‘सम्राट पृथ्वीराज चौहान के शहर में आपका स्वागत है’
अपने गौरवशाली इतिहास को याद करते हुए राजस्थान का शहर अजमेर आपका यही कह कर स्वागत करता है। विडंबना यह है कि इस शहर के समाज ने कथित सामाजिक संतुलन के लिए एक बार नहीं बार-बार अपने इतिहास को भुलाया है। सम्राट पृथ्वीराज से सीख न लेने वाला यह शहर आज 1990 के दशक में हुए कुख्यात अजमेर सेक्स स्कैंडल पर बात नहीं करना चाहता। बात नहीं करने की वजह स्वयं का अपराध बोध भी हो सकता है जिसने समय पर न तो इस रेप स्कैंडल के पीड़ितों की आवाजें सुनी न उनके लिए अपने हाथ आगे बढ़ाए।
जब अजमेर में रेप केस की वास्तविकता सामने आई तो समझ आया कि जो ख़ौफ़नाक क़िस्सा पीड़ित स्कूली छात्राओं के ब्लैकमेल से शुरू हुआ था, उसमें एक के बाद एक, अलग-अलग लोगों ने उनका अलग-अलग तरीक़ों से शोषण किया। इन सबमें अजमेर के रईस घराने के लोगों के साथ ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के खादिम परिवार के सदस्य फारुख चिश्ती और नफीस चिश्ती का नाम मुख्य दोषियों में शामिल था।
अजमेर सेक्स स्कैंडल दरअसल सरकारी, न्यायिक और सामाजिक मशीनरी के फेल होने का सबसे बड़ा उदाहरण है। बेशक, अपराध और पीड़ितों के लिए आवश्यक न्याय में कानून और न्यायिक संस्थाओं पर बात होनी चाहिए पर इस स्कैंडल से न्यायिक व्यवस्था के फेल होने का उदाहरण बाद में बना, सबसे पहले यह सामाजिक लापरवाही ही सामने आई।
इस कांड की भयावहता जितनी रही, उतनी इस पर कभी बात नहीं की गई। इसके तीन मुख्य कारण माने जा सकते हैं। पहला, सूफी समाज के प्रति बनी धारणाओं को टूटने से बचाना। दूसरा, राजनीतिक डिस्कोर्स के चलते मामले को दबाकर साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने का प्रयास और तीसरा, न्यायिक स्तर पर मिली हार।
शहर में अपराध घटित होने का असर समाज पर हुआ और अपराध में न्याय नहीं मिला तो उसका असर भी समाज पर ही हो रहा है। ऐसे में इस अपराध को लेकर सामाजिक प्रतिक्रिया हुई वह बहुत महत्वपूर्ण है।
अजमेर हिंदू बहुल क्षेत्र है। हालांकि यहाँ के दरगाह क्षेत्र में मुस्लिम बड़ी संख्या में निवास करते हैं। 1990 के दशक में दरगाह का खादिम परिवार शहर में अलग रसूख रखता था। साथ ही परिवार के साथ आर्थिक और राजनीतिक ताकत जुड़ी हुई थी। राज्य में उस समय कॉन्ग्रेस की सरकार थी और खादिम परिवार के कई सदस्य कॉन्ग्रेस से जुड़े हुए थे। हिंदू समाज के लिए दरगाह सूफियों की जगह थी। हिंदू समुदाय इसे सॉफ्ट इस्लाम का रूप मानकर चलता था। यही कारण है कि दरगाह पर बड़ी संख्या में हिंदुओं की उपस्थिति भी देखी जाती थी।
हालांकि शहर में जब हिंदू लड़कियों के यौन शोषण की दबी खबरें कानों तक पहुँचने लगीं तो खादिम परिवार की इसमें सलंग्नता ने हिंदू समाज की धारणाओं को धीरे-धीरे तोड़ने का काम किया। दरअसल इस मामले से उस अनंत सहिष्णुता को भी चोट पहुँची थी, जो सदियों से हिंदू समाज में अंतर्निहित है।
इसी सहिष्णुता के चलते हिंदुओं द्वारा दरगाह को सूफी संतों के स्थान के रूप में मान्यता दी गई, बिना यह समझे कि इसका उद्देश्य धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देने के लिए भी हो सकता है। इसे धर्मनिपेक्षता का असर नहीं कहा जा सकता बल्कि यह हिंदू समाज की स्वाभाविक सहिष्णुता थी जो दरगाह में सूफी संतों की उपस्थिति को किसी और एजेंडा के लिए मानने से इंकार कर रही थी। ऐसे में दरगाह के खादिम परिवार के सदस्यों द्वारा इतने बड़े अपराध किए जाने पर इस धारणा को चोट पहुँचनी ही थी। शायद यही कारण भी रहा कि समाज, सरकार और न्यायपालिका के स्तर पर इस घटना को बार-बार झुठलाया गया ताकि दरगाह की सूफी तस्वीर पर आंच न आने पाए।
