देश में मुस्लिम संबंधी मुद्दा जब भी उठता है, ऑल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का नाम खुद ही सामने आ जाता है। अब मुद्दा चाहे बाबरी मस्जिद से जुड़ा हो, समान नागरिक संहिता (UCC) से जुड़ा हो या फिर पुलिस द्वारा दंगाइयों पर कार्रवाई किए जाने से जुड़ा हो।
क्यों AIMPLB पर दंगाइयों को बचाने के आरोप लगते रहे हैं ? मुस्लिमों से जुड़े हर मुद्दे में AIMPLB अपनी टांग क्यों अड़ाता है, महिलाओं के अधिकार की बात हो या किसी भी तरह मुस्लिम समाज में परिवर्तन की, बोर्ड हमेशा तरक्की के दूसरे ध्रुव पर ही मिलता है।
यह संस्थान आखिर है क्या, करता क्या है और चलता कैसे है…आपके इन सारे सवालों के जवाब यहां मिलेंगे…
आखिर ये AIMPLB है क्या?
शुरू से शुरू करते हैं, सबसे पहले पता करते हैं कि आखिर जिस मुस्लिम पर्सनल लॉ के लिए पूरी संस्था काम कर रही है, वो हैं क्या?
दरअसल मुस्लिम पर्सनल लॉ वे कानून हैं जो शरीयत के मुताबिक चलते हैं। मुस्लिमों की आम जीवन पद्धति के विषयों को इस्लाम के अनुसार जीने के तरीके और नियम बताते हैं। इनमें उत्तराधिकार, विवाह, तलाक़ जैसे विषय शामिल हैं, इन कानूनों को आम भाषा में हम शरिया कानून के नाम से जानते हैं।
शरिया वे कानून हैं जो सीधे क़ुरान मज़ीद से लिए गए हैं या पैगंबर मुहम्मद की जीवन की शिक्षाएं हैं, जिन्हें हम हदीस कहते हैं।
अब AIMPLB पर आते हैं, AIMPLB की स्थापना अप्रैल 1972 में मुंबई में हुई। यह एक NGO मात्र है। इसकी स्थापना में दो प्रमुख नाम थे – मौलाना कारी तैय्यब कासमी और मौलाना मिनतुल्लाह रहमानी। इसने अपना संविधान 1973 में बनाया।
ध्यान देने वाली बात ये है कि इसकी स्थापना में उस समय की इंदिरा गांधी सरकार का भी बड़ा योगदान माना जाता है, क्योंकि उन्होंने खुलकर इनका साथ दिया था। श्रीमती गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में भले ही आपाातकाल के दौरान सेक्युलर शब्द को जोड़ा, पर उसकी प्रासंगिकता शायद वर्ग विशेष के लिए ही थी। तब से अब तक यह संस्था ने खुद को मुस्लिमों का प्रतिनिधि बताती रही है|
कानूनन AIMPLB कोई सरकारी आयोग, समिति या संस्था नहीं है बल्कि एक NGO है जो कि अपने को मुस्लिम कानूनों के और उनके अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध संगठन बताता है। इसका दावा है कि यह वैसे किसी भी सरकारी या न्यायिक फैसले का विरोध करता है, जो मुस्लिम कानूनों और परम्परा के खिलाफ जाए।
क्या है AIMPLB का ढांचा और कैसे बनते हैं इसके सदस्य ?
AIMPLB के संविधान के अनुसार इसमें में दो समितियां होती हैं, एक कार्यकारी समिति और एक आम समिति।
आम समिति में 251 सदस्य होते हैं, जो इस्लाम के विभिन्न मान्यताओं और फिरकों से आते हैं , इनमें से कम से कम 30 महिलाएं भी सदस्य होंगी।
इसके अतिरिक्त बोर्ड के कार्यों के सम्पादन के लिए एक कार्यकारी सभा भी होती है, इसमें केवल 51 सदस्य होते हैं। इनमें से 35 का चुनाव बोर्ड के सदस्यों द्वारा होगा और 15 सदस्य बोर्ड के अध्य्क्ष के द्वारा नामित किये जाते हैं। एक वर्ष में दो बार यह समिति बैठक के लिए मिलेगी।
बोर्ड में एक अध्य्क्ष , 5 उपाध्यक्ष और एक महासचिव तथा 3 सचिव होंगे। अध्य्क्ष का चुनाव बोर्ड के सभी सदस्यों के द्वारा किया जाएगा।
AIMPLB : मुस्लिमों का कथित रहनुमा और इसकी वैधानिक स्थिति
AIMPLB किसी भी मुस्लिम मुद्दे को लपक लेता है यह कह कि भारत में मुसलमानों के अधिकारों को बचाने वाली यह सबसे प्रमुख संस्था है। हालाँकि, इसके ढाँचे में यह बात साबित नहीं होती।
इसके सदस्यों में अधिकतर अशराफ यानी ऐसे मुस्लिम जोकि ऊँची जातियों से आते हैं का प्रभुत्व है, इसके अलावा इसके अधिकतर सदस्य बहुत ही प्रभाव वाले कुछ मुस्लिम परिवारों से आते है जिनको मुस्लिमों की जमीनी स्थिति की समझ नहीं है।
पसमांदा मुस्लिम, मुस्लिमों में नीचे तबकों जैसे नाई, धोबी और कसाई जैसी अन्य जातियों से आने वाले मुस्लिम जो कि भारत में मुस्लिम आबादी का करीब 85% हैं, का प्रतिनिधित्व इस संस्था में न के बराबर है।
बोर्ड में जगह पाने वाले अधिकतर या तो प्रभावशाली वकील, नेता या बड़े पदों पर बैठे हुए मौलाना हैं।
इस्लाम में किसी भी तरह के जातिवाद के अस्तित्व को खारिज करने वाले AIMPLB और अन्य मुस्लिम संस्थाएं इस बात को कहीं से भी साबित नहीं कर पाती कि पसमांदा मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व आज तक इन संस्थाओं में क्यों नहीं है ?
