आम आदमी पार्टी की आईटी सेल ने सीने पर पत्थर रखकर सोशल मीडिया पर केजरीवाल जी के रोने का वीडियो डाला है। सीने पर पत्थर रखा था इसकी पुष्टि टूटे हुए दिल की इमोजी के जरिए देखी जा सकती है। केजरीवाल जी वीडियो में शिक्षा के क्रांतिदूत मनीष सिसोदिया को याद करके रोए। अगर आपको भी इससे सिसोदिया जी के स्वास्थ्य की चिंता हुई है तो स्पष्ट कर देते हैं कि वो स्वस्थ हैं और शराब घोटाले के तहत जेल में अपने कर्मों का हिसाब दे रहे हैं।
न्यायालय का मानना है कि सिसोदिया कॉन्सपिरेटर इन चीफ हैं और जाँच को प्रभावित करने की हैसियत रखते हैं इसलिए उन्हें जमानत नहीं दी जा सकती। आम आदमी पार्टी और केजरीवाल किसी से सहमत न होने का अपना रिकॉर्ड बरकरार रहते हुए कहते हैं कि बीजेपी दिल्ली में शिक्षा क्रांति को देखकर डर गई और भगत सिंह समान मनीष सिसोदिया को जेल भेज दिया।
रोता हुआ इंसान क्या नहीं बोला जाता और क्या नहीं भूल जाता। इसी को ध्यान में रखकर पाठकों के लिए हम साफ कर देते हैं कि मनीष सिसोदिया किसी कथित शिक्षा क्रांति के लिए नहीं बल्कि शराब घोटाले में अंदर गए हैं। दरअसल यूनिक दिल्ली मॉडल की महिमा यह है कि यहाँ शिक्षा मंत्री ही शराब मंत्री है। न्यायालय के अनुसार सिसोदिया मास्टरमाइंड हैं फिर भी अगर उनके जेल में जाने से शिक्षा क्रांति समाप्ति की राह पर आ गई है तो इसका अर्थ बस इतना है कि केजरीवाल सरकार की नई शिक्षा मंत्री ठीक प्रकार से काम नहीं कर रही है। या फिर काम कर रही है पर उसका उस तरह से फायदा केजरीवाल को नहीं मिल रहा है जिस तरह का फायदा सिसोदिया दिया करते थे। मंच पर इस दौरान केजरीवाल की नई शिक्षा मंत्री भी मौजूद थीं और अपने काम का इस प्रकार आकलन सुनकर वो क्यों नहीं रोई? यह अलग यक्ष प्रश्न है।
मनीष सिसोदिया और शिक्षा की स्थिति से तो यही प्रतीत हो रहा है कि केजरीवाल के आँसू न तो अपने मित्र के लिए थे न ही शिक्षा की क्रांति के लिए। तो फिर केजरीवाल रोए क्यों?
आदमी का मन भर जाता है तो वो रोता है। रोने के लिए और भी परिस्थितियां हो सकती है। जैसे आदमी अकेला पड़ जाए तो भी वो रो के अपना मन हल्का कर लेता है। संभव है कि केजरीवाल रोए क्योंकि वो अकेले हैं। मनीष सिसोदिया का नाम लेकर निकले आँसू उनके जीवन की वो अन्य कहानियां कह रहे हैं जो वो सार्वजनिक मंच से बयां नहीं कर पाए। केजरीवाल की स्थिति का शायद किसी उर्दु शायर ने पहले ही अंदाजा लगा कर लिख दिया था,
केजरीवाल रोए और पार्टी ने प्रचार किया पर किसी ने उनका दर्द नहीं समझा। पहले केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर उन्हें उनकी संवैधानिक स्थिति का आभास कराया। राज्य के गवर्नर की बात मानने की मजबूरी जब सामने आई तो वे विपक्षी समर्थन यात्रा पर निकल गए। उनका मानना है कि विपक्ष के नेताओं को उनके पक्ष से बोलना चाहिए कि वो गवर्नर की बात नहीं मानेंगे। यहीं उन्हें धक्का भी लगा। केजरीवाल की ख्वाइश पूरी करने के लिए कॉन्ग्रेस तैयार नहीं है उन्होंने ऑर्डिनेंस पर समर्थन देने से साफ इंकार कर दिया है। कॉन्ग्रेस का दोष मानें भी कैसे स्वयं उनका सांसद कानूनों के चक्कर में अयोग्य घोषित हो रखा है ऐसे में घर की सुधारें की पड़ोस की।
ऐसे में केजरीवाल क्या करें। उनके इसी एकांतता का अहसास उन्हें शायद भावुक कर रहा है। कॉन्ग्रेस देश की नहीं पर विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है जिनसे उन्हें समर्थन नहीं मिल पा रहा है। खैर, अब केजरीवाल ने एक समय जिन-जिन पार्टियों को भ्रष्टाचारी बोलकर देश बचाने की बात की थी आज उनसे अपने लिए समर्थन मांगने निकल पड़े हैं।
केजरीवाल बनना बिलकुल भी आसान नहीं है। घोटालों से घिरी सरकार का नेतृत्व कैसे करते हैं इसका संघर्ष केजरीवाल ही समझते हैं। उनके दो मंत्री घोटालों में अंदर है, जनसमर्थन नहीं मिल पा रहा है और अब संभावना भी नहीं है कि किसी नए आंदोलन से स्वयं को फिर से क्रांतिकारी घोषित कर दें। अब इतनी चिंताओं में आदमी के आंसु भी न निकले?
मनीष जी तो पिछले कई महीनों से जेल में है तो यह आंसु अब क्यों निकले? इसकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या की जा सकती है। केजरीवाल स्वयं को देश का सबसे ईमानदार मुख्यमंत्री मान रहे थे पर जनता ने उन्हें यह उपाधि देने से इंकार कर दिया। प्रधानमंत्री का डिग्री प्रलाप शुरू कर उन्होंने देश में एक आईआईटीयन प्रधानमंत्री की वैकेंसी खाली करनी चाही पर यहां भी उन्हें समर्थन नहीं मिला। अब स्थिति यह है कि उन्हें स्वयं 10वीं पास नेताओं के समर्थन की जरूरत पड़ रही है। ऐसे में यह दर्द वो कब तक छुपाएं।
हम तो केजरीवाल जी से पूरी संवेदनाएं रखते हैं। उन जैसा अकेला असहाय फिलहाल देश में कोई ओर नहीं क्योंकि अभी राहुल गांधी विदेश गए हैं। इस नाजुक स्थिति में किसी ने निष्ठुरता दिखाई है तो वो हैं आम आदमी पार्टी के अन्य नेता जो उनका वीडियो शेयर करके कह रहे हैं देखिए हमारे हिम्मती मुख्यमंत्री को। हमारा सुझाव है कि उन्हें आप देखिए। जरूरत है। आत्ममंथन की और चमत्कारिक समर्थन की भी। यह तो तय है कि अरविंद केजरीवाल ने एक्टिविस्ट के जीवन से राजनीति में जब कदम रखा तो उन्हें जरूर लगा था कि हर आंदोलन से निकलने वाला महात्मा की उपाधि प्राप्त करता होगा। अब आज शीशमहल में जब कोई लाठी पकड़ाने वाला नजर नहीं आता तो इसका दर्द आँसुओं के रूप में सामने आ ही जाता है।
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