9 दिसम्बर, 2022 को एक बार फिर चीनी सैनिकों ने भारतीय सीमा क्षेत्र में घुसने का प्रयास किया। यह प्रयास अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हुई। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने संसद के दोनों सदनों को घटना की जानकारी दी। साथ ही भारतीय सेना की प्रतिक्रिया से भी अवगत कराया।
उन्होंने इस प्रकरण पर जवाब देते हुए कहा कि भारतीय सेना द्वारा चीनी सैनिकों के प्रयास को निष्फल कर उन्हें पुन: अपने क्षेत्र में खदेड़ दिया गया है साथ ही, भारत सरकार द्वारा कूटनीतिक स्तर पर चीन के सामने यह विषय उठाया गया है।
इस घटना के बाद भारत में पिछले कुछ वर्षों से चले आ रहे ट्रेंड्स के अनुरूप राजनीति होने लगी। विपक्ष से जहाँ राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अति-संवेदनशील विषय पर सरकार के सहयोगी बनने की आशा होती है, इसके उलट विपक्ष ने लगातार पीएलए द्वारा भारत की भूमि के बड़े भू-भाग पर कब्ज़ा करने के आरोपों को फिर से दोहराया है। हैरानी की बात यह है कि ये राजनीतिक दल आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति में मुग्ध भारतीय सेना के शौर्य और बलिदान को छोटा कर देते हैं।
यक्ष प्रश्न यह है कि जो चिंतक-बुद्धिजीवी देश में अपाहिज होते विपक्ष और देश में एकल पार्टी शासन की संभावना की चिंता जताते हुए दुबलाए जा रहे हैं उन्हें ऐसे समय में विपक्ष की भूमिका पर कुछ क्यों नहीं कहना होता है? जो स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष की अनुशंसा करते नहीं थकते उन्हें विपक्ष के इस गैर-जिम्मेदार रवैये को लेकर सवाल नहीं पूछने चाहिए? राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे गंभीर विषय पर उन्हें वोट देने वाले देश के नागरिक इस पर पुनर्विचार नहीं करेंगे? चुनाव हारने के बाद सरकारी तंत्र, चुनाव आयोग के दुरुपयोग और ईवीएम हैक करने के आरोप लगाना एक अलग बात है लेकिन अब जनता इन चीज़ों को बर्दाश्त नहीं करती, जिसका परिणाम हमारे सामने है।
क्या उन राजनीतिक दलों को नहीं लगता कि देश की जनता जिन्हें रोटी-कपड़ा-मकान के मकड़जाल में फांसकर रखा गया था। अब वह उससे बाहर निकल चुकी है और अब संघर्ष फाइनेंसियल इन्क्लूज़न और क्वालिटी ऑफ़ लाइफ का है। जो लोग जनमानस की सोच को जनरलाइज़ कर ‘व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी’ जैसे छिछले तंज कसते हुए उनका उपहास उड़ाते थे वे भी घोसले समेत टेलीविज़न से उड़कर यूट्यूब की शाख पर जा बैठने को बाध्य हो गए।
यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी (2014 के बाद) भारत द्वारा जितने भी मिलिट्री ऑपरेशन्स हुए हैं, उन पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिए गए हैं। बात हो सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट स्ट्राइक की या फिर गलवान के पराक्रम और बलिदान की। हर बार सरकार को घेरने के प्रयास में अपनी राजनीतिक नैतिकता को दफ़न करते चले गए और इसमें राजनीतिक दल और राजनेता ही अकेले भागीदार नहीं हैं।
रिटायर्ड हो चुके एक ठीक-ठाक सँख्या में सैनिक और सैन्य अधिकारी भी जिनकी प्राथमिकताएँ अब बदल चुकी हैं। इस सिंडिकेट का हिस्सा दिखते हैं। ऐसे लोग भी अब न्यूज़ पोर्टल्स और पॉलिटिकल पार्टी में फुल टाइम पोस्ट रिटायरमेंट करियर तलाश रहे हैं। इनके विचार सुनने-पढ़ने से इनके मनोविकार भी धीमी आँच में पकते कांस्पिरेसी का हिस्सा लगते हैं। सरकार की आलोचना करना अलग बात है जिससे किसी को परेशानी नहीं हो सकती लेकिन अपनी क्रेडिबिलिटी (आर्मी बैकग्राउंड की वजह से) को इनकैश करके ये सेना जैसे इंस्टीटूशन पर भी अप्रत्यक्ष रूप से आघात करते हैं और इसका डिसइन्फोर्मशन टूल्स की भाँति एजेंडा चलने वाले लोग प्रयोग करते हैं।
अग्निपथ योजना, राफेल डील, गलवान, सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट स्ट्राइक जैसे तमाम विषयों पर इनके विचार आपको सोचने पर बाध्य कर देंगे। इसके अलावा दिसम्बर 2021 को देश के चीफ ऑफ़ डिफेन्स स्टाफ विपिन रावत जी के आकस्मिक निधन के बाद इनके असली रंग देखे गए।
इस क्रम में अगले हैं देश के कथित कलाकार। हालाँकि इनका कला और मनोरंजन से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं दिखता। दिखता है तो बस देश और सेना जैसे संस्थानों पर सवाल उठाते। ये इस इंफॉर्मेशन वारफेयर के फुट सोल्जर की तरह काम करते हैं.. ये भारत की छवि धूमिल करने वालों के साथ सक्रीय होते हैं, मंच साझा करते हैं, उनके एजेंडा भरे ट्वीट्स को रीट्वीट करते हैं.. कभी सांप्रदायिक और जातीय आधार पर, टिकटोक बैन करने जैसे टैक्टिकल मूव्स पर और तो और “Galwan says hi” जैसे भद्दे कटाक्ष भी करते हैं.. इन जैसों को राजनीतिक समर्थन भी होते हैं जिससे इनके ढेले भर के विचार को बड़े स्तर पर फैलाया जाता है.. राजनीतिक पार्टियों के लोग/कार्यकर्ता इनके ट्वीट्स को लाइक्स और रिट्वीट्स करते हैं.. समझना जरुरी है कि जिन कथित कॉमेडियंस और एक्टर्स को एक अदद फिल्में और शोज़ नहीं मिल पाते वे इतने लोकप्रिय कैसे हो गए? जिन्होंने फिल्मों में साइड एक्टर्स के भी साइड एक्टर का रोल निभाया हो वो कैसे इतने बड़े पोलिटिकल इन्फ्लुएंसर्स बन बैठे?
एक बात तो स्पष्ट है कि राष्ट्रीय सुरक्षा अब भारत में चुनाव के हर स्तर पर एक गंभीर मुद्दा है.. यदि राजनीतिक पार्टियां या लोग इसपर एकजुटता नहीं दिखते हैं तो फिर आपको यह अधिकार नहीं है कि आप क्षेत्रीय राजनीति में भी राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा उठाने पर किसी पार्टी की निंदा कर सकें या फिर फ़ाउल प्ले चिल्लाएं..