भारत के एक राष्ट्र होने पर प्रश्न उठाने वाले लोग अपना इतिहास भुला चुके हैं। 18वीं सदी में भारत के एक राजा ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और उसे अपने अधिकार में लेकर चार मांगे रखीं। इनमें सर्वप्रथम जो मांग की, वो थी सोमनाथ मंदिर के दरवाजे वापस करने की। वही दरवाजे जो करीब 800 वर्ष पूर्व मोहम्मद गजनी अपने आक्रमण में लूट के ले गया था। भारतीय राजा ने वो दरवाजे वापस लिए। 800 वर्ष बाद भी अपनी परंपरा और संपत्ति की रक्षा करने वाले इस दिलेर राजा थे महाराजा रणजीत सिंह, जो सिख शासन के संस्थापक भी थे।
अफगानिस्तान विजय से उन्हें जो सोना मिला उसमें से आधा उन्होंने हरमिंदर साहिब को दिया और आधा काशी विश्वनाथ को। उनके शासन में सिख साम्राज्य में देश में अपनी जड़ें मजबूत की। उन्होंने जिस शासन की स्थापना की वो भारत का एक अभिन्न हिस्सा था न कि अलग देश। जिस इतिहास को महाराजा रणजीत सिंह 800 वर्षों बाद भी नहीं भूले वो खालिस्तान समर्थक मात्र कुछ वर्षों की अवधि में भूल चुके हैं।
हाल ही पंजाब में बढ़ रही अलगाववाद की मांग और भिंडरावाले 2.0 के नारों के बीच खालिस्तान बनाने की आवाज़ें आ रही हैं। इतिहास उठाकर देखें तो देश में सिख शासन जिस प्रांत में स्थापित हुआ वो अविभाजित भारत का हिस्सा था, जिसकी राजधानी लाहौर थी और इसी पंजाब का एक बड़ा हिस्सा आज पाकिस्तान में स्थित है। यदि इन तथ्यों को ध्यान में रखा जाए तो यह प्रश्न स्वाभाविक हो जाता है कि खालिस्तान की मांग भारत में उठना किसी दृष्टिकोण से जायज है? प्रश्न यह भी उठता है कि इस माँग के पीछे भारत में मिलने वाली अनवरत स्वतंत्रता का कितना हाथ है?
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पंजाब की वर्तमान कानून व्यवस्था को देखकर 1980 का दशक याद आ रहा है। खालिस्तान की मांग पंजाब ही नहीं देश की अखंडता के लिए बड़ा खतरा है पर इसकी आवश्यकता और औचित्य पर प्रश्न उठाए जा सकते हैं। अलगाववाद की मांग अक्सर दमन, भेदभाव और अत्याचारों से जन्म लेती है पर प्रश्न यह है कि जो पंजाब भारत का अभिन्न हिस्सा है वो वह किस तरह दमित है?
तो क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि खालिस्तान समर्थकों का उद्देश्य मात्र भारत की अखंडता को भंग करना एवं अशांति फैलाना है?
बात 1980 की हो या वर्तमान की, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बदली भू–राजनीति ने खालिस्तान की मांग को हमेशा ही प्रभावित किया है। 1980 में भी शीत युद्ध के बाद सोवियत संघ के कमजोर होने पर अफगानिस्तान मुक्त हुआ था और वहां पाकिस्तान मुजाहिदीनों के आतंक के बीच भारत में खालिस्तान की मांग बढ़ी थी। वहीं हाल ही में पंजाब में बदले हालातों के बीच अफागानिस्तान में तालिबान शासन स्थापित है एवं खालिस्तान समर्थकों को अमेरीका, कनाडा, पाकिस्तान, जर्मनी जैसे देशों से फंडिंग मिल रही है।
इंदिरा गाँधी के शासनकाल में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद वर्ष 1971 में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि पाकिस्तान भारत से उसका एक हिस्सा अलग कर देगा ईस्ट पाकिस्तान का बदला लेने के लिए। वो किस हिस्से की बात कर रहे थे यह खालिस्तान समर्थकों को देखकर याद आता है।
भारत की अखंडता और देश की आतंरिक सुरक्षा पर प्रहार के लिए खालिस्तानी समर्थक विदेशी मीडिया और फंड का उपयोग करते हैं पर उन्हें जमीनी समर्थन कितना प्राप्त है? भिंडरावाले के आदर्शों पर चलने वाले उग्रवादी महाराजा रणजीत सिंह और सिख गुरुओं की शिक्षाएं भूल कर प्रोपगेंडा का हिस्सा बन गए हैं। अगर सिख बंधुओं की रक्षा का सवाल है तो वो पाकिस्तान में सिखों की घटती जनसंख्या और जबरदस्ती मंतातरण पर अपना विरोध दर्ज क्यों नहीं करवाते? शायद इसके लिए उन्हें अपने विदेशी मित्रों से सहायता प्राप्त नहीं हुई है।
देश में स्वतंत्रता पूर्व से ही सिखों के लिए अलग स्वायत्तता की मांग उठी थी पर वो स्वायत्ता तक सीमित थी। वो कभी भी भारत से अलग नहीं होना चाहते थे। खालिस्तान की मांग को भड़काने में कॉन्ग्रेस सरकार की लापरवाही एवं तुष्टिकरण की राजनीति ज़िम्मेदार थी, इस बात से कौन इनकार कर सकता है?
