आजादी के बाद एक संवैधानिक प्रावधान ने जम्मू कश्मीर के वाल्मीकि समुदाय के भाग्य पर एक हस्ताक्षर ऐसा कर दिया, जिसकी बदौलत उनकी पीढ़ियां सिर्फ मैला ढोने और सफाई करने के काम से आगे नहीं बढ़ पाईं। ये काम किया था अनुच्छेद 35-ए ने, जिस पर आजकल सुप्रीम कोर्ट में बहस भी चल रही है।
कश्मीर का मैला ढोने वाले दलित और अनुच्छेद 35 ए
ऋषि मुनियों के बारे में सभी जानते हैं कि वे स्कॉलर हुआ करते थे, ज्ञान के स्रोत हुआ करते थे। समाज को रास्ता दिखा कर वे समाज से बुराइयों का भी सफाया करने का काम करते थे। ऐसे ही एक ऋषि थे रामायण लिखने वाले ऋषि वाल्मीकि। उनके नाम से अपनी पहचान और कुल की परम्परा को जोड़ने वाले वाल्मीकि समुदाय के हिस्से भी सफाई का काम आता है, मैला ढोने का काम आता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि आजादी के बाद एक संवैधानिक प्रावधान ने जम्मू कश्मीर के वाल्मीकि समुदाय के भाग्य पर एक हस्ताक्षर ऐसा कर दिया, जिसकी बदौलत उनकी पीढ़ियां सिर्फ मैला ढोने और सफाई करने के काम से आगे नहीं बढ़ पाईं।
हमारे आस पास आज भी वाल्मीकि समुदाय के लोग गंदे नालों में उतर कर उन्हें साफ़ करते दिखते हैं, मैला ढोते हैं। समय बदलने के साथ दलित वर्गों को संविधान ने कई अधिकार प्रदान किए। सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 में छुआछूत करने वालों को दंड के प्रावधान मौजूद हैं। साल 1993 और 2013 में आये कुछ कानूनों में यह प्रावधान किया गया कि स्थानीय प्रशासन सर्वे कर यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसे सूखे पाखाने न बनें जहाँ हाथों से मानव मल-मूत्र की सफ़ाई करनी पड़े।
जो लोग इन कामों को कर भी रहे थे उनके पुनर्वास की व्यवस्थाएं हुई, उनसे मैला ढोने का काम छुड़ाकर दूसरे सम्मानित रोजगार उन्हें दिए गए। दलितों के कल्याण के लिए देश में समय समय पर न जाने कितने आंदोलन हुए, आयोग और क़ानून बने। लेकिन जम्मू कश्मीर राज्य में 1957 से रह रहे वाल्मीकि समुदाय की पीड़ा पर इन सब प्रयासों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसका एक कारण यह भी है कि शेष भारत में दलितों के लिए जो कानून बने हैं वे जम्मू कश्मीर के वाल्मीकि समुदाय के लोगों पर लागू नहीं होते।
14 मई, 1954 का दिन था जब कॉन्ग्रेस शासन के तहत राष्ट्रपति के आदेश के आधार पर अनुच्छेद 35 A को भारत के संविधान में जोड़ दिया गया था। ये एक अनुच्छेद घाटी में रहने वाले दलितों के लिए कभी न भरने वाला जख्म था। इस एक अनुच्छेद के आधार पर यहाँ पर रहने वाले दलित न कभी पूरी शिक्षा हासिल कर सके और न ही उन्हें कभी अच्छी नौकरी ही मिल पाई। उनके हिस्से अगर कुछ काम शेष था तो वो था मैला ढोने और सफाई करने का, जिसके लिए उनके पूर्वजों को जम्मू कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री बक्शी ग़ुलाम मुहम्मद ने पंजाब से जम्मू कश्मीर बुलाया था।
कॉन्ग्रेस हर तरह से उस संवैधानिक संशोधन की जिम्मेदार है, जिसके समर्थन से वाल्मिकियों के खिलाफ भेदभाव करने की अनुमति संवैधानिक बन गई। सत्ताधारियों ने तय कर लिया कि वाल्मीकि समुदाय के लिए सफाई कर्मचारी के सिवाय कोई और नौकरी नहीं होगी, न ही कोई सरकारी नौकरी और इस फैसले से किसी को आपत्ति तक नहीं हुई।

