दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सहित उनके मंत्री एक बार फिर उपराज्यपाल के आवास के बाहर बैठ गए हैं। अपने वो अधिकार मांगने के लिए जो उन्हें संविधान ने नहीं दिए हैं। केजरीवाल उपराज्यपाल से सवाल पूछना चाहते हैं कि उप राज्यपाल सर्वोच्च न्यायालय की क्यों नहीं सुन रहे? पर स्वयं के पास संविधान का पालन न करने को लेकर कोई जवाब नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद केंद्र के अध्यादेश का दुष्प्रचार करने में केजरीवाल का पूरा मंत्रिमंडल लगा हुआ है। अध्यादेश को असंवैधानिक और कोर्ट की अवमानना बताना आम आदमी पार्टी सरकार की उस मानसिकता का परिणाम है जो स्वयं को दिल्ली की चयनित सरकार से अधिक एकमात्र सरकार के रूप में देखता है। आश्चर्यजनक रूप से केजरीवाल और उनके मंत्री अपने आरोपों को सिद्ध करने के लिए झूठ को सफेदी के साथ पेश करते आए हैं। इसबार उन्होंने केंद्र के अध्यादेश के लिए कहा है कि केंद्र निर्वाचित सरकार के अधिकार छीन रहा है। जबकि केंद्र सरकार मात्र अपने अधिकारों का प्रयोग कर रही है।
केंद्र सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश में अधिकारियों की नियुक्ति और स्थानांतरण से जुड़े मामलों के लिए जिस सेवा प्राधिकरण के गठन की बात की है उसमें दिल्ली के मुख्यमंत्री, GNCTD के मुख्य सचिव एवं केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रमुख सचिव शामिल होंगे। ऐसे में यह संस्था उस समन्वय को बैठाने में मददगार साबित हो सकती है जो पिछले 8 वर्षों से अरविंद केजरीवाल उप राज्यपालों के साथ नहीं बैठा पाए हैं। विरोध का कारण भी यही है कि अरविंद केजरीवाल समन्वय की जगह दिल्ली पर एकाधिकार और मालिकाना हक चाहते हैं। वे दिल्ली विधानसभा में इस बात की घोषणा कर चुके हैं कि दिल्ली के मालिक वे है और यह एलजी कौन है और कहां से उनके सर पर बैठा दिया गया है? ऐसा कहते हुए केजरीवाल यह भूल जाते हैं कि दिल्ली में उप राज्यपाल का पद पहले से था और उन्हें नियंत्रित करने के लिए उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद नहीं बनाया गया।
मुख्यमंत्री केजरीवाल ने अगर दिल्ली के शासन के लिए संविधान का संज्ञान लिया होता तो उन्हें पता होता कि एलजी कहां से आया है। विभिन्न उपराज्यपालों से अपने तथाकथित अधिकारों की लड़ाई लगातार लड़ते हुए आज केजरीवाल वर्तमान उपराज्यपाल वीके सक्सेना के सामने हैं। जो लड़ाई उन्होंने उपराज्यपाल नजीब जंग के साथ आरंभ की थी वह अनिल बैंजल से होते हुए अब वीके सक्सेना तक पहुँच गई है। पिछले 8 वर्षों के कार्यकाल में केजरीवाल ने जो अविश्वास और असहयोग का रवैया उपराज्यपाल कार्यालय के साथ दिखाया है, वह जनकार्य के लिए नहीं बल्कि उस विशेषाधिकार के लिए है जो वे अपने लिए चाहते हैं। तो यह समस्या वीके सक्सेना की नहीं है। हाँ, पहले के उपराज्यपालों से वर्तमान उपराज्यपाल की तुलना की जाए तो एक अंतर स्पष्ट है और वो यह है कि पहले के उपराज्यपालों की पृष्ठभूमि राजनीतिक नहीं थी। वर्तमान उपराज्यपाल वीके सक्सेना राजनीति के क्षेत्र से हैं और शायद केजरीवाल की राजनीतिक चालों को काटने का उनका तरीक़ा राजनीतिक लग सकता है।
संवैधानिक और प्रशासनिक संस्थाओं को बदनाम करने की खतरनाक राजनीति
दिल्ली की सत्ता मिलने पर अरविंद केजरीवाल ने निश्चित रूप से नहीं सोचा था कि उन्हें अपनी सत्ता उपराज्यपाल की देखरेख में संभालनी होगी और निर्णय लेने के लिए उप राज्यपाल के हस्ताक्षर की जरूरत होगी। यही से समस्या भी शुरू हुई। पूर्ववर्ती सरकारों को ऐसी गलतफहमी नहीं थी इसलिए दिल्ली में इस प्रकार सत्ता की लड़ाई पहले कभी देखी नहीं गई थी। शीला दिक्षित क़रीब 15 वर्ष दिल्ली की मुख्यमंत्री रही और उनके शासनकाल में केंद्र में भाजपा सरकार भी रही पर केंद्र सरकार, केंद्रीय गृहमंत्रालय या उपराज्यपाल के साथ उनके मतभेद ऐसे नहीं रहे।
वर्ष, 1993 में जब दिल्ली को विधानसभा दिए जाने के समय मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लोकसभा के तत्कालीन सचिव एस.के. शर्मा का कहना है कि; मैंने मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा, सुषमा स्वराज, और शीला दीक्षित जैसे मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया है। मेरे कार्यकाल में बिल्कुल भी दिक्कत नहीं हुई। यह उन लोगों की समस्या है जो एक आंदोलन के माध्यम से सत्ता में आए हैं, उन्होंने संविधान नहीं पढ़ा है और वे इसे पढ़ने के लिए भी तैयार नहीं हैं।