इमरजेंसी लगाने के बाद पंजाब को हार चुकी इंदिरा गांधी और कॉन्ग्रेस फिर से वहां अपनी सत्ता स्थापित करना चाहती थी। अकाली दल के समक्ष सिखों के वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह ने चरमपंथी नेता भिंडरावाले को चुना। भिंडरावाले ने आने वाले वर्षों में सरेआम हत्याएं कीं, निरंकारी सिखों को मारा, पंजाब केसरी के संपादक को मारा पर सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। इस पर भिंडरावाले ने कहा था कि ‘मेरी पहचान बनाने में जितनी मदद इस सरकार ने की है उतनी मैं स्वयं भी पूरी जिंदगी में नहीं कर पाता’।
चरमपंथी नेता को चुनावी हथियार बनाकर लाने वाली कॉन्ग्रेस को गलती का ऐहसास बहुत देर से हुआ और बात ऑपरेशन ब्लू स्टार तक पहुँची जिसने सिखों के दिलों पर गहरा जख्म छोड़ दिया। सरकार की नीतियों ने चरमपंथी नेता को लोगों के बीच संत बना दिया। इसी भिंडरावाले की शिक्षाओं और सरकारी महकमे की असफलता को आधार बनाकर आज भी खालिस्तानी संगठन भारत की अखंडता पर प्रहार करने की कोशिश में रहते हैं।
भारत में कमजोर हुई अपनी जमीन को मजबूत करने के लिए खालिस्तान समर्थकों ने पश्चिमी देशों में पनाह ली और पश्चिमी देशों की फंडिंग का सहारा लिया। कनाडा और अन्य कई देशों में स्थापित हो रहे खालिस्तान संगठन न सिर्फ भारत बल्कि कई देशों के लिए हिंसा का कारण बने हुए हैं। मैकडोनाल्ड-लॉरियर संस्थान (MLI) की एक रिपोर्ट में खालिस्तान संगठनों को कनाडा और भारत दोनों की भू-राजनीति के लिए पाकिस्तान प्रायोजित खतरा करार दिया था पर इस बारे में कनाडा सरकार की ओर से कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है। शायद कनाडा सरकार अपने वोटबैंक की राजनीति से बाहर नहीं निकल पा रही है।
खालिस्तान समर्थक विदेशी फंड पर काम करते हैं पर उनकी विचारधारा को जमीनी समर्थन प्राप्त नहीं है। लंदन, अमेरिका, जर्मनी औरे विदेशों में हो रहे खालिस्तानी देश के समर्थन में विरोध मात्र भारत में अशांति फैलाने के लिए है। 1980 के दशक के बाद पंजाब ने अपनी नई पहचान बनाई है। वह अपने घावों से उबर कर आगे बढ़ा है। देश में खालिस्तान का समर्थन न के बराबर है और जो कभी कृषि बिल और कभी पंजाब की समस्याओं को मुद्दा बनाकर इन भावनाओं को भड़काने की कोशिश में लगे हैं उन्हें यही रोक देने की आवश्यकता है।
ऑस्ट्रेलिया में खालिस्तानियों के निशाने पर हिन्दू मंदिर
भारत में विरोध प्रदर्शन कर रहा हर सिख खालिस्तान समर्थक नहीं है। वे लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं जहाँ लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत ही प्रदर्शन करने की स्वतंत्रता है और सरकार को उनकी मांगे सुनने का अधिकार है। उनके प्रदर्शन को खालिस्तान से जोड़ कर उन्हें देश से दूर नहीं किया जा सकता। खालिस्तान की मांग एक कपोल कल्पना है। विदेशी ताकतों की भारत को तोड़ने की कोशिश है।
अमृतपाल सिंह मात्र एक उद्देश्य के लिए दुबई से भारत भेजा गया है। उसे भिंडरावाले 2.0 की उपाधि देकर दूसरा आतंकवादी बनाने से अच्छा है अभी से कानून व्यवस्था को सुदृढ़ कर दिया जाए। विक्टिम कार्ड खेलकर सुरक्षा पर हाथ खड़े करने की बजाए पंजाब सरकार से धरातल पर कार्य करने की उम्मीद की जानी चाहिए।