यहाँ पर यह प्रश्न खड़ा होता है कि जब यह संस्था केवल 15% मुस्लिमों को अपने ढाँचे में जगह देता है तो फिर यह पूरी मुस्लिम आबादी का प्रतिनिधित्व करने का दावा कैसे करती है ?
इस संस्था का कोई वैधानिक आधार भी नहीं है, जैसा कि इसके बारे में जानकारी उपलब्ध है कि यह पर्सनल लॉ बोर्ड कोई सरकारी संस्था नहीं, बल्कि एक NGO है जिसका निर्माण मुस्लिमों के हक़ की बात करने के लिए किया गया था।
इस तरह बोर्ड का यह दावा कि यह पूरे मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करती है, खोखला साबित हो जाता है।
AIMPLB का विवादों से नाता
ज्यादातर मौकों पर AIMPLB को मुस्लिमों तरक्की के लिए उठाये गए हर कदम के विरोध में ही देखा गया है, अब मुद्दा चाहे 1985 में शाह बानो केस का रहा हो या हाल ही में तीन तलाक़ का मुद्दा। बोर्ड ने हमेशा रूढ़िवादी रुख ही अपनाया है
AIMPLB के साथ विवाद भी काम नहीं जुड़े हैं, दंगाइयों के लिए वकालत करने, उन्हें विधिक सहायता पहुँचाने और यहाँ तक कि गिरफ्तार दंगाइयों के लिए भी मदद के आरोप बोर्ड पर है।
हाल ही में नूपुर शर्मा की पैगंबर मोहम्मद के विषय में की गयी टिप्पणी के बाद मुस्लिम दंगाइयों ने भारत के कई शहरों में दंगे किए। इनमें कानपुर, प्रयागराज, देवबंद, सहारनपुर, रांची, मुरादाबाद जैसे शहर सबसे ज्यादा प्रभावित रहे।
हालिया कानपुर दंगो में जब पुलिस ने सिराज और 50 अन्य दंगाइयों को गिरफ्तार किया, तब उत्तर प्रदेश की सरकार को कोसते हुए बोर्ड के महासचिव सैफुल्लाह रहमानी ने सरकार पर पक्षपातपूर्ण और एकतरफा कारवाई करने के आरोप मढ़ दिए।
इससे पहले CAA के दौरान भड़के दंगों में उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मोहसिन रजा ने AIMPLB का हाथ बताया था ।उन्होंने बोर्ड पर आतंकी कनेक्शन होने का भी आरोप लगाया।
बोर्ड की रूढ़िवादिता का सबसे पहला नज़ारा 1985 में शाह बानो मुद्दे में दिखा जब सुप्रीम कोर्ट ने 62 वर्ष की तलाकशुदा महिला शाह बानो के पक्ष में हर्ज़ा खर्चा देने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने उसके पति को दिया।
तब उस बूढी महिला के मानवाधिकार को नज़रअंदाज़ करते हुए और अपने मुस्लिम कानूनों का हवाला देते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस फैसले का जमकर विरोध किया। आखिर तत्कालीन सेकुलर राजीव सरकार ने संसद में क़ानून लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट ही दिया। वह फोड़ा आज नासूर बनकर भारत भर में फैल गया है, जो आप और हम अपने आसपास देख सकते हैं।
तीन तलाक मुद्दे पर AIMPLB का रुख सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बिलकुल विपरीत रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में तलाक ए बिद्दत यानी एक साथ तीन बार तलाक़ बोल कर दिए जाने वाले तलाक़ पर रोक लगा दी थी। सरकार ने कोर्ट के निर्देश के मुताबिक कानून बनाकर इस पर रोक लगाई। बोर्ड आज तक इस पर रोना-पीटना मचाए हुए है।
बाबरी मस्जिद पर सुप्रीम कोर्ट का अगस्त 2019 का फैसला हिन्दू पक्ष में आने के पश्चात भी बोर्ड हिंदू पक्ष तो छोड़िए, कोर्ट तक पर ऊंगली उठाता रहा है।
अगस्त 2021 में तालिबान के द्वारा अफ़ग़ानिस्तान के अवैध तरीके से कब्ज़े को भी बोर्ड के कुछ प्रमुख सदस्यों ने सही ठहराया था। बोर्ड के सचिव उमरैन महफूज़ रहमानी और इसके प्रवक्ता सज्जाद नोमानी जैसे लोग तालिबान के खुले समर्थन में उतर आये थे |
AIMPLB के महासचिव सैफुल्लाह रहमानी ने कानपुर के दंगाइयों को बचाते हुए कहा, “दंगाइयों के खिलाफ की गयी कार्यवाही एकतरफा और अन्यायपूर्ण है”
इसके अलावा विगत दिनों में कर्नाटक में हुए हिज़ाब विवाद में भी बोर्ड का कट्टर चेहरा सामने आया जब मुस्लिम छात्राओं ने शैक्षिक संस्थाओं में जबरन हिज़ाब पहनकर जाने का प्रयास किया और बोर्ड ने उन छात्राओं को संस्थान का नियम मानने के बजाय अपनी मनमानी करने के लिए प्रोत्साहित किया।
अगर यह कहा जाए कि महज चार दशकों पुराना एक संगठन केवल अपनी नकारात्मक बातों और गलत बयानों से चर्चा में रहा है, तो गलत नहीं होगा। ऐसे में, सरकार को इसकी भूमिका पर विचार करने की सख्त जरूरत है, इनको कानूनी प्रावधानों के तहत लाने की आवश्यकता है।