अरविंद केजरीवाल यह समझ नहीं पा रहे हैं कि दिल्ली मात्र एक राज्य नहीं है यह राष्ट्र की राजधानी है और केंद्र शासित प्रदेश भी। इसके लिए संविधान में अलग से प्रावधान है जो उपराज्यपाल को विशेषाधिकार देता है। मुख्यमंत्री और उनके मंत्री उपराज्यपाल को सलाह देने के लिए है। संविधान के अनुच्छेद-239AA के अनुसार उपराज्यपाल के पास जमीन, सार्वजनिक व्यवस्था और पुलिस को संचालित करने का अधिकार है। राष्ट्रीय राजधानी होने के कारण दिल्ली पर केंद्र को विशेषाधिकार दिया गया है। इसके लिए संविधान का 69वाँ संशोधन पुष्टि करता है कि दिल्ली के उपराज्यपाल की शक्ति अन्य राज्यों के राज्यपाल के अधिकार से अलग है। विधानसभा होने का यह अर्थ यह कतई नहीं है कि दिल्ली एक राज्य है। दिल्ली पूर्णतया केंद्र द्वारा शासित प्रदेश है और अंतिम अधिकार केंद्र के ज़रिये राष्ट्रपति के पास है। साथ ही अनुच्छेद-239AA के अध्ययन से पता चलता है कि प्रशासनिक अधिकार भी उप-राज्यपाल को दिए गए हैं।
संविधान में स्पष्ट निर्देश के बाद भी अरविंद केजरीवाल इतना शोर क्यों कर रहे हैं? इसके लिए उनके पास पर्याप्त कारण है। यह कारण डर का है जो हाल ही में जांच एजेंसियों के रडार पर आने से हुआ है। जिसकी आंच अब तक दिल्ली सरकार के मंत्रियों तक थी पर अब केजरीवाल को स्वयं का नाम सामने आने का डर सताने लगा है।
केजरीवाल और उनके मंत्री भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे हुए हैं। क्या यही कारण नहीं है कि वे एंटी करप्शन ब्यूरो के अधिकारियों की भर्ती और ट्रांसफर का अधिकार अपने हाथों में चाहते हैं? सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद अधिकारियों के तबादलों में दिखाई गई जल्दबाजी प्रशासन के लिए नहीं शासन बचाए रखने के लिए है। केजरीवाल सरकार और उनके मंत्रियों के खिलाफ कई अधिकारी डराने एवं धमकी देने के आरोप लगाते आए हैं। वरिष्ठ अधिकारी आशीष मोरे ने केजरीवाल सरकार के मंत्री सौरव भारद्वाज के खिलाफ उपराज्यपाल को शिकायत दर्ज की थी कि मंत्री ने उनको धमकी दी और दुर्व्यवहार किया।
राजशेखर को हटाने के लिए भी केजरीवाल द्वारा उनपर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए जो कि गलत साबित हुए। वहीं, 2018 में दिल्ली के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश ने मनीष सिसोदिया, अरविंद केजरीवाल सहित 11 एमएलए ने आधी रात को उनके साथ दुर्व्यवहार करने के लिए पुलिस में शिकायत दर्ज की थी। यह सूची यही नहीं थमती इसमें वर्षा सिंह सहित कई बड़े अधिकारियों के नाम शामिल हैं। जब भी ऐसी शिकायतें सामने आती हैं तो अरविंद केजरीवाल पुलिस पर कंट्रोल मांगने लगते हैं। जाहिर है पुलिस पर कंट्रोल दिल्ली में शांति व्यवस्था नहीं उस अव्यवस्था को दबाने के लिए चाहिए जो उनकी पार्टी में चल रही है।
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GNCTD एक्ट की धारा 21 कहती है कि विधानसभा कोई भी कानून बनाएगी तो उसे सरकार नहीं उपराज्यपाल द्वारा पारित माना जाएगा। केजरीवाल सरकार से पूर्व दिल्ली में सत्ता में रही किसी भी दल की सरकार को इससे कोई परेशानी नहीं हुई। केजरीवाल इससे परेाशान है क्योंकि वे दिल्ली पर एकछत्र राज चाहते हैं जो संभव नहीं है।
दिल्ली मात्र केंद्र शासित प्रदेश नहीं देश की राजधानी भी है। यहां कई देशों के दूतावास के साथ सरकारी संस्थाएं भी संचालित होती है। ऐसे में इसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास है। वहीं, केजरीवाल और उनके मंत्री कहते आए हैं कि अधिकारियों के स्थानांतरण और नियुक्ति पर उप-राज्यपाल की मनमानी चलती है तो उन्हें नियंत्रण मांगने के स्थान पर समन्वय बनाने पर जोर देना चाहिए था।
उपराज्यपाल की संस्था केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद नहीं बनी है तो उन्हें इसे हटाने की जिद छोड़ जनकार्य पर ध्यान देना चाहिए। हालांकि इसकी अपेक्षा केजरीवाल से करना व्यर्थ है क्योंकि उनकी मनमानी न चलने पर उनके भीतर का एक्टिविस्ट जाग जाता है और वो जाकर धरने पर बैठ जाते हैं। राजनीतिक अवरोध को दूर करने का यह उपाय उन्हें विधानसभा में कम और रोड पर अधिक बैठाता है।