गुरुवार को दिल्ली विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया जहाँ मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने कई मुद्दों पर भाषण दिया। उनके भाषण को सुनकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो वे देश की संसद में मौजूद हैं और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर प्रधानमंत्री को सम्बोधित कर रहे हैं। चूँकि ऐसा सम्भव नहीं है तो अरविन्द केजरीवाल हमेशा की तरह दिल्ली विधानसभा का विशेष सत्र बुला लेते हैं। हाल ही में संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी इस बात का उल्लेख किया था और कहा था कि दिल्ली विधानसभा का सत्रावसान होता ही नहीं।
इस सत्र में भी मुख्यमंत्री केजरीवाल आए और प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत टिप्पणियां करते चले गए। जो भी अमर्यादित शब्द उनके शब्दकोश में थे केजरीवाल ने लगभग उन सभी शब्दों का इस्तेमाल किया। एक अंदाज़ा आप यूँ लगाइये कि उन्होंने कहा, “क्या देश को धंधा करने वाला प्रधानमंत्री चाहिए?”
इन टिप्पणियों का असर ये हुआ कि केजरीवाल के भाषण में उठाये गए अन्य मुद्दों की कईं चर्चा कहीं न हुई। शायद वे भी यही चाहते थे इसलिए उन्होंने ऐसे मुद्दे उठाये जिनका दूर-दूर तक दिल्ली की जनता और दिल्ली विधानसभा से कोई संबधं ही नहीं था। मणिपुर से लेकर चीन तक, मेहुल चौकसी से लेकर अडानी तक। नहीं बोले तो केवल दिल्ली की लचर होती स्वास्थ्य व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, बाढ़ से जूझ रही दिल्ली और पानी की क़िल्लत पर।
मुद्दों को सिर्फ हंगामे के लिए प्रयोग करने की कला वे राहुल गाँधी से सीख रहे हैं। राहुल गाँधी ने अडानी नाम को अपना तकिया कलाम ही बना लिया था। अडानी, SEBI और हिंडनबर्ग के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित कमेटी ने जबसे अपनी अंतरिम रिपोर्ट में SEBI की भूमिका पर अड़ानी को क्लीन चिट दी उसके बाद से राहुल गांधी की ज़ुबान पर अड़ानी का नाम नहीं आया पर जैसे ही उन्हें संसद में खड़ा होने का मौक़ा मिला, उन्होंने फिर से अडानी का नाम लेना शुरू कर दिया। यही काम केजरीवाल दिल्ली विधानसभा में खड़े होकर करते हैं। दोनों नेता प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत राजनीतिक विरोध के लिए आरोप के लिए क्रमशः लोकसभा और विधानसभा का सहारा लेते रहे हैं।
प्रश्न यह है कि यदि राहुल गाँधी या केजरीवाल के पास उनके आरोपों के समर्थन में सबूत हैं तो उन्हें उन सबूतों को लेकर न्यायपालिका जाना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे यूपीए सरकार के दौरान हुए घोटालों को लेकर भाजपा के नेता न्यायपालिका पहुँचे थे। इनके पास तो यह भी सुविधा है कि फैसला पक्ष में न आने पर न्यायपालिका के फैसले को भी सत्ताधारी दल का फैसला बता सकते हैं पर फिर भी ये न्यायपालिका न जाकर केवल आरोप लगाते हैं।
वर्तमान में ऐसा लग रहा है कि अरविन्द केजरीवाल और राहुल गाँधी एक अघोषित दौड़ में शामिल हो चुके हैं और यह दौड़ नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष का नेता बनने की है।
अरविन्द केजरीवाल को प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमले का सहारा इसलिए लेना पड़ा क्योंकि केजरीवाल को लग रहा है कि राहुल गांधी विपक्ष में फिर से चेहरे के रूप में स्थापित हो रहे हैं। भले ही वे प्रधानमंत्री मोदी के बराबर में नहीं दिख रहे हैं लेकिन संसद सदस्यता रद्द होने से लेकर और अब तक, कांग्रेस उन्हें विपक्ष का चेहरा बनाने में एक हद तक कामयाब दिख रही है।
वहीं देखा जाए तो कांग्रेस दिल्ली सेवा बिल पर अरविंद केजरीवाल के सामने पूरी तरह सरेंडर कर चुकी है और इससे अधिक कांग्रेस अब केजरीवाल का साथ देने के मूड में नहीं दिख रही है। यह बात हाल ही में अल्का लाम्बा के बयान से स्पष्ट है जहाँ वे कह रही हैं कि कांग्रेस दिल्ली की सात सीटों पर लड़ने की तैयारी कर रही है।
केजरीवाल भी समझते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए I.N.D.I. गठबंधन में अगर सीट बंटवारे की बात आई तो मुख्यतः उनका कांग्रेस से दो राज्यों में टकराव होगा, पंजाब और दिल्ली। हालाँकि अकेले लड़ने की स्थिति में आम आदमी पार्टी दिल्ली के मुकाबले पंजाब में अधिक सीटों पर जीत की अपेक्षा कर रही है क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी दिल्ली की पांच सीटों पर तीसरे नंबर पर रही थी। ऐसे में अरविंद केजरीवाल नहीं चाहेंगे कि दिल्ली की 7 सीटों के बदले पंजाब की 13 सीटों पर कोई समझौता हो।
इसलिए दिल्ली के मुख्यमंत्री ने I.N.D.I गठबंधन से अलग होने की पूरी तैयारी कर दी है। वे अभी से मुद्दों का चुनाव भी इस प्रकार कर रहे हैं जो उन्हें प्रधानमंत्री के साथ सीधी लड़ाई में दिखाए, हालाँकि दिल्ली विधानसभा भवन से संसद की दूरी उनके लिए अभी बहुत लम्बी है।
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