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35A जम्मू-कश्मीर में ‘बाहर’ से आए हुए वाल्मिकी समुदाय के लोगों के मानवाधिकार के हनन का सबसे बड़ा हथियार बन गया। भारतीय संविधान में अब एक ऐसा प्रावधान जोड़ दिया गया जिसने जाने-अनजाने में दलितों के साथ इस भेदभाव को जायज ठहरा दिया। 6 दशक से अधिक समय से उन्हें उनके मौलिक अधिकार नहीं मिल पाए क्योंकि उनका नाम ‘बाहरी’ है।
साल 1957 में जम्मू शहर में साफ़ सफाई एक बड़ा मुद्दा बन गया था। जो स्थानीय सफाई कर्मचारी थे वे अपनी नौकरियों को नियमित करने और वेतन बढ़ाने की मांग को लेकर हड़ताल कर रहे थे। नगरपालिका ठप्प हो गई। शहर कूड़े के ढेर में तब्दील हो गए। तब जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री, जिन्हें लोग वहां का ‘प्रधानमंत्री’ कहना पसंद करते हैं, बख्शी गुलाम मोहम्मद ने फैसला लिया कि वो सफाई कर्मचारियों को अब दूसरे राज्यों से लेकर आएँगे। पंजाब राज्य से बातचीत हुई और वाल्मीकि समुदाय के लोगों को जम्मू कश्मीर में आमंत्रित कर बतौर सफाई कर्मचारी नियुक्त करने की बात पक्की हो गई। सरकारी रिकॉर्ड कहते हैं कि उस समय जम्मू कश्मीर प्रवास करने वाले इन परिवारों की संख्या 206 से 272 के बीच थी। नगरपालिका ने उन्हें विशेष परमिट जारी कर मुफ्त में बुलाया गया। तब जम्मू कश्मीर में इन दलितों को घर बनाने के लिए जमीन भी दी गई जो शेष थे उन्हें शहरों में आवास की भी सुविधा दी गई। अमृतसर और गुरदासपुर से आए हुए इन लोगों को आश्वासन दिया गया कि इनके लिए स्थाई निवास की परिभाषा में राहत का प्रावधान होगा।
यहाँ पर वाल्मिकियों के लिए पीआरसी यानी Permanent Resident Certificate की शर्तों में ढील देते हुए जम्मू और कश्मीर सिविल सेवा रेगुलेशन में एक प्रावधान जोड़ा गया था, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि ये राहत सिर्फ उन्हीं लोगों को दी जाएगी जो सफाई कर्मचारी के पद पर नियुक्त किए जाएंगे। असली समस्या यहीं से शुरू हुई। ये उन लोगों के लिए तो ठीक था जो यही काम करने के लिए दूसरे राज्यों से बुलाए गए थे लेकिन उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए यहाँ से समस्या पैदा होना स्वाभाविक था।
पहली पीढ़ी को तो कोई समस्या नहीं आई लेकिन उनकी आने वाली पीढ़ियों को SC सर्टिफिकेट तक नहीं मिल पाए क्योंकि उनके पास जम्मू कश्मीर का डोमिसाइल ही नहीं था। वो न ही किसी सरकारी नौकरी के लिए आवेदन कर पाते और ना ही अन्य नागरिकों जैसी कोई सुविधा हासिल कर पाते। वजह था अनुच्छेद 35 A, जिसमें उनके बच्चों को बाहरी बताने के प्रावधान निहित थे। इस प्रकार जब इस समुदाय का कोई बच्चा जन्म लेता है तो उसके माथे पर वैधानिक रूप से ‘दलित’ लिखा होता है। वह बड़ा होकर चाहे कितनी भी पढ़ाई कर ले उसे जम्मू-कश्मीर राज्य में सफ़ाई कर्मचारी की नौकरी ही मिल सकती है।
वे ग्रेजुएट नहीं हो सकते, मतदान नहीं कर सकते, उनके पास अपना कोई घर नहीं है। क्योंकि उनके घरवाले कम आय वाली नौकरी करते थे इसलिए वे अपने बच्चों को अच्छे स्कूल तक नहीं भेज सके। अब इस समुदाय की लड़कियाँ जम्मू-कश्मीर राज्य के बाहर जाकर विवाह कर रही हैं क्योंकि वे अपनी जाति के कम पढ़े लिखे सफाई कर्मचारी की नौकरी करने वाले, कम आमदनी वाले युवाओं से विवाह नहीं करना चाहतीं। ऐसे में वाल्मीकि समुदाय के लड़कों को विवाह के लिए लड़कियाँ नहीं मिल रहीं। वो किसी चुनाव का हिस्सा नहीं बन सकते, राज्य द्वारा दी जाने वाली किसी भी स्कॉलरशिप से वो हमेशा वंचित रहे। ये पूरी इनफाइनाइट लूप है।
