राजस्थान में हर पांच वर्ष में सरकार बदल जाती है। यह बात हर सरकार को चुनावी वर्ष में अति सक्रिय हो जाने पर मजबूर करती है। 2018 के चुनावों में किसान, बेरोजगारी और सरकार के प्रति एंटी इनकंबेंसी को भुना कर सत्ता में आई कांग्रेस को अब अपना हिसाब देने का समय आ गया है।
राजस्थान में चुनावी माहौल का अंदाजा फ्रीबीज ही नहीं बल्कि पायलट और गहलोत के बीच अब लगभग शांत हो चुके कोल्ड वॉर को देखकर भी लगाया जा सकता है। प्रदेश की जनता स्थिर सरकार पर मोहर लगाती आई है। ऐसे में गहलोत और सचिन पायलट को चुनाव पूर्व राजनीतिक एकता का प्रदर्शन तो करना ही था पर अभी भी चुनाव में अन्य मुद्दे भी होंगे जिनका जवाब कांग्रेस और भाजपा, दोनों को ढूँढने की आवश्यकता है।
चुनाव में स्थानीय दल और गठबंधन कुछ हद तक अपनी भूमिका निभाते हैं पर कांग्रेस और भाजपा के बीच ही मुख्य मुकाबला माना जाएगा। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस उन मुद्दों पर अपनी ओर ध्यान खींचने में सफल रही जिसपर वसुंधरा सरकार ने फैसला लेने में देर कर दी थी। किसानों के हित में वसुंधरा सरकार ने कर्जमाफी की घोषणा की थी पर यह फैसला चुनावों के नजदीक लिया गया। इसके स्थान पर कांग्रेस का 10 दिन में कर्जमाफी की घोषणा काम कर गई।
इसके बाद वसुंधरा के खिलाफ माहौल, जातीय गणित साधने में बीजेपी की विफलता ने कांग्रेस का पलड़ा भारी कर दिया, यह बात और है कि वसुंधरा सरकार के खिलाफ माहौल बनाने के बावजूद कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता वापसी नहीं कर सकी थी। कांग्रेस ने अधिक सीटों पर कब्जा जरूर किया था पर वोट शेयरिंग में बीजेपी ने हर सीट पर कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी थी।
पिछले चुनावों के कड़े मुकाबले को देखकर ही अशोक गहलोत चुनावी घोषणाओं में बिलकुल कोताही नहीं बरत रहे हैं। मुफ्त की घोषणाएं चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखती। सरकार के 5 वर्षों के कार्यकाल के आधार पर चुनाव परिणाम निर्धारित होते हैं। गहलोत सरकार भी उसी मुकाम पर खड़ी है जहां उसे 5 वर्षों का हिसाब देना है। इन मुद्दों पर बात करके ही बीजेपी अपना पक्ष मजबूत कर सकती है।
क़ानून व्यवस्था पिछले पाँच वर्षों में प्रदेश की बहुत बड़ी समस्या रही है। एससी/एसटी समाज के साथ अत्याचार और महिलाओं की दयनीय स्थिति को लेकर राजस्थान खबरों का हिस्सा बना है। आंकड़ों के अनुसार 2022 के मुकाबले नाबालिग बालिकाओं के साथ दुष्कर्म के मुकदमों में 2.79 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। लगातार हत्या, लूट और अपहरण की घटनाओं ने राजस्थान की छवि को नुकसान पहुँचाया है।
गहलोत सरकार अन्य प्रदेशों में क़ानून व्यवस्था की कमी की चर्चा तो करती रही है पर अपने प्रदेश को लेकर यह चर्चा होने नहीं देना चाहती। गहलोत की पूरी कोशिश है कि पिछले चार वर्षों में क़ानून व्यवस्था की समस्या वाले राजस्थान से निकल रहे आंकड़ों से ध्यान हटाया जाए। सवाल यह है कि यह उनके लिए कितना आसान होगा? ऐसा करने से क्या आगामी चुनावों में कानून व्यवस्था का मुद्दा पीछे चला जाएगा?