सूफियों पर वृहद हिंदू समाज का विश्वास ऐसा था कि उसने कभी उनका एजेंडा देखने का प्रयास नहीं किया। सूफी समाज को हिंदुओं ने इस्लाम के सॉफ्ट रूप में समझा और उसे अपने बीच जगह दी। हालांकि इसमें जो याद रखने वाली बात थी, वो यह है कि अजमेर में ही नहीं बल्कि अन्य जगहों पर भी सूफी समाज का आरंभ ही इस्लाम का प्रचार प्रसार करने एवं धर्मांतरण के लिए था जिसके लिए रुढिवादी इस्लामी कट्टरता के स्थान पर सूफीज्म की धारणा का निर्माण किया गया था। सम्राट पृथ्वीराज चौहान जब मोहम्मद गौरी को युद्ध में हरा रहे थे, उसी समय मोईनुद्दीन चिश्ती भारत आया और अजमेर में सूफियों का डेरा लगा दिया जिसका काम था लोगों का मतांतरण करवाना। समय के साथ समाज ने इसको ढकने का काम किया। सूफीयत को अपराध से क्लीन चिट देना किसी सेक्यूलरिज़्म का नहीं बल्कि समाज की अनंत सहिष्णुता का परिणाम था।
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चिश्ती समाज के इसी इतिहास को भूलना क्या हिंदू समाज की अपनी समझ के फेल होने का उदाहरण नहीं था?
इतिहास को भूलने के लिए कहा गया है कि जब तक आप इतिहास से सीख न लें, यह अपने आपको दोहराता रहता है। यही हुआ भी। 2 वर्षों के लंबे अंतराल में समाज में लड़कियों के साथ हो रहे इस बर्ताव की अफवाहें तो सामने आ रही थी पर न तो सरकार से मदद मिल रही थी और न ही प्रशासन से। इससे दुखद क्या हो सकता है कि शासन एवं प्रशासन को जगाने के लिए अजमेर की पत्रिकाओं में पीड़ित लड़कियों की नग्न आपत्तिजनक तस्वीरें छापी गई। आखिरकार हिंदू परिवारों ने अपने साथ हुए अपराध के लिए विरोध दर्ज करवाना प्रारंभ किया और प्रशासन के खिलाफ सड़कों पर उतरे तो सरकार द्वारा शहर ही बंद कर दिया गया।
मामले के मुख्य दोषी फारुख चिश्ती और नफीस चिश्ती दरगाह से जुड़े होने के साथ ही प्रदेश युवा कॉन्ग्रेस के सदस्य भी थे। इन्हें बचाने के लिए पूरा इकोसिस्टम समाज के सामने खड़ा भी था और भारी भी पड़ रहा था। जाहिर है समय से कार्रवाई नहीं होने का फायदा सीधा अपराधियों को मिला। घटना की जांच करने वाले पुलिस अधिकारियों का मानना है कि मामले के सामने आने के साथ ही कार्रवाई की जाती तो इस जघन्य अपराध के लिए फांसी की सजा भी मिल सकती थी।
हालांकि 1990-1992 के दौरान कॉन्ग्रेस की सरकार के कार्यकाल में पुलिस द्वारा पीड़िताओं का एक भी केस दर्ज तक नहीं किया गया। वहीं पुलिस तक मामला पहुँचने पर पीड़िताओं को ब्लैकमेल करने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी ही हुई। मामला सामने आने पर विश्व हिंदू परिषद द्वारा पुलिस एवं सरकार पर कार्रवाई का दबाव बनाया गया तो सामने आने वाले सदस्यों एवं पीड़िताओं को जान से मारने की धमकियां मिलने लगी थी। इसका असर यह हुआ कि अपराधियों के समर्थन में खड़े एक पूरे राजनीतिक इकोसिस्टम के सामने पीड़िताएं कमजोर पड़ गई। किसी को आत्महत्या करनी पड़ी तो कुछ ने शहर ही छोड़ दिया।
