछे चला, जिसका ओर-छोर किसी को दिखाई नहीं देता था।
क्रांतिकारी आन्दोलन की सघनता
भारत के क्रांतिकारी आन्दोलन में हजारों क्रांतिकारी औपनिवेशिक शासन द्वारा भयंकर यातनाओं से गुजरे। प्रायः क्रांतिकारियों के पास धन का बेहद अभाव था और ज्यादातर क्रांतिकारी निर्धन पृष्ठभूमि से थे, पर उनके देशप्रेम के आड़े ये बातें नहीं आईं। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अत्याचारों से हत हुए उन गुमनाम क्रांतिकारियों को आज याद करना जरूरी है, क्योंकि इतने वर्षों से केवल कुछ ही नाम आजादी के आन्दोलन का चेहरा बना दिए गए हैं।
क्रांतिकारियों ने बेहद कम संसाधनों में हथियार निर्माण, संगठन रचना, संगठन प्रसार जैसे काम किए थे। संचार व्यवस्था के अभाव में देश भर के क्रांतिकारियों को जोड़ना भी साधारण काम नहीं था, फिर भी कोलकाता से लेकर आगरा और आगरा से लेकर लाहौर तक के क्रांतिकारी एकजुट थे जैसा कि ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’, ‘होमरूल लीग’, ‘अनुशीलन समिति’ जैसे क्रांतिकारी संगठनों के सदस्यों और शाखाओं के विस्तार को देखकर समझ आ जाता है। इन्हीं बेहद कम संसाधनों में रासबिहारी बोस और लाला हरदयाल जैसे क्रांतिकारी जापान और अमेरिका आदि देशों से भी क्रांतिकारी गतिविधियाँ संचालित कर रहे थे।
आज के अनशन और तब के अनशन
राजनीति के नाम पर आज भी अनेक अनशन किए जाते हैं, जिसमें मांगें अच्छी हो सकती हैं, पर मांगने वालों की इच्छाशक्ति में सात्विकता की कमी होती है और मांगों के पीछे निजी स्वार्थ, राजनीतिक महत्वाकांक्षा होती हैं, जिस कारण ऐसे अनशन भी जरा सी मुश्किल आते ही तोड़ दिए जाते हैं। हैरानी की बात है कि ऐसे कच्चे आंदोलनों को आमरण अनशन का नाम क्यों दिया जाता है, जबकि ऐसा कोई पूर्ण संकल्प होता ही नहीं।
इससे शब्दों की गरिमा घटती है और इसी कारण ऐसे आंदोलनों पर आज कोई विश्वास भी नहीं करता क्योंकि सबको पता होता है कि किसी और “प्रख्यात व्यक्ति के निवेदन” की आड़ लेकर किसी और प्रख्यात व्यक्ति द्वारा “जूस पिलाकर” अनशन तुड़वा ही दिया जाएगा। बड़े संकल्पों की पूर्ति के लिए बड़ी संकल्पशक्ति दिखाने वाले लोग भी भारत में हुए हैं, आधुनिक समय में भी स्वामी सानंद ने गंगा की रक्षा के लिए ऐसा किया था। जतिन्द्र नाथ दास जैसे संकल्प के पक्के हुतात्मा हमेशा भारतीय आन्दोलन शक्ति के प्रेरणास्रोत रहेंगे।