अनुच्छेद 370 और 35 A के अस्तित्व पर सर्वोच्च न्यायालय में बहस जारी है। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने सुनवाई के दौरान कहा कि अनुच्छेद 35 A ने देश के अन्य हिस्सों में रहने वाले लोगों के मूल अधिकारों को छीन लिया था। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 35 A जम्मू कश्मीर की विधानसभा को यह अधिकार देता था कि वो राज्य में स्थाई निवासियों की परिभाषा तय कर सके। इसी अनुच्छेद में यह भी निहित था कि जम्मू-कश्मीर के मूल निवासी को छोड़कर बाहर के किसी व्यक्ति को राज्य सरकार में नौकरी भी नहीं मिल सकती थी। बाहर का कोई व्यक्ति जम्मू-कश्मीर राज्य द्वारा संचालित किसी प्रोफेशनल कॉलेज में एडमिशन भी नहीं ले सकता था।
1957 में आए वाल्मीकि समुदाय के 272 लोगों के वंशजों की संख्या आज बढ़कर हज़ारों में हो गई है, लेकिन वे उसी अस्थाई रूप से बने बसेरों में रहने को मजबूर हैं। अब चूंकि ये लोग किसी मतदान का हिस्सा नहीं हो सकते इसी कारण PDP, या नेशनल कांग्रेस या अन्य किसी राजनीतिक दल ने ऐसी कोशिश नहीं की कि वो इनके हितों के लिए आवाज उठाते।
मीडिया में भी आप इस विषय पर किसी को बोलते नहीं सुनेंगे। अम्बेडकरवादी भी जम्मू-कश्मीर के वाल्मीकि समुदाय की बात नहीं करते हैं। मैला ढोने की परंपरा पर भाषा सिंह ने एक बहुचर्चित पुस्तक लिखी ‘Unseen: The Truth About Indian Manual Scavengers’ इसमें लेखिका ने जम्मू-कश्मीर की उन जातियों के बारे में तो लिखा जो यह साफ़-सफाई का काम आज भी कर रही हैं, लेकिन भाषा सिंह ने अपनी पुस्तक में वाल्मीकि समुदाय के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा।
ये सब अत्याचार और मानवाधिकारों के हनन का अध्याय लिखा अनुच्छेद 35-A ने, जिसे गलत तरीके से संविधान में जोड़ा गया था। संविधान संशोधन की प्रक्रिया अनुच्छेद 368 में दी गई है, जिसके अनुसार संविधान में कोई भी अनुच्छेद जोड़ने के लिए संसद में संविधान संशोधन बिल लाया जाता है। लेकिन अनुच्छेद 35-A कभी संसद से पास हुआ ही नहीं। आज लोकतंत्र की दुहाई देने अगर आपके समक्ष कोई आए तो उसे ये कहानी आप जरूर सुनाएँ –
जब अनुच्छेद 35-A को हस्ताक्षर के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के पास भेजा गया था तब उन्होंने जवाहरलाल नेहरू से पूछा था कि ‘क्या मैं यह असंवैधानिक कार्य कर सकता हूँ’? इस पर तिकड़मबाज प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनसे कहा था कि हम इस मामले पर कभी अनौपचारिक रूप से चर्चा करेंगे। लेकिन ये बात भी अनौपचारिक रूप से ही हुई थी।
इस बाहरी और अंदरूनी नागरिक होने के खेल ने जम्मू कश्मीर में कई किस्म की समस्याएं पैदा कीं। बाहरी निवेश तक इस ज़मीन पर नहीं पहुँच पाया। कुल मिलाकर अगर आसान शब्दों में समझें तो घाटी के आम जन जीवन को मुख्यधारा से जोड़ने के बीच अगर किसी एक चीज ने सबसे बड़ी बाधा पैदा की थी तो वो ये आर्टिकल था। भले ही कपिल सिब्बल आज भी अदालत में पहले प्रधानमंत्री नेहरू जी के बयानों से ‘बाहरी के प्रवेश वर्जित’ होने को तार्किक साबित करने का कितना ही प्रयास क्यों ना कर रहे हों।
यहां के स्थानीय निवासियों और दसरे राज्यों के नागरिकों के बीच अधिकार अब समान हैं। घाटी से अनुच्छेद 370 के प्रावधानों के निरस्त होने का ही नतीजा है कि आज वाल्मीकि समुदाय, गोरखा लोगों और पश्चिमी पाकिस्तान से खदेड़े गए शरणार्थियों को पहली बार राज्य में होने वाले चुनाव में मत देने का अधिकार मिला।