दरअसल शासन एवं प्रशासन को भी खबर थी कि वृहद सहिष्णुता की आड़ और कथित धर्मनिरपेक्षता का नाम लेकर अजमेर में 200 से अधिक लड़कियों के यौन शोषण को सामान्य घटना बनाकर पीछे फेंका जा सकता है। उनके लिए पीड़ितों को न्याय दिलाने से भी बड़ा प्रश्न था कि मामले का साम्प्रदायीकरण होने से किस प्रकार रोका जाए। यही कारण था कि सरकार औऱ कानून को अपराधियों को कटघरे में खड़े करने की तुलना में मामले में कार्रवाई न करना अधिक आसान लगा।
शासन एवं प्रशासन अपने स्वार्थ से बंधे हैं पर समाज नहीं। जितने प्रकार की क्रांतियां विश्व ने देखी है उसमें समाज का सहयोग न होता तो संभवतः वह होती ही नहीं। ऐसे में अजमेर में जहां इतने बड़े स्तर पर इतने बड़े समय तक हिंदू लड़कियों का यौन शोषण किया गया हो, वहां समाज की भूमिका पर भी नजर डालनी आवश्यक है। आज भी कथित साम्प्रदायिक सौहार्द का दंभ भरने वाला समाज अभी तक यह जवाब नहीं दे पाया कि अजमेर की 200 से अधिक पीड़िताएं मात्र एक ही धर्म से क्यों ताल्लुक रखती थी? क्यों अपराधियों ने हिंदू लड़कियों को ही निशाना बनाया?
तत्कालीन शहर का आम हिंदू इस प्रश्न का उत्तर खोजने में नाकाम रहा। दरअसल अजमेर का ही नहीं बल्कि समस्त हिंदू समाज को सहिष्णुता की सीमा का आभास नहीं था। शायद इसी का इस्तेमाल करके धर्मनिरपेक्षता की धारणा साम्प्रदायिक सौहार्द बनाने के लिए नहीं बल्कि अपराधों का समान्यीकरण करने के लिए इस्तेमाल की गई। कुछ अपराधों पर प्रश्नचिन्ह लगाना धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध माना गया। अजमेर का समाज जब तक यह समझ पाता, तब तक देश का सबसे बड़ा सेक्स स्कैंडल सामने आ चुका था, जिसकी जड़ कहीं न कहीं कट्टरता, अपराध एवं राजनीतिक स्वार्थ से जुड़ हुई थी।
देखा जाए तो बात अपराध की होनी चाहिए थी। पीड़िताओं को न्याय, सुरक्षा और उनके भविष्य की चर्चा दरकिनार कर आपराधिक इकोसिस्टम को ढकने की दिशा में ही काम किया गया। जाहिर है समाज की नाराजगी से धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार डरे हुए थे कि हिंदू समाज सूफी समाज के उस एजेंडे को फिर से समझने लगा है जिसे इतिहास बोल कर नजरअंदाज कर दिया गया था। यही कारण था कि इस एजेंडे को धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़ाई गई और उसकी भयावह सच्चाई समाज में सामने आने पर इसे फिर से इस्लामोफोबिया और अपराध का धर्म नहीं होने जैसी चर्चाओं के जरिए ढकने का प्रयास किया गया।
बहरहाल अजमेर इस बात का उदाहरण है कि समाज के संगठित होने के बाद भी राजनीतिक, कानूनी एवं सरकारी लाभ के लिए किस प्रकार पीड़ित को अपराधी और अपराधी को आम नागरिक बना दिया जाता है। 30 वर्षों से भी अधिक समय बाद आज तक इस घटना की चर्चा हो रही है तो इसलिए क्योंकि इस अपराध के पीड़ितों को न्याय का आज तक इंतजार है और इसपर बात करना आवश्यक है।
जाहिर है कि जघन्य अपराध का पोषण बिना राजनीतिक सहायता के संभव नहीं है और तब तो बिलकुल भी नहीं जब अपराधी स्वयं राजनीतिक पृष्ठभूमि रखता हो। ऐसे में अजमेर के इस दुखद अपराध के सामाजिक पहलू को समझने के बाद अगले संस्करण में हम इसके राजनीतिक पहलू पर नजर डालेंगे और समझने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार सामाजिक न्याय राजनीतिक स्वार्थ की भेंट चढ़ गया।
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