Author: अजीत प्रताप सिंह
तुलसी के राम ठुमक-ठुमक कर चलते हैं, उनके पैरों में बंधी पैजनी बजती है। कैसे आह्लाद का विषय है कि जो संसार को उठाने आया है, वो भूमि पर बार-बार गिरता है।
कृष्ण अच्युत हो या न हो, पर होनी को कौन टाल सकता है। विदुर सहज हुए और राजसभा जाने की तैयारी करने लगे। पारंसवी पुनः बोली, “भूलना मत। उन्हें साथ ले आना खाने पर।”
सुमंत हाथ जोड़े खड़े थे। यह देख राम ने भी हाथ जोड़ लिए। राम प्रतीक्षा कर रहे थे कि सुमंत रथ पर चढ़कर विदा हो लें तो वे पैदल अपनी यात्रा जारी रखें।
हनुमान आश्चर्यचकित रह गए। प्रभु श्रीराम से बोले, “प्रभु, क्या यह सिंदूर लगाने से किसी को आपके निकट रहने का अधिकार प्राप्त हो जाता है?”
जब कृष्ण अपना विकट विराट रूप दिखाकर वापस लौट गए, और कुरुसभा ने अपने मस्तिष्क पर छाई धुन्ध को साफ किया, तो सब दुर्योधन को कोसने लगे जिसमें शकुनि और कर्ण भी सम्मिलित थे।
कृष्ण के तर्क ने हिडिम्बा को कुछ क्षणों के लिए हतप्रभ कर दिया। विचार करने पर उसे कृष्ण की बात ही सही लगी। पर जब मन में विरोध हो तो सामने वाले की किसी छोटी से छोटी, वार्ता में नितांत असंगत बात का आलम्बन लेकर विरोध करना क्षुद्र मानव प्रवृत्ति है।
चाण्डाल ने युवक को क्षण भर देखा और बोला, “मैं कोई साँड़ तो हूँ नहीं कि मेरी देह के विस्तार ने तेरा मार्ग अवरुद्ध किया हो।”
युवा सन्यासी ने वीणा का तार छेड़ा और ‘नारायण-नारायण’ का स्वर निकालकर वृद्ध पुरुष का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।