राजस्थान के पिछले विधानसभा चुनावों का परिणाम तो आपको याद होगा ही। भाजपा को हराकर कांग्रेस बहुत ही कम वोटों से जीत पाई थी। अब आगामी चुनावों के नजदीक आने के साथ ही राजनीतिक समीकरण के साथ कम वोटों की दीवार भी बढ़ती नजर आ रही है। राजस्थान विधानसभा चुनावों से जुड़े सर्वे जो दिखा रहे हैं उसे ही बदलने के लिए अशोक गहलोत अब 6 माह में वह सब करना चाहते हैं जो कहीं न कहीं उन्हें अपने कार्यकाल में करना था।
आगामी चुनावों में बीजेपी का पलड़ा अगर भारी नजर आ रहा है तो इसका कारण मोदी फैक्टर के अलावा एक मुख्यमंत्री के तौर पर अशोक गहलोत का विफल रहना भी है।
2018 में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद भले ही जीत के श्रेय में नाम सचिन पायलट का सामने आया हो पर राज्य में नेतृत्वकर्ता के रूप में पार्टी ने अशोक गहलोत को चुना था। यह अशोक गहलोत की जिम्मेदारी थी कि वो राज्य में पार्टी संगठन मजबूत करने के साथ ही सरकार को स्थिर बनाते और एक मजबूत कार्यकाल प्रस्तुत करते। यह हो नहीं सका और 4 वर्षों में सचिन पायलट और अपने विधायकों से लड़ते-लड़ते पार्टी संगठन तो दूर की बात, गहलोत अपनी सरकार को भी पूर्णतया स्थिर नहीं रख पाए।
वर्षों से राज्य में काम करने के बाद मुख्यमंत्री ही ऐसा व्यक्ति होता है जिसके चेहरे पर पार्टी राज्य में चुनाव लड़ती है। मुख्यमंत्री राज्य में हुए विकास कार्यों का चेहरा होता है। अशोक गहलोत के कार्यकाल में राजस्थान में विकास के क्षेत्र में ऐसा कोई काम किया होता तो उन्हें चुनावी समय में रेवड़ियां बांटने की जरूरत नहीं होती। वास्तव में जमीनी हकीकत को देखें तो अशोक गहलोत का कार्यकाल अपराध, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिक हिंसा से अटा हुआ नजर आता है।
अपराध और भ्रष्टाचार रोकने के लिए चुनावी वर्ष में ही गहलोत ने कुछ घोषणाएं जरूर की है पर उनके पास इन प्रश्नों का जवाब नहीं है कि अपराध एवं भ्रष्टाचार पिछले वर्षों में बढ़ा क्यों और इनके विरुद्ध समय से कोई कदम क्यों नहीं उठाए गए?
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी गांधीवादी छवि के लिए जाने जाते रहे हैं। हालांकि अपने वर्तमान कार्यकाल में उन्होंने गांधीवादी विचारधारा का इस्तेमाल भी राजनीति और तुष्टिकरण के लिए ही किया है। गहलोत और सचिन पायलट के बीच जिस तरह गुटबाजी हुई है उससे पार्टी के बाद सबसे अधिक नुकसान गहलोत का ही हुआ है।
मुख्यमंत्री पद और अपने बेटे की खातिर जगह बनाने के लिए पार्टी विधायकों के साथ राजनीति करने वाले नेता के रूप में उभरे गहलोत की छवि जनमानस के मन में धूमिल हो ही गई है।
एक और मुद्दा है जिससे अशोक गहलोत सरकार को नुकसान पहुंचा है और वो है उदयपुर के कन्हैया लाल की हत्या का। गहलोत सरकार इसे मुद्दा मानने से कितना भी इंकार करे पर इस मामले ने राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की खूब किरकिरी की है। जयपुर बम विस्फोट में रिहा हुए आतंकियों के साथ ही कन्हैया लाल की हत्या के मामले में गहलोत सरकार के ढ़ीले रवैए ने बड़े प्रश्नों को जन्म दिया है।
यह कहा जा सकता है कि इन 5 वर्षों में अशोक गहलोत बहुत कुछ समेट लेना चाहते थे पर यह सब रेत को हाथों में बंद करने की कवायद बनकर रह गई है। अब चुनावी बिगुल बज चुका है और गहलोत के पास समेटने को कुछ नहीं है। उनके कार्यकाल की सबसे बड़ी विफलता यही कही जा सकती है कि एक नेता के तौर पर वे मुख्यमंत्री बन कर काम करने में नाकाम रहे हैं।
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