बेरोजगारी को मुद्दा बनाकर गहलोत सरकार सत्ता में आई थी। वर्तमान में प्रदेश में बेरोजगारी की दर 32 प्रतिशत है। इसके बावजूद गहलोत खुद को युवाओं के विकास के झंडाबरदार घोषित करते रहते हैं। दिलचस्प बात यह है कि युवाओं को राहत देने के लिए गहलोत सरकार ने बेरोजगारी भत्ते की घोषणा की है पर रोजगार देने वाली योजनाओं की नहीं। जिन भर्तियों की घोषणा हुई उनमें सामने आई अनियमितताएं और पेपर लीक की घटनाओं ने युवाओं में निराशा भर दी है। सचिन पायलट गहलोत सरकार पर पेपर लीक मामले को लेकर कई बार हमला कर चुके हैं। ऐसे में चुनावों में सरकार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर युवाओं को किस प्रकार अपने पक्ष में करेगी, यह देखने वाली बात होगी।
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कांग्रेस कार्य समिति में शामिल किए जाने के बाद सचिन पायलट अभी शांत जरूर दिख रहे हैं पर उनके और गहलोत के बीच पिछले 4 वर्षों के संघर्ष को जनता भूली नहीं है। पायलट न सिर्फ पद नहीं मिलने के कारण नाराज रहे बल्कि सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार और अन्य मुद्दों पर विरोध में रहकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ माहौल भी तैयार किया है। अब उनके ही करीबी राजेंद्र गुढ़ा ने लाल डायरी की चर्चा करके सरकार के लिए परेशानी तो खड़ी कर दी है। बाड़मेर से आने वाले हरीश चौधरी भी अशोक गहलोत से नाराज नजर आते हैं। ऐसे में टिकट बंटवारे पर बात बिगड़ने पर कांग्रेस सरकार को चुनावी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
नेता के बागी होने या विरोधी होने से पार्टी को चुनाव में नुकसान मिलना तय ही है। जनता एक स्थिर सरकार को चुनना चाहेगी। यह भी सच है कि गहलोत-पायलट की जंग के कारण प्रदेशवासियों को विकास पर समझौता करना पड़ा है।
इन मुद्दों के अलावा एक और मुद्दा है जो अशोक गहलोत का रास्ता मुश्किल कर सकता है और वह है महंगाई। इस बात का भान अशोक गहलोत को भी है और शायद यही कारण है कि उनकी सरकार ने फिलहाल मंहगाई राहत कैंप चला रखा है। केंद्र सरकार को टमाटर पर घेरने वाली गहलोत सरकार प्रदेश में मंहगाई पर नियंत्रण रखने में पूर्णतया असफल साबित हुई है। देश के 12 राज्य ऐसे है, जहां महंगाई दर राष्ट्रीय औसत के आंकड़े को पार कर चुकी है और इनमें राजस्थान का नाम सबसे पहले आता है जहां मंहगाई दर 9.66 फीसदी पर पहुँच चुकी है।
मंहगाई राहत कैंप में सामने आ रही धाँधली को नजरअंदाज भी कर दें तो भी यह कैंप प्रदेशवासियों को राहत देने में असफल रहे हैं। राजस्थान कर्ज के मामले में भी देश में नंबर एक पर हैं। फ्रीबीज के जरिए जनता पर मंहगाई और आर्थिक बोझ बढ़ा है। इसमें भी मंहगाई दर में अव्वल रहने पर गहलोत सरकार चंहुओर से घिरती नजर आ रही है।
वसुंधरा सरकार को हटाकर 2018 में सरकार बनाने के बाद से ही जिस एक बात को लेकर गहलोत की आलोचना हुई है वह रहा है इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास। 2018 में विधानसभा चुनाव में किसानों की कर्जमाफी और बिजली कटौती की परेशानी बड़ा चुनावी मुद्दा था। लगता है कि आगामी चुनाव में भी यह मुख्य भूमिका निभाएगा। बिजली बिल से राहत देने के लिए गहलोत सरकार ने लाभकारी घोषणा तो की है पर बिजली कटौती से राहत देने का कोई उपाय नहीं सुझाया है। मानसून आने के साथ ही राजस्थान में बिजली संकट गहरा गया है। इसके कारण उद्योगों और किसानों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। कोटा थर्मल पावर स्टेशन पर तो 5 दिन से दो यूनिट बंद है। प्रदेश में बिजली की जरूरत 3475 लाख यूनिट की है, जबकि बिजली आपूर्ति 3265 लाख यूनिट तक हो पा रही है।
कई जिलों में पानी की किल्लत बनी हुई है।। जल संकट के मंडराते खतरे को देखते हुए प्रदेश के 10 जिलों को आपदा प्रभावित (Disaster Affected) घोषित किया गया है। पानी की समस्या के लिए भी गहलोत अपनी जिम्मेदारी जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत पर थोपते आए हैं।
बुनियादी सुविधाओं के साथ ही साम्प्रदायिक दंगे, तुष्टिकरण और बाड़ेबंदी की राजनीति जैसे मुद्दे चुनाव में गहलोत सरकार के खिलाफ काम करने वाले हैं। हालांकि बीजेपी का अभी तक मुख्यमंत्री के चेहरे के साथ नहीं आने को कांग्रेस लाभ की तरह देख रही है पर यह भी समझना होगा की राजस्थान की राजनीतिक समीकरणों में मोदी फैक्टर बड़ा काम करेगा। चुनावी मुद्दे सत्ता और विपक्ष के लिए अवसरों के समान है। जो इन मुद्दों को सुलझाने और भुनाने में कामयाब रहेगा उसकी सत्ता वापसी की संभावनाएं उतनी ही मजबूत हो जाएंगी।
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