राज्य को सुचारू रूप से चलाने में केजरीवाल सरकार की अक्षमता का पर्दाफाश तब हुआ जब दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने दिल्ली विधानसभा में वित्तीय वर्ष 2020 के लिए नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि चार वर्ष की अवधि में दिल्ली सरकार का कर्ज 7% बढ़ा है।
2019-2020 की रिपोर्ट के आँकड़े बताते हैं कि केजरीवाल सरकार की ‘रेवड़ी योजना’ की भारी कीमत राज्यकोष को चुकानी पड़ रही है। कर्ज की राशि, वर्ष 2019-2020 के अंत तक 2,268.93 करोड़ रूपए से बढ़कर 34,766.84 करोड़ रूपए हो गई है।
मीडिया रिपोर्ट की मानें तो केजरीवाल सरकार सबसे ज्यादा खर्च, दिल्ली को विकसित दिखाने के अपने ‘दावे’ पर खर्च करती है। किसी भी राज्य के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा उसकी सुरक्षा-व्यवस्था में जाता है लेकिन दिल्ली की सुरक्षा में तैनात दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के अंतर्गत है।
ऐसे में दिल्ली की सुरक्षा का खर्च भी दिल्ली सरकार में मत्थे नहीं चढ़ता। यहाँ तक कि दिल्ली पुलिस की पेंशन देनदारियों का वहन भी केंद्र सरकार ही करती है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि दिल्ली सरकार द्वारा अर्जित वित्त आख़िर खर्च कहाँ हो रहा है?
रिपोर्ट की प्रमाणिकता इस बात से है कि दिल्ली के पूर्ण राज्य न होने के कारण, दिल्ली की केजरीवाल सरकार खुले बाजार से कर्ज लेने के लिए अधिकृत नहीं है। इसी वजह से भारत सरकार के पास दिल्ली सरकार के ऋण के रिकॉर्ड और रसीद उपलब्ध हैं।
उल्लेखनीय है कि कर्ज में डूबी दिल्ली सरकार ने अपने विधायकों के वेतन और भत्तों में वृद्धि के संबंध में एक विधेयक पारित करने के लिए जुलाई माह में दिल्ली विधानसभा की दो दिवसीय मानसून सत्र का आयोजन किया था। इसके पारित होने के बाद बड़ा विवाद भी हुआ था लेकिन आम आदमी पार्टी ने बिना किसी माफी के ही आलोचनाओं को सिरे से खारिज कर दिया।
केजरीवाल सरकार पिछले काफी समय से बिना पछतावे के, कर्ज और बिल के मामले में झूठे वादे करती आ रही है। आगामी चुनावों को देखते हुए आम आदमी पार्टी ने एक बार फिर से झूठ का जाल फैला रही है, लेकिन यह देखना होगा कि क्या वे गुजरात और हिमाचल प्रदेश के नागरिकों के साथ छल कर पाएँगे?
यह लेख श्रुति झा द्वारा लिखा गया है