दिल्ली के पर्यावरण विभाग ने 22 मार्च को विधानसभा में उठाए गए एक प्रश्न के जवाब में बताया है कि दिल्ली में यमुना नदी की सफ़ाई पर साल 2017 से 2021, पांच वर्षों में लगभग ₹6,856.91 करोड़ खर्च किए जा चुके हैं। जबकि दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (DPCC) की रिपोर्ट यमुना नदी के बारे में कुछ और ही कह रही है। DPCC के अनुसार, दिल्ली में यमुना का अधिकांश भाग लगभग सालभर ही प्रदूषित रहता है और इस हिस्से में यमुना का पानी नहाने के लायक भी नहीं है।
यमुना की स्थिति क्या है यह जानने के लिए हमें आधिकारिक आँकड़ों और विभागीय डेटा की आवश्यकता होनी नहीं चाहिए लेकिन अगर हम ऐसा ना करें तो फिर पढ़े-लिखे ना होने का आरोप भी लगाया जा सकता है। क्योंकि केजरीवाल की दिल्ली में यमुना छठ पूजा पर कैसी दिखती है, वह काग़ज़ों के आगे हमेशा ही झूठ साबित हो सकता है। काग़ज़ों के समक्ष बड़ी से बड़ी हस्ती की हस्ती कितनी बौनी है, इसका प्रमाण स्वयं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हैं।
क्यों हुआ शुरू हुआ केजरीवाल और उनका डिग्री प्रलाप
केजरीवाल के ही करीबी और दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को शराब घोटाले में कोर्ट ने यह कहते हुए ज़मानत देने से इनकार कर दिया कि उनकी भूमिका क़रीब 90-100 करोड़ रुपये की अग्रिम रिश्वत लेने में थी और यदि मनीष सिसोदिया बाहर आते हैं तो वो सबूतों को भी प्रभावित कर सकते हैं। यह आकलन माननीय अदालत का उस मनीष सिसोदिया के बारे में है, जिसके नाम से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल रोज़ाना कोई चिट्ठी अपने ट्विटर अकाउंट पर डालते हैं और यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि इंसान ने पत्थर टकराकर चिंगारी बनाने की तकनीक भी मनीष सिसोदिया के शिक्षा मंत्री बन जाने के बाद ही सीखी थी।
‘शिक्षा’ और ‘डिग्री’ के नैरेटिव की मार्केटिंग जिस तरह से केजरीवाल कर रहे हैं, उस से यह लगता है जैसे वो सारे लोग कितने गए-गुजरे रहे होंगे जो मोदी में अपना नेता देख रहे हैं। यानी मतदाता को हीन समझने का जो ठेका अब तक कांग्रेस और राहुल गांधी के सिपहसालारों के पास था, वही असफल प्रयोग अब केजरीवाल भी करना चाहते हैं। फ़र्क़ इतना अवश्य है कि राहुल गांधी के पास तो खोने के लिए अब कुछ बचा ही नहीं है जबकि केजरीवाल के पास तो कभी कुछ खोने के लिए था ही नहीं।
लोकतंत्र की परिभाषा में शिक्षा और डिग्री की जो खुराक केजरीवाल उड़ेलना चाहते हैं, वह लोकतंत्र में अगर इतनी ही आवश्यक होती तो दो बार प्रधानमंत्री रह चुके मनमोहन सिंह आज सोनिया गांधी के रोबोट के रूप में नहीं जाने जाते। हमने तो इतने पढ़े-लिखे व्यक्तित्व के बारे में भी समाचार पत्रों के माध्यम से ही सुना था कि मनमोहन सिंह का बायोडाटा भी आठ पन्नों का है। इस हिसाब से मनमोहन सिंह का साम्राज्य सात के बजाय आठ महाद्वीप, महासागरों एवं सात सौ आकाशगंगाओं पर होना चाहिए था। कई खगोलीय घटनाओं में मनमोहन सिंह का हस्तक्षेप वैध होना चाहिये था। लेकिन हुआ क्या? हजारों सवालों पर उस महान व्यक्तित्व ने खामोशी को ही चुना ना कि अपनी डिग्री को। जब कोई उनसे सवाल करता तब मनमोहन सिंह ने अपनी डिग्री सामने नहीं रखी, उन्होंने यही कहा कि वो मौन रहना चुन रहे हैं क्योंकि उनका पार्टी नेतृत्व उनसे यही चाहता था।
भारतीय राजनीतिक लोकतंत्र और अरविंद केजरीवाल
अरविंद केजरीवाल जिस डिग्री और डिप्लोमा को लोकतंत्र का मूल बताना चाहते हैं उसमें ओसामा बिन लादेन, बुरहान वाणी, रियाज़ नायकू जैसे ‘पढ़े-लिखों’ की बड़ी भूमिका हो सकती है। संभव है कि अरविंद केजरीवाल की पढ़ाई-लिखाई उनसे थोड़ा कम ही निकले।
भारत के लोकतंत्र की जिस परंपरा का नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं उसमें लोगों की ज़ुबान पर आयुष्मान कार्ड है, ‘स्व’ का बोध है, घर गाँव के लोग जिस बैंक में जाने को ‘एलीट्स’ का धंधा मानते थे, वहाँ वे आज बैंक की पासबुक ले कर आत्मगौरव के साथ जाते हैं। उनके हाथों में उनके पसीने का हिसाब है। यह सब उनके जीवन में यहीं घट रहा है। आज़ादी के बाद 75 साल का सफ़र भारत के लोकतंत्र को तय करना पड़ा ताकि लोकतंत्र के लोक को यह आत्मगौरव मिल सके। क्या केजरीवाल की ट्विटर की डींगों से यह संभव है?