यूँ तो भारत में लगभग सात लाख बसे हुए गाँव हैं, और हर गाँव अपने-आप में खूबियाँ लिए हुए है, लेकिन वह कौन सा गाँव है जिसे सबसे स्वच्छ सुंदर कहा गया?
मेघालय की पूर्वी खासी पहाड़ियों की गोद में बसे गाँव मॉलिनोन्ग की चर्चा पहले सुनी थी। मशहूर पत्रिका ‘डिस्कवर इंडिया’ ने इसे एशिया का सबसे स्वच्छ ग्राम कहा। लेकिन गाँव को स्वच्छ बनाने के लिए उन्होंने ऐसा क्या कर दिया, यह जानने की इच्छा थी।
भारत-बांग्लादेश की डौकी सीमा से लौटते हुए तेजपत्ता और झाड़ू के बागानों के बीच से गुजरती हरी-भरी सड़क हमें इस गाँव तक पहुँचाती है। इसे पहचानना कठिन नहीं क्योंकि सड़क किनारे ही बोर्ड पर लिखा मिल जाता है- ‘मॉलिनोन्ग में आपका स्वागत है; ईश्वर का उपवन; एशिया का सबसे स्वच्छ ग्राम’।
वहाँ बाहर रिसेप्शन से एक व्यक्ति हमारी तरफ़ आए। यह ग्राम के मुखिया स्वयं थे, जो आगंतुकों का स्वागत करने आए थे। उन्होंने ग्राम में प्रवेश की रसीद काटी, जिसे ग्राम की स्वच्छता और सतत विकास के लिए चंदा भी कहा जा सकता है। एक रेवेन्यू मॉडल की तरह भी देखा जाए, तो संभवतः भविष्य में ऐसे आदर्श ग्राम को देखने दूर-दूर से आ सकते हैं। क्या बुरा है?
गाँव के अंदर पक्की डबल-लेन मुख्य सड़क थी, जैसा यूरोपीय गाँवों में देखने को मिलता है। यह सड़क आगे जाकर एक चौक पर रुकती थी, जहाँ एक व्यवस्थित बड़ी पार्किंग थी, और गाँव वालों ने स्थानीय कपड़ों, फलों आदि का बाज़ार लगा रखा था। यह गाँव की रेवेन्यू का दूसरा मॉडल था, जिसमें ग्राम-उत्पाद बेचे जा रहे थे। इससे काफ़ी हद तक आर्थिक स्वायत्तता मिल रही थी, जो कहीं न कहीं गांधी द्वारा सुझाए आदर्श ग्राम को फलीभूत कर रही थी।
मुख्य सड़क के दोनों तरफ़ गलियाँ गाँव के घरों की ओर जा रही थी, जो बड़े व्यवस्थित ढंग से पंक्तियों में बनी थी। गलियों में डाक-पेटी और बेंत का बने कूड़ेदान लगे थे, जिसमें एक भी प्लास्टिक या पोलीथिन का कचरा नहीं दिखा। तलब करने पर पता लगा कि यह गाँव यथासंभव प्लास्टिक मुक्त है, और इस कारण न सिर्फ़ कचरा बल्कि कचरे का डब्बा भी प्लास्टिक का नहीं।
वहीं गलियों में कुछ युवक और युवतियाँ पेड़ों से गिरे पत्ते चुन कर कचरे में डाल रहे थे। यह कार्य एक रोस्टर के हिसाब में ग्रामवासियों को मिलता है, जिसमें उन्हें बारी-बारी से गाँव की सफाई करनी होती है।
कुछ आगे जाकर एक पुराना भोजनालय मिला जिसका पुनर्निर्माण कार्य चल रहा था। अंदर बैठने की साधारण कुर्सियाँ लगी थी, और किसी ग्रामीण ढाबे की तरह चार-पाँच बर्तनों में ढक कर खाना रखा था। एक थाली जब मंगवायी, तो उन्होंने कहा कि इसमें जो भी सब्जियाँ हैं वह गाँव में ही उगायी गयी। यह रेवेन्यू का तीसरा मॉडल था, जिसमें गाँव भोजन-सामग्री में भी स्वतंत्र था। न सिर्फ़ ग्रामवासी बल्कि पर्यटकों का भोजन भी गाँव ही उत्पादित करता था। कबीर के इस कथन को चरितार्थ करता था- ‘साई इतना दीजिए, जा में कुटुम समाए। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए’
इस गाँव में एक गिरजाघर था, और एक विद्यालय था जिसके पास एक मैदान था। वहाँ बच्चे खेल रहे थे। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि साक्षरता लगभग सौ प्रतिशत है, और गाँव का हर बच्चा इसी विद्यालय जाता है। वहाँ बच्चे मिल कर एक पुराना सूखा पड़ गया पेड़ गिरा रहे थे। वहीं गाँव की परिधि में नए पेड़ लगाए गए थे। पेड़ों के ऊपर बने मचान से पर्यटक पूरे गाँव को देख सकते थे। एशिया के सबसे स्वच्छ गाँव को।
डॉक्टर प्रवीण झा
(मूल तौर पर बिहार में जड़े हैं लेकिन फिलहाल नार्वे में रहते हैं, घुमक्कड़ी शौक है, डॉक्टरी पेशा, खूब किताबें लिखी है जिनमें कुली लाइन्स बहुचर्चित है)