लोकतांत्रिक राजनीति की खासियत यह है कि आप किसी भी राजनीतिक विचारधारा या दर्शन का समर्थन कर सकते हैं। हाँ, यह प्रश्न अवश्य उठेगा कि जिनका आप समर्थन कर रहे हैं, क्या वो लोकतंत्र का समर्थन करते हैं? यह ऐसा प्रश्न है जिसे समर्थन करने वाले को खुद से पूछना चाहिए। लोकतंत्र की मान्यताओं और परंपराओं को बरकरार रखने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का सम्मान करना ही पड़ता है।
चुनाव देश की ओर बढ़ रहे हैं। जाहिर है इस वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों के साथ ही 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए पार्टियों ने अपनी कमर कस ली है। देश की राजनीतिक स्थिति की बात करें तो हर बार की तरह इस बार भी विपक्षी पार्टियों पर एकजुटता दिखाने का दबाव भले ही न हो लेकिन उन्होंने अपने ऊपर यह दबाव बना लिया है।
इसी बीच 2019 के लोकसभा चुनावों में लोकतंत्र को खतरे में बताकर सभी विपक्षी पार्टियों को बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने के लिए उकसाने वाले वाले अर्थशास्त्री और राजनीतिक सलाहकार अमर्त्य सेन ने इस बार ममता बनर्जी को समर्थन देते हुए उनके कंधों पर ये जिम्मेदारी डालकर उन्हें प्रधानमंत्री की दौड़ में खड़ा करने का प्रयास किया है। ममता बनर्जी ने दबे स्वरों में सेन का समर्थन ले भी लिया है।
अमर्त्य सेन का मानना है कि 2014 में भारतीय जनता पार्टी गलत इरादों के साथ सत्ता में आई थी और अन्य दलों को उनके खिलाफ एक साथ मोर्चा खोलना चाहिए। हालांकि, मोर्चा तो सेन के कहने से पहले ही खुला हुआ है लेकिन उसमें सर्वमान्य नेता न मिलने के कारण एकजुटता पर समझौता करना पड़ रहा है।
अब सेन ने रही-सही एकता में सार्वजनिक रूप से नाम लेकर सेंध लगा दी है क्योंकि विपक्षी दलों में नेता के ‘नाम’ पर ही तो विवाद है। ‘हमारा नेता कैसा हो- बिलकुल मेरे जैसा हो’ के सिद्धांत पर काम कर रही पार्टियां पिछले 7-8 सालों से एकजुट होने का प्रयास कर रही हैं।
वैसे कोई नेता किसी पार्टी या किसी विषय विशेषज्ञ का लोकप्रिय नेता हो, इससे ज्यादा जरूरी है कि उसे जनता के बीच समर्थन प्राप्त हो। बात जब प्रधानमंत्री पद की हो रही हो तो यह और भी जरूरी हो जाता है। अब ममता बनर्जी सेन के लिए एक लोकप्रिय नेता हों लेकिन अन्य दल उनसे सहमत होंगे इसे लेकर संशय पहले से है। दलों को दरकिनार कर दें तो पश्चिम बंगाल के बाहर उन्हें कितना समर्थन प्राप्त है इसपर अमर्त्य सेन ने शायद विचार नहीं किया।
लोकसभा चुनावों के मद्देनजर अपनी राजनीतिक यात्रा पूरी कर चुके राहुल गांधी आज ममता बनर्जी को अपना नेता स्वीकार करेंगे, ऐसी कोई मंशा उन्होंने जाहिर नहीं की है। बिहार में नीतीश कुमार राजनीतिक गठजोड़ में अपना समय व्यतीत कर रहे हैं ताकि उनका नाम दौड़ में बना रहे। अन्य पार्टियों का भी कमोबेश यही हाल है तो ये माना जा सकता है कि ममता बनर्जी प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल हों, ये राजनीतिक जरूरत से ज्यादा सेन की व्यक्तिगत इच्छा है।
अब जहां तक सवाल रहा लोकतंत्र को बरकरार रखने का तो इसका भार बनर्जी पर डालना गलत है। उन्होंने तो पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के परिणामों बाद लोकतंत्र की रक्षा (अगर हुई थी तो) करने की मंशा जरा भी जाहिर नहीं की। सेन ने जितना विश्वास ममता बनर्जी पर जताया है, उतना बनर्जी स्वयं पर रखती हैं, ऐसा उनके किसी निर्णय से परिलक्षित नहीं हो पाया है।
राष्ट्रीय योजनाओं का विरोध, चुनावों में हिंसा, केंद्रीय एजेंसियों के प्रति रोष, फ़ेडरल स्ट्रक्चर की रक्षा के नाम पर उसी स्ट्रक्चर का विरोध, लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर लोकतान्त्रिक परम्पराओं की तिलांजलि देने जैसे अनगिनत कार्यों के जरिए बनर्जी हमेशा से ही स्थानीय राजनीति स्थितियों को अपने पक्ष में करती आईं हैं।
केंद्र में वर्तमान सत्ताधारी दल या उसके नेता के विरोध और नीतियों के प्रति ममता बनर्जी की नाराजगी उन्हें लोकसभा चुनावों में किसी नेता के ‘समर्थक’ के रूप में तो खड़ा कर सकती है पर नेता के रूप में अन्य दलों के बीच उनकी स्वीकार्यता को लेकर हमेशा शंका बानी रहेगी।
प्रधानमंत्री देश का सर्वोच्च सेवक होता है। इस पद की गरिमा इसके लोकतांत्रिक व्यवहार में है और इस व्यवहार का पालन करना प्रत्येक राजनेता का दायित्व है। स्थानीय राजनीति को साधने वाली ममता बनर्जी ने इस दायित्व की उपेक्षा ही की है इसलिए उन्हें इस दौड़ में खड़ा होने के लिए अभी लंबी यात्रा करनी पड़ सकती है।
सत्ता परिवर्तन लोकतंत्र का आधार है और इसके लिए सभी पार्टियों को तैयार भी रहना होता है। हालांकि एक चेहरे को ढूंढने में या बनाने के बजाए विपक्षी पार्टियां वर्तमान सरकार की तुलना में किस तरह बेहतर विकल्प प्रस्तुत करने की रणनीति पर काम करें तो यह उन्हें न केवल एक समर्थ विपक्ष के रूप में खड़ा करेगा बल्कि राजनीतिक तौर पर लाभ भी दे सकता है।