अब अयोध्या में माहौल कैसा है?
“क्या अभी भी अयोध्या में तनाव है?”
बस कुछ वर्ष पहले की ही तो बात है, अयोध्या की गलियों में यह सवाल गूंजते रहते थे। सवाल पूछने वाले पत्रकार दिनभर अयोध्या शहर में घूमते थे। ये ऐसे लोगों की खोज में होते थे जिनके मुँह से 6 दिसंबर, 1992 की कोई याद निकलवाई जा सके ताकि न्यूज़ स्टूडियो में माहौल बना रहे। माहौल इसलिए क्योंकि माहौल बना रहेगा तो पॉलिटिक्स बनी रहेगी और पॉलिटिक्स बनी रहेगी तो माहौल बना रहेगा।
पॉलिटिक्स और माहौल के बनने के इस रोलिंग प्लान के बीच अयोध्या, उत्तर प्रदेश और दिल्ली घूमते रहते थे।
माइक बोलते रहते थे, कैमरे सुनते रहते थे, पत्रकार गुनते रहते थे और दर्शक सिर धुनते रहते थे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिंट, तीन दिन पहले से ही माहौल निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती थी। प्रश्न, विकट प्रश्न, उत्तर, भाषण, यादें, वाजपेयी, जोशी, आडवाणी, सिंघल, कल्याण सिंह वग़ैरह को गूँथकर उन्हें ओपिनियन में फ़्राई करके जो माहौल बन जाता था उसे जनता को परोस दिया जाता था।
अब ऐसा नहीं होता। ओपिनियन के डिब्बे में तेल की कमी है या नोट की, यह शोध का विषय है। माहौल निर्माण के बाद हेडलाइन निर्माण पर समय खर्च किया जाता था।
‘इतने वर्षों में कितनी बदली है अयोध्या’
ऐसे लेख अयोध्या के अलावा हर जगह पढ़े जाते और जमकर शेयर किये जाते। ‘तनावपूर्ण’ शब्दों से भरपूर शोर मचता जिसे कुछ विशेषज्ञ टीवी डिबेट बताते थे। प्रिंट में लेख इतने प्रभावशाली होते कि शहर के शहर कर्फ्यूगति को प्राप्त हो लेते।
इस माहौल को एक और धक्का दिया सेक्युलर दलों ने
वर्ष 1992 में विवादित ढांचा गिराया गया तो पहले उसका राजनीतिकरण और बाद में उस राजनीतिकरण का प्रभाव वर्षों तक रहा। शायद इसी प्रभाव ने हिंदुत्व को भाजपा के साथ चिपका दिया। भाजपा को हिंदुत्व की पहचान मिली और हिंदू समाज को एक राजनीतिक दल। ऐसा राजनीतिक दल जिसकी खोज में हिंदू समाज वर्षों से था।
इस प्रक्रिया का प्रभाव यह रहा कि भाजपा पर ध्रुवीकरण से वोट पाने का आरोप लगता रहा तो विपक्षी दल भी इससे दूर नहीं रहे। विपक्षी दलों ने सेकुलर रहने का दावा तो किया पर ढांचा टूटने की घटना के सहारे मुसलमानों के तुष्टिकरण से भी दूर नहीं रह सके। कुछ दलों ने अल्पसंख्यकों का हितैषी बन 6 दिसंबर को काला दिवस भी घोषित किया।
इसके परिणामस्वरूप जो उद्योग खड़ा हुआ उसने लगभग दो दशक तक तमाम लोगों को रोजगार दिया।
अब क्यों गायब है 6 दिसम्बर को तनाव?
पिछले कुछ वर्षों में टीवी डिबेट से लेकर राजनीतिक मंच में न इस घटना का जिक्र दिखता है और न धरातल पर कोई तनावपूर्ण माहौल। वर्ष 2019 में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुसलमानों ने भी स्वीकार किया और सूत्रों के अनुसार कुछ ने तो जन्मभूमि मंदिर निर्माण में सहयोग भी दिया। कोर्ट के आदेश से पहले भी सभी समुदायों की ओर से श्रीराम जन्भूमि मंदिर बनने के पक्ष में उठती रहीं लेकिन वही, माहौल प्रधान राजनीति में बाबरी मस्जिद को शहीद बताने के शोर में आवाज़ें दब गयीं।
अब मुसलमान संप्रदाय से कुछ भाजपा को समझने की कोशिश करने लगे हैं। इसकी तथ्य को बल तब मिला था जब आरएसएस के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार राम मंदिर निर्माण के लिए मुसलमानों का समर्थन जुटाने के लिए जगह जगह कार्यक्रम आयोजित करते थे और बड़ी संख्या में मुसलमान इन कार्यक्रमों में जुटते थे। साथ ही न्यायपालिका के बाहर से भी प्रयास होने लगे।
सेक्युलर दलों ने मीडिया के सहारे ढांचे से जुड़े भाव का जो निर्माण किया था उसे तब अधिक झटका मिला जब हिंदुत्व की छवि वाले नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके विरोध में जो बढ़ोतरी हुई है, उसके कारण माहौल धीरे-धीरे बनना बंद हो गया।
माहौल ने भी अब सेक्युलर दलों को डिवीडेंड देना बंद कर दिया है। मोदी के सबका विश्वास जैसे दर्शन को मुस्लिम समुदाय द्वारा समझने की कोशिशें होने लगी हैं। इसकी कड़ी में भाजपा ने भी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को मंत्रालय में जगह देना आरंभ कर दिया है। अब ऐसा प्रतीत होता है कि मुस्लिम समुदाय का एक हिस्सा अब अयोध्या में हुई 6 दिसंबर की घटना की इस चर्चा से आगे बढ़ चुका है।
हिन्दू कैसे भूल गया या आगे बढ़ गया? राम मंदिर निर्माण की शुरुआत होने के साथ यह सवाल अब औचित्यहीन हो जाता है। असल में ‘मंदिर वहीं बनाएंगे लेकिन तारीख नहीं बताएँगे’ नारा भाजपा पर तंज़ से अधिक सेक्युलर दलों के लिए संजीवनी भी था। अब मंदिर बन रहा है। तारीख भी इतिहास में दर्ज़ हो गई है। और अब तो सेक्युलर दलों के पास भी ‘सियाराम’ और ‘हे राम’ है।