आंध्र प्रदेश में विपक्ष के नेता चंद्रबाबू नायडू की सभाओं में पिछले दस दिनों के भीतर दो बार भगदड़ मच चुकी है। परिणामस्वरूप अब तक दस से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। यह तब हो रहा है जब भीड़ का जमावड़ा किसी चुनाव प्रचार के कारण नहीं है। यह सामान्य बात नहीं हो सकती। राजनीतिक हालात चाहे जैसे हों पर किसी भी परिस्थिति में भगदड़ में किसी नागरिक की मृत्यु नहीं होना चाहिए।
राजनीति में नेता और वोटर के बीच का सम्बन्ध लगातार बदलता रहता है। जब तक वोटर जनता के रूप में है तब तक उसके पास जाना नेता के लिए सामान्य बात होती है परन्तु जब वोटर भीड़ बन जाता या उसके भीड़ में कन्वर्ट होते ही उसका नेता के पास जाना सामान्य बात हो जाती है।
एक नेता और राजनीतिक दल के लिए भीड़ राजनीतिक शक्ति के प्रदर्शन का आधार है। यही कारण है कि नेता के आगे भीड़ का होना अर्थात शक्ति का प्रदर्शन।
यह कहा जाता है कि शक्ति अकेले नहीं आती। वह अपने साथ जिम्मेदारियाँ भी ले आती है। भीड़ को देखकर शक्तिमान हो जाने वाले नेता की यह जिम्मेदारी है कि वह हर हालत में भीड़ को काबू में रखे। यदि वह ऐसा करने से चूक जाता है तो फिर उसकी शक्ति के साथ उसकी क्षमता भी कम दिखाई देती है।
प्रश्न यह है कि अपनी रैलियों में भगदड़ के बाद नायडू का राजनीतिक कद बढ़ा है या घटा है?
राजनीति उन बिंदुओं से बहुत आगे आ चुकी है जहाँ कभी वोटर भीड़ की शक्ल में अपने नेता को देखने और सुनने आता था। स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी विपक्ष में रहे या सत्ता में पर जहाँ भी जाते, भीड़ उन्हें देखने और सुनने आती बल्कि घंटों तक प्रतीक्षा करने के लिए तैयार रहती। भीड़ का आचरण नेता की शक्ति का परिचायक था, भीड़ का जुटना नहीं। भीड़ को नियंत्रण में रखने की शक्ति नेता में होती थी।
नेतृत्व की कुछ ऐसी ही शक्ति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 27 अक्टूबर, 2013 की पटना रैली में दिखाई दी। प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनने के बाद यह नरेंद्र मोदी की पहली बड़ी रैली थी जिसमें बम ब्लास्ट करवा के अस्थिरता और भगदड़ करवाने की कोशिश की गई थी।
यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जनता का विश्वास, उनकी स्वीकार्यता और उनका नेतृत्व था कि ऐसा करवाने वाले सफल नहीं हो सके। रैली के बाहर बम धमाके हो रहे थे और लोग पटाखे समझ कर अपने नेता के भाषण को सुन रहे थे।
नेता का निज के द्वारा जुटाई गई भीड़ पर नियंत्रण न रख पाना उसकी नेतृत्व क्षमता की कमियों का सूचक है।
भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसे उदहारण रहे हैं जहाँ भीड़ पर नेता की पकड़ ढीली रही और उसके भयानक परिणाम हुए। 21 जुलाई, 1993 को ममता बनर्जी राइटर्स बिल्डिंग घेरने के अभियान के दौरान लाखों समर्थकों की भीड़ पर नियंत्रण न रख सकीं और पुलिस फायरिंग में दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए और कई दर्जन घायल हुए।
राजनीति में भीड़ को सफलता का सूचक माना जाता है पर आज भीड़ जुटाने के विभिन्न तरीकों से देश परिचित है।
वर्तमान में बड़ी रैलियों से पूर्व निर्धारित संख्या का लक्ष्य भले तय हो जाए परन्तु राजनेताओं को यह समझने की आवश्यकता है कि लोकतंत्र में भीड़ जुटाने से अधिक महत्वपूर्ण उसे नियंत्रित करने की क्षमता है और उसके लिए अभी तक कोई रिमोट कंट्रोल नहीं बना। वह नेतृत्व की क्षमता और उसकी स्वीकार्यता का परिणाम होता है।