पश्चिम बंगाल एक बार फिर सांप्रदायिक हिंसा का सामना कर रहा है। कोलकाता के मोमिनपुर में हिंदुओं के विरुद्ध हुई हिंसा ने पश्चिम बंगाल में पहले से मौजूद सांप्रदायिक हिंसा की लंबी सूची को और लंबा कर दिया। चूँकि पिछले कई वर्षों से प्रदेश की ‘सेक्युलर’ राजनीति को लेकर परंपरागत और सोशल मीडिया का एक स्थाई टेम्पलेट रहा है, इसलिए इस बात की संभावना अधिक है कि सांप्रदायिक हिंसा की यह ताजा घटना भी न केवल आँकड़ा बनकर रह जाएगी, बल्कि इस ताजे आँकड़े को भी स्थायी टेम्पलेट में गाड़ दिया जाएगा। इससे किसी को आश्चर्य भी होगा, इसकी संभावना न के बराबर है।
परंपरागत मीडिया की दृष्टि में, लंबे समय से बोए गए इस टेम्पलेट से छेड़-छाड़ करना पश्चिम बंगाल की ‘सेक्युलर’ राजनीति के लिए सही नहीं है। यह ऐसा अघोषित नियम है जो चुपचाप प्रदेश की परंपरागत मीडिया के कानों में न केवल गूँजता है, बल्कि उसकी जड़ता को मजबूती प्रदान करता है। पिछले लगभग दस वर्षों की बात की जाए तो हर हिंसा के आगे घुटने टेकने और निष्क्रियता में प्रदेश की मीडिया ने ममता बनर्जी सरकार को भी पीछे छोड़ दिया है। प्रदेश के लिए यह लोकतंत्र के दो प्रमुख स्तंभों की ऐसी कथा है जिसे न छिपा सकते हैं और न ही सुना सकते हैं।
पिछले कई वर्षों में समय-समय पर घटी सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं और उनके प्रति राजनीतिक, सामाजिक और सरकारी उदाशीनता प्रदेश सरकार और उसके नेतृत्व को कहाँ खड़ा करती हैं? इस प्रश्न का उत्तर भी अघोषित नियमों में छिपा है जिनमें सबसे प्रमुख नियम है; किसी भी संवाद में तथ्यों को बीच में न आने देना। अपने इस राजनीतिक दर्शन को लेकर तृणमूल कॉन्ग्रेस इतनी गंभीर है कि सार्वजनिक तौर पर होने और दिखाई देने वाली सांप्रदायिक हिंसा को भी नकार देती है, उसे राजनीतिक हिंसा करार कर देती है या फिर उस हिंसा के लिए विपक्षी दल को जिम्मेदार ठहरा देती है।
परंपरा के अनुसार सांप्रदायिक या राजनीतिक हिंसा को होने देने से लेकर उसे बढ़ावा देने तक के प्रश्न पर अंतिम निर्णय सत्तासीन दल और उसकी सरकार करती है। ‘सेक्युलर’ राजनीति की रक्षा के नाम पर किसी और को इस विषय पर निर्णय सुनाने का अधिकार नहीं दिया गया है। यहाँ तक कि न्यायालय भी निर्णय तक पहुँचने से बचते रहे हैं। हाल में कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश और सत्तासीन दल के वकील रूपी नेताओं और नेता रूपी वकीलों के बीच हुए सार्वजनिक वाद-विवाद इसका सबूत हैं। इसके पहले उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा प्रदेश में वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव परिणाम के पश्चात हुई हिंसा की न्यायिक सुनवाई से अलग करना सबको याद होगा।
प्रदेश में लोकतंत्र और संविधान को बचाने का जो टेम्पलेट गढ़ा गया और अब तक सार्वजनिक हो चुका है, वह ममता बनर्जी को क्या दिशा देगा? यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर केवल ममता बनर्जी के पास है। यह उनके ऊपर निर्भर करेगा कि वे किस दिशा में जाना चाहती हैं? प्रदेश में सत्ता पर काबिज रहने के लिए उन्होंने ऐसी शक्तियों से समझौता किया है जो उनकी लंबी राजनीतिक यात्रा को जारी रखने में मदद नहीं कर सकते। इसके साथ मोदी विरोध का बोझ उनके कंधों पर इतना भारी है कि उसे लेकर वे अधिक दूर तक नहीं चल सकतीं। ये दो बातें राष्ट्रीय राजनीति की उनकी महत्वाकांक्षा को न केवल धक्का पहुँचाती हैं, बल्कि राज्य में भी उनकी राजनीतिक शक्ति को क्षीण करती हैं।
फैसला उन्हें जल्दी करना होगा। उत्तर उन्हें जल्दी देना होगा।